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श्री कामघट कथानकम्
१०७
जो पाताल-निवासी असुर-गण हैं, जो स्वेच्छाचारी व्यंतर है, जो ज्योतिष्क विमान वासी देव हैं, तथा ताराओं से लेकर चन्द्रमा तक, एवं सौधर्म आदि देव लोक में जो वैमानिक देव-गण हैं, वे सब भी विवश होकर यमराज के घर में जाते हैं ( मृत्यु को प्राप्त होते हैं ) फिर शोच (मरना है तो डरना) क्या ? ॥ ८७॥
अपि चऔर भीदिव्य-ज्ञान-युता जगत्-त्रय-नुताः शौर्यान्विताः सत्कृताः, देवेन्द्राः सुर-बृन्द-वन्य-चरणाः सद्विक्रमाश्चक्रिणः । वैकुण्ठा बलशालिनो हलधरा ये रावणाद्याः परे, ते कीनाश-मुखं विशन्त्यशरणा यद्वा न लंध्यो विधिः ॥८८॥
दिव्यज्ञान से युक्त, तीनों लोक से नमस्कृत, बड़े वीर, सत्कार पाए हुए, देवों के समुदाय से बन्दित चरण इन्द्र और अच्छे पराक्रम वाले चक्रवर्ती, अप्रतिहत बलशाली बलदेव और जो दूसरे रावणादिक प्रतिवासुदेव हो गए हैं, वे सब भी यमराज (मृत्यु) के मुख में अशरण (असहाय ) होकर घुसते हैं, अथवा ( वास्तव में ) भावी को कोई लांघ नहीं सकता ।। ८८ ।।
___ अस्मिन्काले समागते सर्वोत्तमा अपि निजसम्पदोऽत्रैवाऽवतिष्ठन्ते, पुनरेकाक्येव जीवः सर्वमपहाय परलोकमार्गे गच्छति ।
मृत्यु के समय आने पर सर्व-श्रेष्ठ भी अपनी धन-दौलत यहीं रह जाती है, फिर जीव सब छोड़ कर अकेला ही परलोक में जाता है।
तदुक्तञ्चकहा भी है किएतानि तानि नव - यौवन - गर्वितानि, मिष्टान्न . पान . शयनासन - लालितानि । हारार्द्ध . हार - मणि - नूपुर - मण्डितानि, भूमौ लुठन्तिकिल तानि कलेवराणि ॥ ८ ॥
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