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श्री कामघट कथानकम्
पानकं शर्करा
यावज्जीवेत्सुखं जीवे-दृणं कृत्वा घृतं पिवेत् । भश्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः ? ॥ २०॥
जबतक जीवित रहे तबतक खुब सुख से जीवित रहे और मृण ( कर्जा ) लेकर घी पीना चाहिए, क्योंकि मृत्यु के बाद जला हुआ शरीर का फिर आना कहां से १॥२०॥
बौद्धमतेऽपि चबौद्ध के मत में भीमृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया, मध्ये भक्तं
चापराहणे । दाक्षा खंड
चार्द्धरात्र, मोक्षश्चान्ते शाक्यसिंहन
दृष्टः ॥ २१ ॥ सुबह कोमल उज्ज्वल सज्जा पर से उठ कर शराब पीना चाहिए, उसकेबाद दोपहर में भात आदि फिर अपराह में (ते पहर में ) जलपान आदि और आधी रात में अंगूर, सक्कर और मिश्री खानी चाहिए फिर मोक्ष होता है, ऐसा शाक्य सिंह (बुद्ध) ने देखा था-अर्थात् जिन्दगी में जो खूब खाता पीता और मौज उड़ाता है उसे अन्त में मोक्ष मिलता है ऐसा बुद्ध का मत ( सिद्धान्त ) है ।। २१ ॥
इति राजवाक्यं निशम्य मंत्री प्रत्युवाच हे महाराज ! नैतद्वक्तुं युज्यते, सर्वप्रमाणसिद्ध आत्मा नापलपयितुं शक्यः। यदि च लोकांतरगामी आत्मा न सिद्ध्येत्तदैव 'यावजीवेत्सुखं जीवेत्' इति भवदुक्तं संगच्छेत । अत आत्मसिद्धिस्तावदाकर्ण्यताम् – 'अहं सुखी अहं दुःखी' इति प्रत्यययोगत आत्मा शरीरादिव्यतिरिक्तः प्रतीयते, शरीरादिसंघातानां जडत्वान्न तादृशप्रतीतिस्तत्र घटते। किंच-'अहं घटं वेद्मि' एतस्मिन् वाक्ये कर्ता कर्म क्रिया चेति त्रितयं प्रतिभासते, तत्र कर्मक्रिये स्वीकृत्य कुतः कर्ता प्रतिषिध्यते ? जडे शरीरे कत त्वमेव न संभवति, भूतचैतन्ययोगात्तत्र चैतन्यमस्तीति चेदसंगतम् । 'मया दृष्टं श्रुतं स्पृष्टं घातं ज्ञातं स्मृतं भुक्तं पीतमास्वादितम्' इत्येककत का भावा भूतचिद्वादे न संगच्छन्ते चेतनबहुत्वप्रसंगात् । गवादीनां वत्सः पूर्व स्वयमेव स्तन्य-पानार्थमुत्तिष्ठति,तदपि जन्मान्तरानुभवं विना न संगच्छते, तेन सिद्धमात्मनो लोकान्तरगमनम् ,लोकान्तरगमनसिद्धया शुभाशुभकर्मबन्धोऽपि सिद्धः। कर्मवैचित्र्यात्स्व
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