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भी कामघट कथानकम
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अपि चऔर भीयावत्स्वस्थमिदं कलेवर-गृहं यावच्च दूरे जरा, यावच्चेन्द्रिय-शक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः । आत्म-श्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् , प्रोद्दीप्ते भवने च कूप-खननं प्रत्युद्यमः कीदृशः ? ॥८४ ॥
जबतक यह शरीर स्वस्थ है और जबतक बुढ़ापा दूर है, एवं जबतक ठीक ठीक इन्द्रियों की शक्ति है और जबतक आयु क्षय नहीं हुई है, तभी तक विद्वान् बुद्धिमान् को आत्म-कल्याण में महान् प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि, घर में आग लगजाने पर उस समय में कुआं खोदने का उद्योग कैसा ? ॥ ८४ ॥
पुनहें भव्याः ? कालोऽयमनादिकालतोऽनन्तप्राणिनो भक्षयन्नपि कदाचित्सौहित्यमलभमानोऽद्यपर्यन्तमपि संसारे प्रतिक्षणं प्राणिनामायुष्यं हरति ।
और फिर, हे भव्यलोको! यह काल अनादि काल से अनन्त-प्राणियों को भक्षण करता हुआ कभी भी सुतृप्ति को नहीं प्राप्त होता हुआ आजतक भी संसार में प्रतिक्षण प्राणियों की आयु हरता है।
यतःक्योंकिआयुर्वर्षशतं नृणां परिमितं रात्रौ तदद्धं गतं, तस्यार्द्धस्य कदाचिदर्धमधिकं वृद्धत्व-वाल्ये गतम् । शेष व्याधि-वियोग-शोक-मदनासेवादिभिर्नीयते, देहे वारि-तरङ्ग-चंचलतरे धर्म कुतः प्राणिनाम् ? ॥ ८५ ॥
मनुष्य की आयु सौ वर्ष की साधारणतः मानी गई है, आधी रातों में ही बीत जाती, उस आधे की आधी कभी कम-ज्यादा बचपन और बुढ़ापा में बीतती है और वाकी चौथाई या कुछ कम-ज्यादा आयु रोग, वियोग, शोक और विषय-वासना-सुख आदि में बीतती है और यह शरीर जल की तरङ्ग की तरह चञ्चल ( अस्थिर ) है, फिर प्राणियों का धर्म कहां से हो १॥ ८५ ।।
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