Book Title: Karma Ka Vignan
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Aradhana Trust

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Page 24
________________ कर्म का विज्ञान ११ कर्त्तापद गया, कर्त्तापद करनेवाला गया, 'मैंने किया', ऐसा बोलनेवाला गया तो हो चुका, खतम हो गया। दोनों अलग ही हैं फिर तो । कर्म बँधें, वह तो अंतः क्रिया प्रश्नकर्ता : मनुष्य को कर्म लागू होते होंगे या नहीं? दादाश्री : निरंतर कर्म बाँधते ही रहते हैं । दूसरा कुछ करते ही नहीं । मनुष्य का अहंकार ऐसा है कि खाता नहीं, पीता नहीं, संसार नहीं बसाता, व्यापार नहीं करता, फिर भी मात्र अहम्कार ही करता है कि 'मैं करता हूँ', उससे सारे कर्म बाँधते रहते हैं । वह भी आश्चर्य है न? यह प्रूव (साबित) हो सके ऐसा है ! खाता नहीं है, पीता नहीं है, यह प्रूव हो सके ऐसा है। फिर भी कर्म करता है, वह भी प्रूव हो सकता है । और सिर्फ मनुष्य ही कर्म बाँधते हैं । प्रश्नकर्ता : शरीर के लिए खाते-पीते हों, परन्तु फिर भी खुद कर्म नहीं भी करते हो न? दादाश्री : ऐसा है न, कोई व्यक्ति कर्म करता हो न तो आँख से दिखता नहीं है। दिखता है आपको? यह जो आँखों से दिखता है न, उसे दुनिया के लोग कर्म कहते हैं । इन्होंने यह किया, इन्होंने यह किया, इसने इसे मारा, ऐसा कर्म बाँधा । अब जगत् के लोग ऐसा ही कहते हैं न? प्रश्नकर्ता : हाँ, जैसा दिखाई देता है ऐसा कहते हैं । दादाश्री : कर्म यानी उसकी प्रवृत्ति क्या हुई, उसको गाली दी तो भी कर्म बाँधा, उसको मारा तो भी कर्म बाँधा । खाया तो भी कर्म बाँधा, सो गया तो भी कर्म बाँधा, क्या प्रवृत्ति करता है, उसे लोग कर्म कहते हैं। परन्तु वास्तव में जो दिखता है वह कर्मफल है, वह कर्म नहीं है । कर्म बँधते हैं, तब अंतरदाह होता रहता है। छोटे बच्चे को कड़वी दवाई पिलाएँ तब क्या करता है? मुँह बिगाड़ता है न! और मीठी चीज़ खिलाए तो? खुश होता है । इस जगत् में जीव मात्र राग-द्वेष करते हैं, वे

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