________________
कर्म का विज्ञान
३७
आते हैं, वे क्रियमाण कर्म । इस तरह ये कर्म तीन प्रकार से पहचाने जाते हैं। लोग कहते हैं देखो न, इसने दो धौल मार दी । धौल मारनेवाले को देखते हैं, धौल खानेवाले को देखते हैं, वह क्रियमाण कर्म है । अब क्रियमाण कर्म अर्थात् क्या? फल देने के लिए जो सम्मुख हुआ, वह यह फल। उसे फल ऐसा आया कि दो धौल दे दीं। और मार खानेवाले को फल ऐसा आया, उसने दो धौल खा लीं। अब उस क्रियमाण का वापिस फल आता है । तो जो धौल मारी थी, उससे फिर मन में बदले की भावना रखता है कि मेरी पकड़ में आए, उस घड़ी देख लूँगा। इसलिए फिर वापिस वह उसका बदला लेता है । और फिर वापिस नये बीज डलते ही जाते हैं । नये बीज तो डालता ही जाता है भीतर । बाक़ी सिर्फ संचित तो ऐसे ही पड़ा हुआ, स्टोक में रखा हुआ माल । पुरुषार्थ वह वस्तु अलग है। क्रियमाण तो प्रारब्ध का रिजल्ट है, प्रारब्ध का फल है।
प्रश्नकर्ता : इस पुरुषार्थ को आप कर्मयोग कहते हैं?
दादाश्री : कर्मयोग समझना चाहिए। कर्मयोग भगवान ने जो लिखा है और लोग जिसे कर्मयोग कहते हैं, उन दोनों में आकाश-पाताल जितना फर्क है।
पुरुषार्थ अर्थात् कर्मयोग है, लेकिन कर्मयोग कैसा? ऑन पेपर। योजना, वह कर्मयोग कहलाता है । वह कर्मयोग जो हुआ, वह फिर हिसाब बँधा, उसका फल संचित कहलाता है और संचित भी जो है वह योजना में ही है, परन्तु जब फल देने को सम्मुख होता है तब प्रारब्ध कहलाता है, और प्रारब्ध फल दे तब क्रियमाण खड़ा होता है । पुण्य हो तब क्रियमाण अच्छे होते हैं, पाप आएँ तब क्रियमाण उल्टे होते हैं।
अनजाने में किए हुए कर्मों का फल मिलता है क्या ?
प्रश्नकर्ता : जान-बूझकर किए हुए गुनाहों का दोष कितना लगता है? और अनजाने में की हुई भूलों का दोष कितना लगता होगा? अनजाने में की हुई भूलों के लिए माफ़ी मिलती होगी न ?