Book Title: Kamghat Kathanakam
Author(s): Gangadhar Mishr
Publisher: Nagari Sahitya Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् (Com प्रकाशक: नागरी साहित्य संघ For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत-गौरव-ग्रन्थ-माला का प्रथम पुष्प श्री कामघट कथानकम् पाप-पुण्य विषयक संक्षिप्त-सरल-सुन्दर गद्य पद्यात्मक उपदेश प्रद कथानकयुतम् । पूर्व-सुविहित-गीतार्थ-संदर्भितम् जैनाचार्य श्रीमद विजय राजेन्द्र सूरिणा संवर्द्धितम् मिथिलावयव-मुजफ्फरपुर-मण्डलान्तर्गत-रतवारा-ग्राम-निवासिना गणितागम-पारायण पण्डित श्री मोदनारायण मिश्र मनुना ज्योतिषाचार्य-साहित्याचार्य-साहित्यरत्नादि-पदभाजा गङ्गाधर मिश्रेण राष्ट्रभाषायामनुवादितं सम्पादितञ्च । कलकत्ता-१ वीर निर्वाणाब्द २४८१ प्रथमावृत्ति १००० ] [ मुल्य ४) For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रकाशक : इन्द्र चन्द्र नाहटा नागरी साहित्य संघ २, चर्च लेन, कलकत्ता- १ www.kobatirth.org [ सर्वाधिकार सुरक्षित ] विक्रम सम्वत् २०११ For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सन् १९५४ ई० मुद्रक : महालचन्द बद ओसवाल प्रेस १८६, क्रोस स्ट्रीट, कलकत्ता-७ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूमिका इस पुस्तक के प्रकाशक श्री इन्द्रचन्द्रजी नहाटा ने श्रीमान् विजय राजेन्द्र सुरीश्वर द्वारा विरचित तथा पंडित गंगाधर मिश्र द्वारा अनूदित इस पुस्तक के सम्बन्ध में दो शब्द लिखने के लिये मुझ से कहा है। यह जैन मतानुयायी पुस्तक है परन्तु जिस तत्व ज्ञान को भारतीय तत्व ज्ञान की संज्ञा दी जाती है और जो आध्यात्मिक आधि दैविक तथा आधि भौतिक इन तीनों क्षेत्रों में मनुष्य जीवन का विश्लेषण करके सिद्धान्त प्रस्थापित करने का यत्न करता है उसकी विशेषता यह है कि वह विभिन्न मतों का संग्राहक है न कि विध्वंसक क्योंकि अन्यान्य मतों में जो अन्तर रहता है वह इतना सूक्ष्म होता है कि उससे मोटी मोटी बातों में भिन्नता का कोई प्रत्यय प्राप्त नहीं होता। इस दृष्टि से यह पुस्तक जितनी जैन मतानुयायियों को रोचक होगी उतनी ही वह दूसरे मतानुयायियों को भी रोचक होगी, ऐसी मेरी आशा है । यों तो इस पुस्तक में दो कथाएँ हैं और उनमें से पहले कथानक में राजा के मंत्रीने भगवान की भक्ति कर जो कामघट प्राप्त किया उसके फल स्वरूप ही इस पुस्तक का नाम “कामघट कथानकम्” निश्चित हुआ। दोनों कथाओं का उद्देश्य केवल एक है। वह यही है कि समाज में नैसर्गिक कारणों से प्रचलित रहने वाली पाप बुद्धि का दमन हो और धर्म बुद्धि का समर्थन हो। दोनों कथाओं में पाप बुद्धि राजाओं ने अपने धर्म बुद्धि मंत्रियों का उपदेश नहीं माना और उन मंत्रियों ने उसके कारण उन्हें छोड़ कर दूसरे देशों में जाकर अपने धर्म प्रभाव से ऐश्वर्य प्राप्त करके दिखाया। आनुसंगिक रूप में धर्म बुद्धि का कुछ वर्णन तथा विश्लेषण पुस्तक में किया गया है और पाप बुद्धिका भी । यह असम्भव नहीं है कि ऐसा भी आक्षेप उठाया जावे कि इस विज्ञान के युग में इस प्रकार के ग्रन्थों से देश को कोई लाभ न होगा। मुझे ऐसे आक्षेप की यथार्थता के सम्बन्ध में बहुत संशय होता है। विज्ञान तो केवल मनुष्य और निसर्ग के पारस्परिक सम्बन्धों का नियंत्रण करता है परन्तु अन्तिम रूप में मनुष्य की मानवता मनुष्य के आन्तरिक विकार तथा विचार पर ही निर्भर रहती है। व्यक्ति का कल्याण और समाज का कल्याण इस ध्येय प्राप्ति के लिये विकार तथा विचारों को प्रभावित करने के हेतु कथाओं के रूप में साहित्य लिखने की परिपाटी संस्कृत में पुरातन काल से प्रचलित है सम्भवतः कुछ अंश तक For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ख) उसी के कारण लोगों में एक भ्रान्त धारणा पैली है कि संस्कृत साहित्य में जो कथाएँ कही जाती हैं मानों वे ही रचयिता का लक्ष्य है। परन्तु ऐसी बात न तो पुरातन काल में ही थी और न विद्यमान काल में ही है। नोबल पुरस्कार विजेताओं के ग्रन्थों में भी कहानियों के द्वारा तत्कालीन समस्याओं के हल का प्रयास अधिकतर गोचर होता है। इस दृष्टि से इस पुस्तक की कथा वस्तु और संस्कृत से नागरी अनुवाद कर संस्कृत न जानने वालों के लिये ऐसा सुन्दर-सरस-तथा उपदेश पूर्ण ग्रंथ जनता के समक्ष रखने के प्रकाशक के सराहनीय प्रयत्न का मैं हृदय से अभिनन्दन करता हूं। ग्रंथ इतना सरल तथा सुबोध है कि मुझे किश्चित मात्र भी सन्देह नहीं कि जनता इसे अवश्य अपनावेगी। नागपुर १०-१२-१९५४ कुंजीलाल दूबे For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समर्पणाम् । प्राणी संसार के केवल दृश्याऽदृश्य जीवन को तमोभौतिक-वाद के क्षणिक सुखाभास की उत्तुंग तरंगों में बह जाकर कालयापन करने वालों को नहीं, किन्तु प्राणी वत्सल्यता धारी मानवता के पुजारी कर्तव्य-पथ पर चिरन्तनशाश्वत-आनन्द प्रदायिनी धारा बहाने के लिये उत्सर्ग होने वाले बल वीर्य स्फूर्ति और यौवन सम्पन्न आत्माओं को सादर समर्पित है। इन्द्रचन्द्र नाहटा For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिहार स्थल, नागपुर वीर सं० २४८१ मिती मिगसर वदी ७ बीकानेर, वीर सं० "कामघट कथानकम्” की भाषाटीका देखी, पुस्तक सुन्दर सरल और मनन करने योग्य है। इन्द्रचन्द्रजी नाहटाजी का यह प्रयास स्तुत्य है, आशा करता हूं, उन्हें इस प्रयास में आगे भी सफलता मिलेगी। भ० जिन विजयेन्द्र सूरि For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकाशक का निवेदन । अल्प काल के पहले ( सम्भवतः विक्रम सम्बत २००६) की बात है। जैन श्वेताम्बर सम्प्रदाय के खरतर गच्छाचार्य श्री जिन विजयेन्द्र सूरि जी कलकत्ते में चातुर्मास पर्यन्त अपने निवास काल में जिस समय नैमित्तिक रूप से दैनिक जैन शास्त्र-सूत्र-ग्रन्थों के वाचन में ज्ञानामृत की धारा प्रवाहित कर रहे थे उस समय मैं भी आपके सरल, हृदयग्राही और विद्वत्तापूर्ण सम्भाषण श्रवण करता रहा। आपके प्रभावोत्पादक उपदेशामृत पान से मेरे अन्तर्जगत् में हलचल मची, जिसके परिणाम स्वरूप उत्पीड़ित और कुंठित हुई ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ जागृत और विकसित हुईं। किन्तु कार्य सम्पादन के मार्ग में अर्थाभाव ही खटकता रहा । मेरे व्यक्तिगत नाना प्रकारेण कठिन और गुरुतर परिस्थितियों ( समस्याओं ) में व्यस्त रहने से विलम्ब का होना अनिवार्य था। धनी मानी और योग्य कार्य कर्ताओं का सदा असहयोग ही मिलता रहा। केवल चिकने चुपड़े कोरे मिष्ट-भाषण के अतिरिक्त सक्रिय कार्य करने में तो सभी लोग सदा हतोत्साह ही दिखलाते रहे। अस्तु । अतः आगे बढ़ने की भीतर से मुझे प्रेरणा मिली। जिसके फल स्वरूप हिन्दी भाषा भाषी पाठकों की सेवा में इस "कामघट कथानकम" को लेकर उपस्थित हुआ हूं। पुस्तक की उपयोगिता और अनुपयोगिता का निर्णय करने का अधिकारी मैं नहीं, किन्तु विद्वान और गुणज्ञ पाठक ही है। मेरा यह प्रयास जन कल्याणकारी और सुयोग्य अनुभवी पाठकों को रुचिकर प्रतीत होकर उत्साह पूर्ण सक्रिय सहयोग प्राप्त हुआ तो अपना परिश्रम सफल समझ कर भविष्य में और भी अधिक तीव्र गति से अग्रसर होने, दौड़ने की भावना रखता हूं। यह बड़ी प्रसन्नता की बात है, हर्ष का विषय है कि नागपुर विश्वविद्यालय के वतमान वाइस चांसलर और मध्य प्रदेश की धारा सभा (विधान परिषद ) के अध्यक्ष साहित्य ममज्ञ, शिक्षा शास्त्री लेफ्टिनेन्ट कर्नल पंडित कुंजीलाल जी दुबे बी० ए० एल० एल० बी० का सहयोग मिल सका है। आपने प्रस्तुत ग्रन्थ की भूमिका में अपने विचारों को अलंकृत करके निःसन्देह हमारे प्रयास को प्रोत्साहन प्रदान करने की कृपा की है। अतः मैं विद्वान दुबे जी का भृणी हूं, अत्यन्त आभारी हूं। प्रस्तुत ग्रन्थ संस्कृत भाषा में है। जिसको सुबोध और सरल हिन्दी भाषा में अनुवाद करके पंडित श्री गंगाधर जी मिश्रने प्रशंसनीय सहयोग दिया है अतएव वे भी धन्यवाद के पात्र हैं। For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (-) पुस्तक को शीघ्रतम और सुन्दर छापने के कार्य में “ओसवाल प्रेस" के संचालक श्री महालचन्द जी बैद का सहयोग सराहनीय है। शीघ्रता और प्रमाद वश छपने सम्बन्धी श्रुटियों का रह जाना सम्भव है। अतएव उनके लिये पाठक पाठिकाओं से क्षमा याचना करता हूं। जो गुण-ग्राही सजन इसकी वास्तविक त्रुटियों को मुझे सूचित करेंगे, उनका सादर आभार मानूंगा और उन त्रुटियों को अगले संस्करण में सुधारने का अवश्य प्रयत्न करूंगा। नागरी साहित्य संघ ) कलकत्ता-१ पौष कृष्णा २ सम्बत २०११ निवेदकइन्द्रचन्द्र नाहटा For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्पादकीय आज यह 'कामघट कथानक' हिन्दी अनुवाद-युक्त छपवाकर प्रकाशित किया जा रहा है। इसके प्रणेता कोई माननीय प्राचीन जैनाचार्य हैं। कुछ वर्ष पूर्व श्रीमद् विजय राजेन्द्र सुरीश्वरने जैन और जेनेतर भारतीय आचार्यवर्यों के उपदेश-प्रद सूक्तियों को इसमें यथास्थान जोड़ कर इसको कुछ परिवर्द्धित रूप में प्रकाशित करवाये थे । भारतीय साहित्यों की सृष्टि आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक विषय को लेकर परम्परा से चली आरही है । इसका प्रबल - प्रमाण विश्व के सब से प्राचीन ग्रन्थ " ऋग्वेद" है । इन त्रिविध रचनाओं के बाबजूद भारतीय ऋषियों, मुनियों और विद्वानों ने आध्यात्मिक विषय को ही अधिकतर उपादेय माना है । आज की बुद्धि की बाहरी ऊँची उड़ान के युग में हमारी आध्यात्मिकता अधिक दब गई है और हम सदाचार से अलग होकर मानवता से कोशों दूर हो गए हैं। हमारा साहित्य निर्माण भी सदाचार रहित, गंदे, अश्लील, विलासिता पूर्ण होता जा रहा है। नतीजा यह है कि स्वर्ग के सहोदर भारत भूमि में सर्वत्र आज हाय हाय का कुहराम मचा हुआ है। पर अब वे दिन अधिक दूर नहीं कि जब विश्व के मानव सदाचारी बनकर सत्य और अहिंसा की शरण ले, गाँधी बाद को अपनावे | वास्तव में मानव जीवन का प्रथम सुदृढ़-सोपान सदाचार है, सदाचार ही मानव-जीवन- भित्ति की बेजोड़ मजबूत नीव है । सदाचार में ज्ञान और क्रिया के संयोग के साथ साथ बाह्य-शुद्धि और अन्तः शुद्धि का समन्वय है। सदाचार में आत्म-कल्याण भावना के साथ साथ देश, समाज, राष्ट्र और विश्व के कल्याण-भावना का भव्य भाव निहित है। सदाचार से प्रेय और श्रेय की प्राप्ति होती है। सदाचार भू- कल्पतरु है । सारांश यह कि - आदर्श - मानव-जीवन का सार संसार में सदाचार ही है । पाप सदाचार ही को धर्म या पुण्य कहते हैं और बुरे आचरण को दुष्कृत या पाप कहते हैं । का परिणाम दुःख और पुण्य का परिणाम सुख होता है, यह एक सार्वभौम मान्य- मानव- सिद्धान्त है । प्रस्तुत पुस्तक पापबुद्धि राजा और धर्मबुद्धि मंत्री के बहाने पाप-पुण्य के कथानक रूप में लिखी गई है, जो मानव जीवन को सफल बनाने के लिए मानव को सदाचारी बनने के ही प्रोत्सारित करती है । लिए कुछ अंश में अवश्य इसमें मुख्यतः दो ही कथाएँ हैं। दोनों का उद्देश्य एक ही है- मानव समाज में धर्मबुद्धि का यानी सदाचार का प्रचार और पापबुद्धि का अर्थात् दुष्टाचार का निरोध। पहली कथा में सदाचारी, For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आस्तिक, भगवद्-भक्ति-निष्ठ मंत्रीने पापबुद्धि राजा को धर्म में श्रद्धालु बनाने के लिए सब कुछ त्याग कर विदेश गया और वहां अपना सदाचरण के प्रभाव से इच्छित-फल-दाता 'कामघट' को प्राप्त करके उसके प्रभाव से राजा को चमत्कृत कर धर्म-निष्ठ बनाया, इसी लिए, इस कथा का नाम 'कामघट कथानकम' हुआ। दूसरी कथा में पुनः अपरिचित दूर देश में जाकर सदाचार के ही बदौलत अधिक प्रभावशाली होकर मंत्रीने धर्म-निष्ठा में बची खुची शंका को दूर कर राजा को दृढ़ धर्म-निष्ठ बना दिया। यही कथा का सार है। इस में मानव-जीवनोपयोगी उपदेशप्रद सरल-सुन्दर भाव-गर्भित अनेक श्लोक भी हैं, जिन से पुस्तक की सुन्दरता सुवर्ण में सुगंध की तरह और बढ़ गई है। संस्कृत में पुस्तक के होने से सर्व साधारण को इसके लाभ से वञ्चित होते देख कर सत्साहित्य के प्रचार और प्रसार के चिराकांक्षी समाज-सेवी श्रीयुत इन्द्रचन्द्र नाहटा ने इसका हिन्दी-अनुवाद करने को मुझे सस्नेह अनुरोध किया था। उसी का परिणाम स्वरूप यह समाज की साहित्यिक सेवा के लिए तैयार है। पुस्तक का सम्पादन कैसा है, इसका निर्णय गुण-दोष-विवेकी सजन पाठक ही करेंगे। भ्रान्तियों का होना कोई असम्भव नहीं। अतः जो महाशय, वास्तविक त्रुटियों की सूचना देंगे, उनका बहुत आभारी बनूंगा और दूसरे संस्करण में तत्संशोधन पूर्वक इसको और सुन्दरतम रूप देने की कोशिश करूंगा। सहृदय-विधेय :गङ्गाधर मिश्र For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् ॐ नमोऽखिलसिद्धेभ्यः, सद्गुरुभ्यस्तु सर्बदा । जिनास्योत्पन्नभाषायै, ज्ञानदा या सदाङ्गिनाम् ॥ १॥ अर्थ :-सब सिद्धों को नमस्कार हो, सद्गुरुओं को तो हमेशा नमस्कार हो। जो प्राणियों को ज्ञान देने वाली है, ऐसी जिनेश्वर के मुख से निकली हुई भाषा (जिनवानी) को नमस्कार हो ।। १ ।। उद्वाहे प्रथमो वरः किल कलाशिल्पादिके यो गुरुभूपश्च प्रथमो यतिः प्रथमकस्तीर्थेश्वरश्चादिमः । दानादौ वरपात्रमादिजिनपः सिद्धा यदम्बादिमा, सच्चक्री प्रथमश्च यस्य तनयः सोऽस्त्वादिनाथः श्रिये ॥ २॥ विवाह में जो प्रथम वर हुए, कला-शिल्प आदि में जो प्रथम गुरु हुए और जो सर्वप्रथम राजा हुए तथा जो सब से पहले यती (पंचमहाव्रती-साधु) हुए और जो पहला तीर्थेश्वर हुए, दानादि के विषय में जो सब से पहले श्रेष्ठ पात्र हुए और जो सब से पहला जिनेश्वर हुए और जिनकी माता सिद्धाओं में पहली सिद्धा है और जिनका लड़का पहला चक्रवती ( भरत ) है, वे भगवान आदिनाथ श्री (सुख-सम्पत्ति) के लिए हों ॥२॥ इत्थमादौ मंगलाचरणं कृत्वाथ किश्चिद्धममहिमानं दर्शयति यथाइस तरह आरंभ में मंगलाचरण करके अब कुछ धर्म की महिमा को दिखलाते हैं, जैसे :धर्मश्चिन्तामणिः श्रेष्ठो, धर्मः कल्पद्रुमः परः । धर्मः कामदुधा धेनुः, धर्मः सर्बफलप्रदः ॥ ३॥ For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् धर्म चिन्तामणि के समान श्रेष्ठ है, धर्म दूसरा कल्पवृक्ष है, धर्म कामधेनु है, धर्म सब कुछ ( अच्छा) देने वाला है ॥३॥ धर्मतः सकलमंगलावली, धर्मतः सकलसौख्यसम्पदः । धर्मतः स्फुरति निर्मलं यशो, धर्म एव तदहो! विधीयताम् ॥ ४॥ धर्म से सारे मंगलों की श्रेणी होती है, धर्म से सारी सुख-संपत्ति प्राप्त होती है, धर्म से यश निर्मल होकर चमकता है, अतएव हे लोगो ! धर्म ही किया करो॥४॥ धर्माजन्म कुले शरीर–पटुता सौभाग्यमायुर्बलं, धर्मेणैव भवन्ति निर्मलयशोविद्यार्थसंपत्तयः । कान्ताराञ्च महाभयाच्च सततं धर्मः परित्रायते, धर्मः सम्यगुपासितो भवति हि स्वर्गापवर्गप्रदः ॥५॥ उत्तम कुल में जन्म, नीरोग शरीर, सुन्दर भाग्य, अच्छी आयु पूर्ण बल ये सब धर्म से होते हैं, निर्मल यश, विद्या और धन-दौलत धर्म से ही होती है और महा भयकारी बड़ा भारी जंगल से धर्म हमेसा रक्षा करता है, अच्छी तरह उपासना किया हुआ धर्म निश्चय करके स्वर्ग और मोक्ष को देने वाला होता है ।। ५ ।। व्यसनशतगतानां क्ल शरोगातुराणां, मरणभयहतानां दुःखशोकार्दितानाम् । जगति बहुविधानां व्याकुलानां जनानां, शरणमशरणानां नित्यमेको हि धर्मः ॥ ६ ॥ सैकडों व्यसन ( बुरी आदत ) में फंसे हुए, क्लेश और रोग से दुःखी, मरण के भय से डरे हुए, दुःख और शोक से पीड़ित, अनके तरह से व्याकुल ( बेचैन ) जिनके कोई शरण ( आश्रय-सहारा) नहीं है ऐसे लोगों के नित्य धर्म ही एक शरण (सहारा) है ।। ६ ।। धर्मोऽयं धनबल्लभेषु धनदः कामाथिनां कामदः, सौभाग्यार्थिषु तत्प्रदः किमपरं पुत्रार्थिनां पुत्रदः । For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री कामघट कथानकम् www.kobatirth.org राज्यदः राज्यार्थिष्वपि तत्किं यन्न करोति ? धर्म, धन की इच्छावालों को धन देता है, कामी को काम देता है, सौभाग्य के चाहने वालों को सौभाग्य देता है, और क्या ? पुत्र की इच्छा वालों को पुत्र देता है, राज्य के प्रार्थी को भी राज्य देता है। या अधिक कहने से क्या ? इस संसार में वह क्या है जो धर्म नहीं करता ? अर्थात् सब कुछ करता है, स्वर्ग और मोक्ष भी धर्म देता है ॥ ७ ॥ किमथवा नानाविकल्पैर्नृणां, किं च कुरुते स्वर्गापवर्गावपि ॥ ७ ॥ वापीवप्रविहारवर्णवनिता विब्राह्मणवादिवारिविबुधा विद्यावीर विवेकवित्तविनया वस्त्रं अथात्र धर्मबुद्धिशालिनो मतिसागरनाम्नो मंत्रिणः पापबुद्धिधारिणो जितारिनाम्नो राज्ञश्च स्वस्वमन्तव्यधर्माधर्मविचारे विवादो जातः । अतस्तद्विषयकमिदं कामघटकथानकम् - यथाऽस्मिन्नेव दक्षिणभरतक्षेत्रे श्री पुरनामकं नगरमभूत्तत्कथंभूतं सप्तविंशतिवकारेण युतम् । यतः अब यहां धार्मिक बुद्धिवाला मतिसागर नाम के मंत्री का और अधार्मिक (पाप) बुद्धिवाला जितारि नाम के राजा का अपना अपना मंतव्य रूप धर्म-अधर्म के विचार में विवाद खड़ा हो गया, उसी विषय को लेकर यह कामघट कथानक है । इसी भरत क्षेत्र में श्रीपुर नाम का नगर (शहर) हुआ। वह नगर सत्ताइस वकार से युक्त था जैसे : वाम Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वारणवाजिवेसरवराः वनं वेश्या वाचंयमो स्युर्यत्र ३ वाटिका, वणवाहिनी | वल्लिका, For Private And Personal Use Only तत्पत्तनम् ॥ ८ ॥ वापी ( बावड़ी ), वप्र ( किला ), विहार, वर्ण ( ब्राह्मण आदि चार जाति ), वनिता ( स्त्री ), वाग्मी ( वक्ता - स्पीकर ) वन, वाटिका ( वगीचा ), विद्वान्, ब्राह्मण, वादी ( विवाद करने वाला) वारि (जल ) विबुध (देवता), वेश्या, वणिक् ( व्यापारी ), वाहिनी ( सेना ) विद्या, वीर, विवेक, वित्त ( धन-दौलत ),. विनय, घाचंयम ( वाणी पर संयम रखने बाला - साधु-मुनि ), वल्लिका ( लता ), वस्त्र, वारण (हाथी), वाजि ( घोड़ा ), वेसर ( खच्चर ) ये सब के सब जहां वर ( अच्छे ) थे ऐसा वह नगर था ॥ ८ ॥ तत्र जितारिनामा पृथिवीपतिरासीत्परं स नास्तिको जीवाजीवादितत्त्वानि न मन्यते स्मेति सप्त व्यसनादरपरोऽजनि । यथा Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् वहां जितारि नामका राजा था, पर वह नास्तिक होने के कारण, जीव-अजीव आदि तत्वों को नहीं मानता था और सात दुर्व्यसनों का सेवी था, जैसे यू तञ्च मांसश्च सुरा च वेश्या, पापद्धिचौरी परदारसेवा। एतानि सप्त व्यसनानि लोके, घोरातिघोरं नरकं नयन्ति ॥ ६॥ जुआ खेलना, मांस खाना, शराब पीना, वेश्या गमन, पाप का धन, चोरी करना, दूसरे की स्त्री की सेवा ( व्यभिचार ) ये सात व्यसन इस संसार में अत्यन्त कष्ट-प्रद नरक में ले जाते हैं ।। ६॥ पापतः समं भव्यं भवत्येवंविधो बुद्धिमान् स राजा वर्तते, तस्य सम्यक्त्वधारी जीवाजीवादितचविदास्तिको मतिसागराभिधोऽमात्योऽतीवमान्योऽभूत् । कुतो मंत्रिणं विना राज्यमपि नो चलति शोभते च । यतो नीतिशास्त्रऽप्युक्तम् पाप से सब भव्य ( अच्छा ) होता है, इस तरह का बुद्धिमान् (व्यंग से बेवकूफ) वह राजा था और सम्यक्त्व धारी जीव अजीव आदि तत्वों को जानने वाला आस्तिक बुद्धि वाला मतिसागर नाम का उसका मंत्री था जो अत्यन्त मान्य हुआ। क्योंकि-मंत्री के विना राज्य भी नहीं चल सकता और न शोभा पासकता है। नीति शास्त्र में भी कहा है राज्यं निःसचिवं गतप्रहरणं सैन्यं विनेत्रं मुखं, वर्षा निर्जलदा धनी च कृपणो भोज्यं तथाज्यं विना । दुःशीला दयिता सुहृन्निकृतिमान् राजा प्रतापोज्झितः, शिष्यो भक्तिविवर्जितो नहि विना धर्म नरः शस्यते ॥ १०॥ विना मंत्री का राज्य, विना अस्त्र-शस्त्र की सेना, विना आंख का मुख, विना वादल की वर्षा, कंजूस धनी, विना घी का भोजन, व्यभिचारिणी स्त्री, कपटी मित्र, विना प्रताप का राजा, विना भक्ति वाला शिष्य और विना धर्म का मनुष्य नहीं शोभता है ।। १०॥ अथैकदा राजा मंत्रिणं प्रति वदति स्म—राज्यादिकं समस्तं पापेनैव भवति । तदा मंत्र्याह-भो राजन्नेवं मा बहि, पापफलन्तु प्रत्यक्षमस्मिन् लोके दृश्यते यतः इसके वाद एक समय राजाने मंत्री को बोला कि राज्य आदि सब कुछ ( अच्छा ) पाप से ही होता है। तब मंत्री ने कहा-हे राजन् ! ऐसा मत कहो, पाप का फल तो इस लोक में प्रत्यक्ष देखा जाता है। क्योंकि For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् अनाज्यं भोज्यमप्राज्य, विप्रयोगः प्रियैः सह । अप्रियैः संप्रयोगश्च, सर्व पापविजेंभितम् ॥ ११ ॥ थोड़ा भोजन और वह भी विना घी का (रूखा-सूखा ) प्रियजनों के साथ वियोग और अप्रिय (दुष्ट ) जनों के साथ संप्रयोग ( भेंट-मुलाकात, आहार-व्यवहार ) ये सब पाप के फल हैं ॥११॥ कुग्रामवासः कुनरेन्द्रसेवा, कुभोजनं क्रोधमुखी च भार्या । कन्याबहुत्वञ्च दरिद्रभाव, एतान्यधर्मस्य फलानि लोके ॥ १२ ॥ खराब ग्राम में वास, दुष्ट राजा की सेवा, खराब खाना, क्रोध मुंह वाली स्त्री, बहुत कन्या, और दरिद्रता संसार में ये सब पाप के फल हैं ।। १२ ।। खट्वायां मत्कुणा भूमौ, गृहं च बालकावलिः । अन्धनं यवा भक्ष्याः , पापस्येदं फलं मतम् ॥ १३॥ चार पाई (खाट ) में खटमल का होना, भूमि ही घर और बच्चों की अधिकता, आंक की लकड़ी और खाने के लिए जौ, यह पाप का फल है ।। १३ ।। अपिचऔर भी :यद्व रूप्यमनाथता विकलता नीचे कुले जन्मता, दारिद्रयं स्वजनैश्च यः परिभवो मौख्यं परप्रेष्यता । तृष्णालौल्यमनिर्वृतिःकुशयनं कुस्त्री कुभुक्तं रुजा, सर्व पापमहीरुहस्य तदिदं व्यक्तं फलं दृश्यते ॥ १४ ॥ कुरूप होना, अनाथ होना, व्याकुल होना, नीच कुल में जन्म होना, दरिद्रता और स्वजनों के साथ पराभव, मूर्खता, दूसरे को गुलामी, तृष्णा की लोलुपता, बेचैनी खराब शयन, खराब स्त्री, खराब भोजन और रोग ये सब के सब पापरूपी वृक्ष के साफ साफ फल देखे जाते हैं ।। १४ ।। - ..इत्थमेव पापसूचकं भाषायामपि काव्येनोक्तम् इसी तरह पाप का फल हिन्दी भाषा में भी कविता के द्वारा कहा हुआ है For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम पापते जात रसातल मानव पापते अन्ध हुवे नर नारी, __ पापते व्याधि रहे अपरंपर पापते भीख भमंत भिखारो। पापते खान रु पान मिले नही पापते होत है देह खुवारी, 'मूरिदया' तजि पाप पराभव पुण्य करो मन शुद्ध षिचारी ॥ १५ ॥ इत्यादिहेतोर्मन्त्री तु धर्मादेव सर्व भव्यं भवतीति मन्यते । यतःइत्यादि कारण से मंत्री तो धर्म से ही सब अच्छा होता है, यह मानता था। क्योंकियन्नागा मदवारिभिन्नकरटास्तिष्ठन्ति निद्रालसा, द्वारे हेमविभूषिताश्च तुरगा द्वेषन्ति यद्दर्पिताः । वीणावेणुमृदंगशंखपटहैः सुप्तश्च यद् बोध्यते, तत्सर्व सुरलोकदेवसदृशं धर्मस्य विस्फूर्जितम् ॥ १६ ॥ निद्रा से अलसाए हुए और मदजल से भीजे हुए दांत वाले (मतवाले) हाथियों के झुण्ड द्वार पर रहते हैं और वेगयुक्त ( तेजस्वी ) घोड़े सुवर्ण आदि अलङ्कारों से युक्त होकर द्वार पर हिनहिनाते हैं और सितार, बांसुरी, पखावज, शंख और नगाड़ों के द्वारा जो सोया हुआ जगाया जाता है, यह सब स्वर्ग में देवता के समान इस लोक में धर्म का ही फल है ।। १६ ।। पुना सजानं मंत्र्याह-राज्यादि सुखं निखिलं धर्मेणैव प्रजायते । यतःफिर राजा को मन्त्री ने कहा-राज्य आदिक सारा सुख धर्म से ही होता हैं क्योंकि: राज्यं सुसंपदो भोगाः, कुले जन्म सुरूपता । पाण्डित्यमायुरारोग्यं, धर्मस्यैतत्फलं विदुः ॥ १७॥ राज्य, अच्छी सम्पत्ति और उसका भोग, उत्तम कुल में जन्म, सुन्दर रूप, पण्डिताई, आयु और नीरोगपना यह सब धर्म का ही फल है ।। १७ ।। मिलति पुत्रकलत्रसुखप्रदः, प्रियसमागमसौख्यपरंपरा । नृपकुले गुरुता विमलं यशो, भवति धर्मतरोः फलमीदृशम् ॥ १८ ॥ सुख देने वाले पुत्र-स्त्री का मिलना, प्रियजनों का समागम और लगातार सुख का होना, राजकुल में बड़ाई और निर्मल यश यह धर्म रूपी वृक्ष का फल है ।। १८ ।। For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री कामघट कथानकम् अपि च और भी धर्मो जयति नाधर्मो, क्षमा जयति न क्रोधः, www.kobatirth.org जिनो जयति सत्यं जयति Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्म की विजय होती है --अधर्म की नहीं, जिनेश्वर जय पाते हैं-असुर नहीं, क्षमा की जय होती है— क्रोध की नहीं और सत्य जीतता है-झूठ नहीं ॥ १६ ॥ उक्तं चकहा भी है नासुरः । नानृतम् ॥ १६ ॥ इति धर्मादेव भव्यं भवति न तु पापेन, तथापि राजा न मन्यते स्म प्रत्युत कथयति स्म —हे मन्त्रिन् ! मत्सकाशाद्धर्मतत्त्वं श्रूयताम् – परलोकगामी शरीरात्पृथक्कश्चन जीवो नास्ति यः परत्र पुण्या - पुण्यजन्यं सुखदुःखमनुभविष्यति । शरीरमेवात्मा, पृथिव्यादिचतुष्टयमेव महाभूतं, राजा परमेश्वरः, यावानिन्द्रियगोचरः स एव लोको नापरः, धनार्जनोपायो धर्मः, तद्विरुद्धोऽधर्मः, मृत्युरेव मुक्तिः, अस्मिन् लोके सुखातिशयानुभवः स्वर्गः, दुःखातिशयानुभवः नरकः, प्रत्यक्षमेव प्रमाणं, सुरांगेभ्यो यथा मदशक्तिरुत्पद्यते, तथैव चतुभ्य भूतेव्यश्चिच्छक्तिर्जायते, तस्माद्य े जना दृष्टं विहायादृष्टं कल्पयन्ति ते मन्दमतिमन्तो मूढा एव ज्ञातव्याः । इस तरह धर्म से हो अच्छा होता है, न कि पाप से। फिर भी राजा नहीं मानता था और कहता था - हे मन्त्री, मुझसे धर्म का तत्व सुनो, दूसरे लोक में जाने वाला शरीर से अलग कोई जीव ( पदार्थ ) नहीं है, जो परलोक में पुण्य-पाप से उत्पन्न सुख-दुःखको अनुभव करेगा - भोगेगा । शरीर ही आत्मा है, पृथिवी आदि चार ( पृथिवी, जल, अग्नि और वायु ) ही महाभूत है । राजा ही परमात्मा है, जो आंखों के सामने दीखता है वही ( यही ) लोक है - दूसरा नहीं है । किसी भी ढंग से धन कमाने का उपाय धर्म है, धन नहीं कमाने का उपाय (प्रयत्न) अधर्म है | मौत ही मुक्ति है, इसी लोक अत्यन्त सुख का भोग ही स्वर्ग है और अत्यन्त दुःख का भोग नरक है, प्रत्यक्ष ही (एक) प्रमाण है और जैसे शराब में से मदशक्ति (नशा) उत्पन्न होती है, उसी तरह चारों महाभूतों से चेतनशक्ति उत्पन्न होती है, इसलिए जो व्यक्ति प्रत्यक्ष को छोड़ कर अप्रत्यक्ष की कल्पना करते हैं वे मन्द बुद्धि वाले मूर्ख ही हैं ऐसा जानना चाहिए । में For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् पानकं शर्करा यावज्जीवेत्सुखं जीवे-दृणं कृत्वा घृतं पिवेत् । भश्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः ? ॥ २०॥ जबतक जीवित रहे तबतक खुब सुख से जीवित रहे और मृण ( कर्जा ) लेकर घी पीना चाहिए, क्योंकि मृत्यु के बाद जला हुआ शरीर का फिर आना कहां से १॥२०॥ बौद्धमतेऽपि चबौद्ध के मत में भीमृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया, मध्ये भक्तं चापराहणे । दाक्षा खंड चार्द्धरात्र, मोक्षश्चान्ते शाक्यसिंहन दृष्टः ॥ २१ ॥ सुबह कोमल उज्ज्वल सज्जा पर से उठ कर शराब पीना चाहिए, उसकेबाद दोपहर में भात आदि फिर अपराह में (ते पहर में ) जलपान आदि और आधी रात में अंगूर, सक्कर और मिश्री खानी चाहिए फिर मोक्ष होता है, ऐसा शाक्य सिंह (बुद्ध) ने देखा था-अर्थात् जिन्दगी में जो खूब खाता पीता और मौज उड़ाता है उसे अन्त में मोक्ष मिलता है ऐसा बुद्ध का मत ( सिद्धान्त ) है ।। २१ ॥ इति राजवाक्यं निशम्य मंत्री प्रत्युवाच हे महाराज ! नैतद्वक्तुं युज्यते, सर्वप्रमाणसिद्ध आत्मा नापलपयितुं शक्यः। यदि च लोकांतरगामी आत्मा न सिद्ध्येत्तदैव 'यावजीवेत्सुखं जीवेत्' इति भवदुक्तं संगच्छेत । अत आत्मसिद्धिस्तावदाकर्ण्यताम् – 'अहं सुखी अहं दुःखी' इति प्रत्यययोगत आत्मा शरीरादिव्यतिरिक्तः प्रतीयते, शरीरादिसंघातानां जडत्वान्न तादृशप्रतीतिस्तत्र घटते। किंच-'अहं घटं वेद्मि' एतस्मिन् वाक्ये कर्ता कर्म क्रिया चेति त्रितयं प्रतिभासते, तत्र कर्मक्रिये स्वीकृत्य कुतः कर्ता प्रतिषिध्यते ? जडे शरीरे कत त्वमेव न संभवति, भूतचैतन्ययोगात्तत्र चैतन्यमस्तीति चेदसंगतम् । 'मया दृष्टं श्रुतं स्पृष्टं घातं ज्ञातं स्मृतं भुक्तं पीतमास्वादितम्' इत्येककत का भावा भूतचिद्वादे न संगच्छन्ते चेतनबहुत्वप्रसंगात् । गवादीनां वत्सः पूर्व स्वयमेव स्तन्य-पानार्थमुत्तिष्ठति,तदपि जन्मान्तरानुभवं विना न संगच्छते, तेन सिद्धमात्मनो लोकान्तरगमनम् ,लोकान्तरगमनसिद्धया शुभाशुभकर्मबन्धोऽपि सिद्धः। कर्मवैचित्र्यात्स्व For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् भाववैचित्र्यमपि घटते, तस्मात्सुरांगेभ्यो मदशक्तिरिवेति भूतचिद्वादो निराकृतः । न प्रत्यक्षप्रमाणेनैवाप्रत्यक्षा अपि सहस्रशः पदार्था अवगन्तुं शक्यास्तस्मादनुमानमपि प्रमाणे धूमादिलिंगदर्शनेन पर्वतादिगतं ज्वलनादि लिंगिमनुमातुं प्रामाणिकैरभ्युपगम्यत एव । तेनादृष्टानामपि पदार्थानां सिद्धौ सत्यां नाऽयं नास्तिकवादः प्रमाणपदवीमधिरोहतोति, तस्मात्याज्य एव सः। इति मंत्रिणोक्तं निशम्यापि राज्ञा स्वकदाग्रहो न मुक्तस्तेन राज्ञः पापबुद्धिरिति लोके नाम जातं मंत्रिणस्तु धमबुद्धिरिति । ततस्तयोः सर्वदा पुण्यपापविषये विवादो भवति स्म । पुनमंत्री तु तं धर्मात्मानं विधातुं तेन नृपेण सह नित्यमेव विवदते स्म । यतः-- राजा की ऐसी बात को सुन कर मन्त्री ने उत्तर दिया। हे महाराज, आपका ऐसा कहना ठीक नहीं है, सभी प्रमाणों से सिद्ध ( साबित की हुई ) आत्मा को आप झूठी नहीं कह सकते। और यदि दूसरे लोक में जाने वाली आत्मा की सिद्धि नहीं हो तब ही “जब तक जीवे, सुख पूर्वक जीवे" इत्यादि आपका कहना ठीक हो सकता है। इसलिए, तब तक ( पहिले ) आत्मा की सिद्धि सुनिए "मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं" इस निश्चयात्मक ज्ञान से आत्मा शरीर से अलश प्रतीत होता है, क्योंकि शरीर आदि का संघात ( समुदाय ) जड़ है, उसमें इस तरह की प्रतीति (मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं... ) नहीं हो सकती है। और भी-'मैं घड़े को जानता हूं' इस वाक्य में, कर्ता, कर्म और क्रिया ये तीन चीजें दीखती हैं, वहां कर्म (घड़ा) और क्रिया ( जानता हूं) को स्वीकार करके कर्ता को क्यों नहीं मानते है क्योंकि, जड़ शरीर में कर्त्तापन ही नहीं हो सकता, यदि चारों महाभूतों की चेतनता से शरीर में चेतनता है, ऐसा माना जाय तो यह ठीक नहीं। क्योंकि-"मैंने देखा, सुना, स्पर्श किया, सूंघा, जाना, याद किया, खाया, पीया और आस्वाद लिया ( चखा , इस तरह एक कर्ता सम्बन्धी ये अनेक भाव भूतचिद्वाद में घटित नहीं हो सकते, क्योंकि भूतचिद्वाद को स्वीकार करने से अनेक चेतन का प्रसंग ( दोष) हो जाता है। गौ आदि पशुओं का बच्चा (बछड़ा) पहले अपने आप ही (बिना सिखलाये हुए ही ) दूध पीने के लिए उठ-खड़ा होता है, वह भी दूसरे जन्म के अनुभव (ज्ञान ) के बिना नहीं हो सकता है, इससे आत्मा का दूसरे लोक में जाना सिद्ध ( साबित ) होता है और जब आत्मा का दूसरे लोक में जाना सिद्ध होता है तब पाप-पुण्य-कर्म का बन्धन भी सिद्ध होता है। कर्म की विचित्रता से स्वभाव की विचित्रता भी होती है, इस लिए, शराब से मदशक्ति के जैसा इस भूतचिद्वाद का निराकरण (खण्डन ) हो गया। और प्रत्यक्ष प्रमाण से ही सैकड़ों अप्रत्यक्ष पदार्थ भी नहीं जाने जा सकते, इस लिए अनुमान मी प्रमाण (दूसरा प्रमाण ) मानना पड़ेगा। क्योंकि, धूआँ आदि लिंग को देखने से पर्वत आदि में रहा हुआ अग्नि आदि लिंगी का अनुमान प्रमाणिकों ( तर्क शास्त्रियों) द्वारा जाना जाता है, इस लिए अदृष्ट ( बिना देखे हए ) पदार्थों के भी सिद्धि होने पर यह नास्तिकवाद (केवल प्रत्यक्ष ही प्रमाण-प्रमाण ) मानने योग्य नहीं For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम है। इस लिए, वह नास्तिकवाद छोड़ देने ही लायक है। इस तरह मंत्री की बात को सुनकर भी राजा ने अपना बुरा आग्रह नहीं छोड़ा। इसलिए लोक में राजा का नाम पापबुद्धि हुआ और मंत्री का नाम धर्मबुद्धि हुआ। उसके बाद सदा दोनों का पुण्य-पाप के विषय में विवाद होता था और मंत्री तो उस राजा को धर्मात्मा बनाने के लिए नित्य उस राजा के साथ विवाद करता था। क्योंकि-- यात्रार्थ भोजनं येषां, दानार्थं च धनार्जनम् । धर्मार्थ जीवितं येषां, ते नराः स्वर्गगामिनः ॥ २२ ॥ जो लोग शरीर-रक्षा के लिए भोजन करते हैं और दान के लिए धन कमाते हैं एवं धर्म के लिएजीते हैं वे स्वर्ग में जाते हैं ।। २२ ।। अथैकदा हास्ययुक्तवचनेन राज्ञोक्तम्-भो मन्त्रिन् ! त्वं बहुतरं पुण्यं मन्यसे, तर्हि तव स्वल्पैव लक्ष्मीः कथं ? पुनर्मम पापादेव राज्यादिसुखं कथं जातम् ? एतग्निशम्य मन्त्रिणा चिन्तितं खल्वेष जडमतिः, अहह ! यो यस्य शुभाशुभस्वभावः पतितः तं कथमपि नैव मुंचति । यतः फिर एक समय मसकरी करते हुए राजाने कहा, हे मंत्री, जब तुम धर्म को अधिक उत्तम मानते हो तब तेरे पास थोड़ी ही लक्ष्मी (धन-दौलत ) क्यों है और मेरे पाप से ही राज्य आदि का इतना अधिक सुख क्यों हो गया ? यह सुनकर मंत्रीने विचार किया कि यह राजा जड़बुद्धि है, ओह ! जिसका जो अच्छा बुरा स्वभाव हो जाता है वह उस स्वभाव को किसी तरह भी नहीं छोड़ता है। क्यों कि कर्परधल्या रचितस्थलोऽपि, कस्तूरिकाकल्पितमूलभागः । हेमोदकुंभैः परिषिच्यमानः, पूर्वान्गुणान्मुंचति नो पलाण्डुः ॥ २३ ॥ कपूर की धूली ( रज-चूर्ण ) से जमीन ( खेत ) को अच्छी तरह सुवासित (सुगंधमय ) कर दिया जाय और जड़ में कस्तूरी बिछा दिया जाय एवं सुवर्ण के घडों में भरे जल से पटाया-छिड़काया जाय फिर भी प्याज अपने गुणों ( दुर्गन्ध-बदबू ) को नहीं छोड़ता है ॥ २४ ॥ माधुयं चेक्षुखंडे जगति सुरभिता चंपकस्य प्रसूने, शैत्यं श्रीखंडखंडे भ्रमरपरिकरे चातुरी राजहंसे । For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् रागः पूगीफलानाममितगुणवतां नागवल्लीदलानां, सदवृत्त्या चारु शीलं कथमपि कथितं केन कस्योपदेशः ॥२४॥ ईख में मिठास, चम्पा के फूल में उत्कृष्ट सुगन्धि, श्रीखण्ड ( मलय चन्दन ) में शीतलता, भौंरों में पुष्प रस लेने की चतुराई और दलबंदी-एकता, राजहंस में दृध-पानी के अलग अलग करने का विवेक, गुण कारक पान और सुपारी की रंग ( लाल ) और अच्छी वृत्ति से किसी तरह भी सुन्दर शील की रक्षा संसार में यह किसने किसको कहा ? और किसने किसको उपदेश दिया ? अर्थात् उपर्युक्त बातें अपने आप (स्वभाव से ही) हुआ करती हैं ॥२४॥ अपि चऔर भी - शर्करासर्पिषा युक्तः, निम्बबीजः प्रतिष्ठितः । क्षीरघटसहस्रश्च, निंबः कि मधुरायते ? ॥ २५ ॥ नीम के बीज में शक्कर और घी मिला दिया जाय और हजारों दूध भरे घडों से पटाया जाय तो नीम मीठा हो सकता है क्या ? हरगिज नहीं ।। २५ ।। ततो राज्ञोक्तं यद्यहं युद्धवधादिकं पापं करोमि तेन मे हयगजान्तःपुरभाण्डागारादिवृद्धिश्च, पुण्यं कुर्वाणस्यापि ते गृहे मत्सम द्रव्यादिकं नव वर्तते, यत्किमप्यस्ति तदपि समस्तं मयैव समर्पितम् । न च ते पुण्यफलं, अतो धर्मस्य किमपि महात्म्यं नास्ति, मम मते तु पापेनैव भव्यं भवति । यदि त्वं धर्मप्रभावं मन्यसे, तर्हि त्वं धनं विनैकाक्येतादृशे देशान्तरे गत्वा धर्मप्रभावादेव धनमर्जयित्वा त्वरितमागच्छ । यतः इसके बाद राजाने कहा-यदि मैं लड़ाई में बध ( मार-काट आदि) पाप करता हूं तो उससे मेरे घोड़े-हाथी-महल-द्रव्य आदि की वृद्धि है और पुण्य करते हुए भी तेरे घर में मेरे बराबर द्रव्य नहीं है और जो कुछ है भी वह भी सब मेरा ही दिया हुआ है, और तुम्हारे पुण्य का तो फल नहीं है, इस लिए धर्म का कुछ भी माहात्म्य नहीं है, मेरे विचार से तो पाप से ही अच्छा होता है। यदि तुम धर्म के माहात्म्य को मानते हो तो तुम बिना धन के अकेला किसी ऐसे दूसरे देश में जाकर (जहां अपना कोई परिचित न हो) धर्म के प्रभाव से ही धन कमा कर शीघ्र आजाओ। For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम तत्र देशे हि गन्तव्यं, स्वकीयं यत्र नो भवेत् । प्रतोल्यां भ्रमतो नित्यं, वार्ता कोऽपि न पृच्छति ॥ २६ ॥ ___ तुम्हें ऐसे देश में जाना चाहिए, जहां अपना कोई न हो और यहां गलियों में घूमते ( भटकते ) हुए तुम से कोई बात भी न पूछे ।। २६ ।। तदाहं ते धर्मफलं वेधि नान्यथा, ततः साहसिकेन परोपकारिणा मंत्रिणोक्तमेवमस्तु । यतः तब मैं तुम्हारा धर्म-फल जानूं, अन्यथा नहीं। तब साहसी और परोपकारी मंत्री ने कहा-ऐसा हो, क्योंकि साहसी लभते लक्ष्मी, कातरो न कदाचन । श्रुतौ हि कुंडलं भाति, नेत्रे भाति हि कजलम् ॥ २७॥ साहसी ( बहादुर ) लक्ष्मी प्राप्त करता है, कायर कभी नहीं। क्योंकि-कान में कुण्डल शोभता है और आंख में काजल ।। २७ ।। अपि च - और भीउद्यमः साहसं धैर्य, बलं बुद्धिः पराक्रमः । षडेते यस्य विद्यन्ते, तस्माद वोऽपि शंकते ॥ २८ ॥ उद्योग, साहस, धैर्य, बल, बुद्धि और पराक्रम ये छः वस्तुएँ जिसमें विद्यमान हैं, उस से देव भी शंका करते ( डरते ) हैं ॥ २८ ॥ __एवमुक्त्वा मंत्री देशान्तरं चचाल । अथ कियन्मार्ग गच्छन्नेकदा रात्राबटव्यामागतस्य तस्य पुरतः क्षुधाकुलः सन्ननि अबीत्यारटन्नेको निशाचरो मिलितः । तदा मंत्रिणा स्बोत्पातबुद्धया तस्य दृष्टमात्रस्यवोच्चस्वरैः पूत्कारः कृतः। हे मातुल तुभ्यं मे नमस्कृतिरस्तु, एवं मंत्रिणोक्तस्स कथयति स्म-हे सुनर ! स्वेच्छया त्वं मातुलो मातुल इति मां मा अहि, यदि पुनर्वक्षस्येव तथाप्यहं त्वामवश्यमेव भक्षयिष्यामि, यतोऽद्याहं सप्तभिर्दिवसर्बु भुक्षितोऽस्मि । अतः साम्प्रतं धर्माधर्मदयादिविवेकविकलो यथातथा निजोदरं पूरयिष्याम्येव। तदुक्तं च For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् इस तरह कहकर मंत्री दूसरे देश को चला। उसके बाद कुछ दूर मार्ग में जाते हुए उसको रात्रि के समय में जंगल में आए हुए उसके सामने भूख से व्याकुल होकर "खाउंगा-खाउंगा" ऐसा बोलता हुआ एक राक्षस मिला। तब मंत्री ने अपनी आपत्ति ( आफत ) विचार कर उसको देखते ही खूब जोर से पुकारा-मामाजी, आपको मेरा प्रणाम हो। इस तरह मंत्री की बात को सुनकर वह ( राक्षस ) कहता है - हे श्रेष्ठ पुरुष, अपनी इच्छा से तुम मुझे “मामा, मामा" मत कहो। यदि फिर बोलोगे ही तो भी मैं तुमको अवश्य ही खा जाउंगा, क्योंकि, मैं सात दिनों से भूखा हूं। इस लिए अभी धर्म, अधर्म दया आदि के विवेक से व्याकुल-विकल ( शून्य ) जैसा-तैसा अपने पेट को पूरा करूंगा ही। तथा च क्यों कि, कहा हैबुभुक्षितः किं न करोति पापं ?, क्षीणा नरा निष्करुणा भवन्ति । आख्याहि भद्रे ! प्रियदर्शनस्य, न गंगदत्तः पुनरेति कूपम् ॥ २६ ॥ भूखा जीव कौन सा पाप नहीं करता ? अर्थात् भूखा सभी तरह का पाप करता है। निर्बल और निर्धन मनुष्य निर्दयी होते हैं। सो हे भद्र, प्रियदर्शन को कह दो कि-गंगदत्त फिर अब कूप में नहीं आ सकता है ।। २६ ।। तथा चऔर इसी तरहलज्जामुज्झति सेवते च कुजनं दीनं वचो भाषते, कृत्याकृत्यविवेकमाश्रयति नो नो प्रेक्षते खां रतिम् । भंडत्वं विदधाति नर्तनकलाभ्यासं समभ्यस्यति, दुष्पूरोदरपूरणव्यतिकरे किं किं न कुर्याज्जनः ? ॥ ३० ॥ लज्जा को छोड़ देता है, कुजन की सेवा करता है, दीन वचन बोलता है, कार्य और अकार्य का ज्ञान नहीं रखता है, अपने प्रेम (सद्भाव ) को नहीं देखता है, भडुये का काम करता है और नाचना-कूदना आदि का अभ्यास करता है ( यह सब मनुष्य पापी पेट के लिए ही करता है ) सो दुःख से पूरा होने लायक डेर-पूर्ति की बात में प्राणी क्या क्या नहीं करता ? अर्थात् सब कुछ करता है ॥ ३०॥ For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १४ श्री कामघट कथानकम् अतस्त्वां सर्वथा नैव चामि भक्षयिष्यामेव । इत्याकर्ण्य पुनर्मन्त्री कथयति स्म —– - हे माल ! एतावत्प्रसादं कुरु, साम्प्रतं मे महत्कार्यमस्ति तदथमग्रे जिगमिषामि, तत्कृत्वा प्रत्यागच्छन्नहं तव क्षुधोपशमं करिष्यामि, अतो विवेकिन् ! मां मुंच मुंच । पलादः कथयति स्म - हे मानव ! कृष्णशिरसो मायाविनो नरस्य तव को विश्वासः ? ततः कथं मरणायात्रैव त्वं मत्पार्श्वे समागच्छेः । मंत्रिणोक्तम् — यद्यहं नागच्छामि, तहमानि पातकानि मे भवन्तु । तानि यथापरनरसंगं विधाय या स्त्री गर्भशातनं करोति तस्या यत्पातकं तन्मां स्पृशतु, एवमेव व्रतान्यंगीकृत्य पुनस्तद्भञ्जकस्य, यः पितराववगणयति गुरुं चापहनुते तस्य, विश्वासमुत्पाद्य तद्विश्वासघातकस्य धर्मस्थाने पापपरायणस्य बनदाहकस्य, अष्टादशपापस्थानाचरितुः भ्रातृस्वसृमुनीनां घातकस्य, सप्तव्यसन से विनोऽनृतव्यवहारपरायणस्य तथा बालधेनुस्त्रीविप्राणां निहन्तुः, स्वगोत्रस्त्रियं यः सेवते तस्य, षट्पदी लिक्षादिक्षुद्रजन्तूनां हिंसकस्य, धर्मनिषेधकस्य, धर्मी भूत्वा धौत्येंन जगद्वञ्चकस्य, कृतघ्नस्य, अन्येषां प्राणिनां कुमार्गयोजकस्य, गुरुदेवज्ञानद्रव्याणां भक्षकस्य पूजनीय - गुर्वादीनां पराभवकर्त्तुश्चेत्यादीनां यानि जगति महान्ति पातकानि तानि सर्वाणि चेदहं नायामि तर्हि मां स्पृशन्तुं । एवमुक्तरूपां मंत्रिवाचं श्रुत्वा विश्वस्तेन तेनापि तस्य मन्त्रिणः पुण्यप्रभावाद् गमनाज्ञा दत्ता, ततः समासाद्याज्ञां सहर्षोऽग्रे मन्त्री प्रतस्थे । अथ मार्गे गच्छता तेन कस्याञ्चि-: नगरासन्नवनवाटिकायां श्री ऋषभदेवस्वामिप्रासादो दृष्टः । तत्र गत्वातिभावनापूर्विकां विध्युपेतां जिनेश्वरपूजां विधायातिहृष्टस्सन् स्वहृदयोद्भूतसद्भावेन वीतरागगुणवर्णन स्तुतिं पठति स्म । तद्यथा - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस लिए मैं तुमको किसी तरह नहीं छोड़ सकता, खाऊँगा ही । यह सुनकर फिर मंत्री कहने लगा - हे मामा, इतनी दया तो करो, अभी मुझे बड़ा जरूरी काम है, उसके लिए कुछ दूर आगे जा चाहता हूं, उस कार्य को करके लौटता हुआ मैं तुम्हारी भूख अवश्य मिटाऊँगा । इस लिए हे विवेकी, मुझे अभी छोड़ दो छोड़ दो। फिर, मांसाहारी (राक्षस) कहने लगा- हे मानव काले शिर वाले मायावी मनुष्य तुम्हारा विश्वास क्या ? सो तुम मरने के लिए मेरे पास यहीं क्यों आओगे ? मंत्रीने कहा— यदि मैं लौट कर आपके पास नहीं आऊं, तो मुझे ये पाप हों । वे ये हैं, जैसे दूसरे पुरुष संग करके जो स्त्री गर्भ गिराती है, उसको जो पाप लगते हों वे पाप मुके हो। इसीतरह व्रती को व्रत भंग करने से जो पाप होता है, माता-पिता और गुरु का निरादर करने से जो पाप लगता है, विश्वासघाती को जो पाप लगता है, तीथ आदि में पाप करने से जो पाप होता है, वन के जलाने वाले को, अठारह. For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अमोघा अमोघं श्री कामघट कथानकम् पाप स्थान के आचरण करने वाले को, भाई बहन और मुनि के मारने वाले को, सात व्यसनों के सेवने वाले को, मिथ्यावादी को, बालक-स्त्री-गो-ब्राह्मण के मारने वाले को, समान गोत्र के स्त्री के साथ रति करने वाले को, गुरु-देव- ज्ञान के द्रव्य को खाने वाले को, पूज्य गुरु आदि के दुःख देने वाले को जो पाप लगता है, तथा ऐसे ही संसार में जितने बड़े पाप हैं वे सब पाप मुझे लगे जब कि आपके पास लौटकर नहीं आजाऊं । इसतरह मंत्री की बात को सुनकर विश्वास को प्राप्त हुआ उसने भी उसमंत्री के के पुण्य प्रभाव से उसे जाने के लिए आज्ञा देदी । अनन्तर राक्षस की आज्ञा पाकर हर्षित होकर मंत्री आगे चला । अब मार्ग में जाता हुआ उसने किसी शहर के नजदीक ही वगीची में भगवान् ऋषभदेव स्वामी का मन्दिर देखा। वहां जाकर अच्छीतरह भक्ति भावना पूर्वक भगवान् जिनेश्वर की पूजा कर अत्यन्त खुश होकर अपनी हार्दिक सद्भावना के द्वारा भगवान वीतराग देव की स्तुति करने लगा वासरे बिद्यु-दमोघं निशि गर्जितम् । देवदर्शनम् ॥ ३१ ॥ च, रात्रि में मेघ की गर्जना, साधुओं की वाणी और देवता का दर्शन साधुवाक्यं दिन में बिजली का चमकना, ये कभी निष्फल नहीं होते ॥ ३१ ॥ अपि च www.kobatirth.org और भी धन्यानां ते नरा धन्या मनोहारि, निर्विकार मोघं वस्त्रैर्वस्त्र विभूतयः पुष्पैः पूज्यपदं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनेन्द्रमुखाम्बुजम् । दिवसोदये ॥ ३२ ॥ पश्यन्ति वे मनुष्य धन्य लोगों में भी धन्य हैं- धन्यवाद के पात्र हैं जो प्रातः काल में निर्मल और मनोहर जिनेश्वर के मुख- कमल को देखते हैं ।। ३२ ।। पुनर्ये नरा शास्त्रोक्तद्रव्यभावपूजाविधिना जिनेन्द्रपूजां कुर्वन्ति तेषामीदृशं फलं भवति । तथाहि और जो लोग शास्त्रोक्त रीति से द्रव्य-भाव- पूजा की विधि से जिनेश्वर की पूजा करते हैं, उन्हें ऐसा फल होता है, जैसे १५ शुचितरालंकारतोऽलंकृतिः, सुगन्धितनुता गंधेजिने पूजिते । For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra दीपैर्ज्ञानमनावृतं सन्त्येतानि किमद्भुतं www.kobatirth.org निरुपमा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भोगद्धिरत्नादिभिः, श्री कामघट कथानकम् शिवपदप्राप्तिस्ततो देहिनाम् ॥ ३३ ॥ भगवान् जिनेश्वर को वस्त्रों से पूजा करने से वस्त्र की संपत्ति बढ़ती है, अलंकार से पूजा करने से अनेक तरह के अलङ्कार प्राप्त होते हैं, फूलों से पूजा करने से बड़ा पद प्राप्त होता है, गंधों (सुगंधों ) से पूजा करने से अच्छी गंध की वृद्धि होती है, दीप से पूजा करने से स्पष्ट ज्ञान प्राप्त होता है, रत्न आदि से पूजा करने से अत्यन्त भोग सुख की वृद्धि होती है. इतने हुए तो आश्चर्य क्या ? से संसारिक सभी सुख के मिलने के बाद अन्त में मुक्ति भी मिलती है ।। ३३ ।। भगवान् की पूजा करने न यान्ति दास्यं न दरिद्रभावं न प्रेष्यतां नैव च हीनयोनिम् । न चापि वैकल्यमथेन्द्रियाणां ये कारयन्त्यत्र जिनेन्द्रपूजाम् ॥ ३४ ॥ त्वं दुःखदावाग्नि- तप्तानामिह मेक- दीपरत्वमेव जो प्राणी भगवान् जिनेश्वर की पूजा करवाते हैं, उन्हें नौकरी नहीं करनी पड़ती, वे दरिद्र नहीं होते, सेवक नहीं होते और न नीच योनि में पैदा होते, और उन्हें इन्द्रियों की चिकलता भी नहीं होती ॥ ३४ ॥ देव ! मोहान्धकार-मूढाना हे भगवान्, जिनेश्वर, दुःख रूपी वन की अग्नि से जले हुए लोगों के लिए तुम सजल मेघ के समान हो और मोह रूपी अन्धकारों से विमूढ़ लोगों के लिए तुम ही एक (ज्ञान रूपी ) दीप हो ।। ३५ ।। वारिदः । हि ॥ ३५ ॥ आयुष्यं यदि सागरोपममितं पाण्डित्यं च समस्तवस्तुविषयं जिह्वा कोटिमिता च पाटवयुता स्यान्मे धरित्रीतले, नो शक्नोमि तथापि वर्णितुमलं व्याधिव्यथावर्जितं, प्रावीण्यलव्धास्पदम् । For Private And Personal Use Only तीर्थेश पूजाफलम् ॥ ३६ ॥ यदि मेरी आयु शारीरिक और मानसिक रोगों से रहित एक सागरोपम वर्ष प्रमाण हो और सपा के ज्ञान की निपुणता को प्राप्त करने वाली पण्डिताई मुझ में हो जाय, और इस भूतल पर वाकू Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् पटुता वाली कराडों जिह्वाएँ मुझे हो जाएं, तो भी तीर्थेश्वर की पूजा का फल वर्णन करने के लिए मैं समर्थ नहीं हो सकता हूं ॥ ३६॥ मिथ्याम्बु-लहरी-धूतं, निमज्जन्तं भवार्णवे । कुग्राह-ग्रसितं नाथ !, मामुत्तारय तारय ॥ ३७॥ हे भगवान् , मिथ्यात्वरूपी जल तरंग से कम्पित, संसार रूपी समुद्र में डूबते हुए और दुष्टग्राह से प्रसित मुझे पार करो, पार करो ॥ ३७॥ जन्म - मृत्यु - जरा - रोग - शोक - सन्ताप - वैरिणः । पृष्ठतो धावतो देव !, मयि वारय वारय ॥ ३८ ॥ हे देव, मेरे पीछे दौड़ते हुए-जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, रोग, शोक और संताप रूपी मेरे शत्रुओं को आप रोक दो, रोक दो ॥३८॥ ऊध्वं त्रैभुवनं चतुर्गतिभवं हन्तुं कषायादिकान्, विच्छेत्तुं विकथां चतर्विधसुरप्रीतिं च कर्तुं तथा । वक्तुं धर्मचतुष्टयं रचयितुं संघं चतुर्धा ध्रुवं, व्याख्यानावसरे चतुर्विधकृताऽऽवक्त्रो जिनः पातु वः ॥ ३६ ॥ चार प्रकार की गतियों से उत्पन्न तीनों लोकों से परे कषाय आदि को मारने के लिए, बुरी बातों को नाश करने के लिए, और चार प्रकार के देवों की प्रीति करने के लिए, चार प्रकार के धर्म को उपदेश देने के लिए तथा चार प्रकार के संघ को निर्माण करने के लिए व्याख्यान के समय में जिनके चार प्रकार के मुंह हो गए अर्थात् उपयुक्त बातें जिन भगवान् के व्याख्यान के 'समय चारों ओर से सुनाई देने लगी वे भगवान् जिनेश्वर तुम्हारी रक्षा करें ।। ३६ ।। अपि चऔर भीचिन्तामणिं न गणयामि न कल्पयामि, कल्पद्रुमं . . मनसि. कामगवीं .. न .. वीक्षे । For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १८ www.kobatirth.org ध्यायामि माद्य नो जिनेश्वरमहर्निशमेव सेवे ॥ ४० ॥ मैं चिन्तामणि को नहीं चाहता, कल्पवृक्ष की चाहना भी नहीं है और न कामधेनु को ही देखना चाहता हूं न धन-दौलत का ही ध्यान है, किन्तु एक यह कि – अमूल्य गुणों से युक्त भगवान आदि जिनेश्वर को ही दिन-रात सेवा करूं ॥ ४० ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " श्री कामघट कथानकम् निधिमनर्घ्यगुणातिरेक इत्यादिस्तुत्या प्रमुदितः प्रतिमारक्षः कपर्दियक्षः प्रत्यक्षो बभूव । तेन जिनभक्तिस्तुतिसन्तुष्टेन बहिर्गत्वा मंत्रिणे कामघटः समर्पितः । तदा मन्त्रिणोक्तम् – भो यक्षेन्द्र ! अहमेनं घटं कथं गृह्णामि कुत्र वा स्थापयामि ? अनेन समीपस्थेन पुरुषस्य लज्जा स्यात् । ततो देवेनोतमनुत्पाटित एवादृष्टस्सन्नयं घटस्तव पृष्ठे समागमिष्यति, पुनस्तेऽयं मनोवाञ्छितार्थं पूरयिष्यति । एतन्मन्त्रणापि स्वीकृतं, ततः स मन्त्री कृतकृत्यस्सन् कामकुम्भं लात्वा स्वनगरं प्रति चलितो मार्गे विचारयति स्म – ममेदं धर्मस्य महात्म्यं धर्मेण विना नरोऽपि न शोभते, यथेष्टं च कार्य - किमपि न स्यात् । यतः - इत्यादि स्तुति से प्रसन्न होकर प्रमिता का रक्षक महादेव का यक्ष प्रत्यक्ष ( सामने ) हुआ । और उस यक्षने भगवान् की भक्ति भरी स्तुति से खुश होकर बाहर जाकर मंत्री को 'कामघट' दिया । तब मंत्री ने कहा- हे यक्षराज, मैं इस कामघट को किसतरह ग्रहण करूं या कहां स्थापन करूं ? क्योंकि इसके पास में रहने से पुरुष को लज्जा होगी । तब यक्षने बोला कि - बिना उठाए हुए ही यह अदृश्य होकर तुम्हारे पीछे जायगा और यह तुम्हारा सारा मनोरथ पूरा कर देगा। यह मंत्रीने भी स्वीकार कर लिया । अनन्तर वह मंत्री कृतकृत्य ( कार्य में सफल ) होकर कामघट को लेकर अपने नगर की ओर चला और रास्ता में विचारने लगा- - मुझे यह धर्म का ही माहात्म्य है, धर्म के बिना मनुष्य शोभा नहीं पाता, और उसकी इच्छाएँ कुछ भी पूरी नहीं हो पाती है ; क्योंकि For Private And Personal Use Only निर्दन्तः करटी हयो गतजबचन्द्रं विना शर्वरी, निर्गन्धं कुसुमं सरो गत जलं छायाविहीनस्तरुः । भोज्यं निर्लवणं सुतो गतगुणश्चारित्रहीनो यतिः, निर्द्रव्यं भवनं न राजति तथा धर्मं विना मानवः ॥ ४१ ॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् १६ बिना दांत का हाथी, बिना बेग (चाल) का घोड़ा, विना चन्द्रमा की रात्रि, बिना सुगन्ध का फूल, बिना जल का सरोवर, बिना छाया का वृक्ष, बिना नमक का भोजन ( व्यंजन ), बिना गुण का लड़का, (पुत्र) बिना चारित्र का यती (साधु-विरागी), बिना द्रव्य का महल जैसे नहीं शोभता है उसी तरह बिना धर्म का मनुष्य भी नहीं शोभता है ।। ४१ ।। पुनर्यत्र धर्मी नरो गच्छति तत्र सर्वत्र वृक्षो लताभिरिव समृद्धिबल्लिीभिर्वेष्टयते । यतः फिर जहां धर्मात्मा आदमी जाते हैं वहां उनके पास सम्पत्ति इसतरह स्वयं आजाती है जैसे किसी वृक्ष पर लता स्वयं चारों ओर से घेर कर चढ जाती है। पंसां शिरोमणीयन्ते, धर्मार्जनपरा नराः । आश्रीयन्ते च संपद्भि-लताभिरिव पादपाः ॥ ४२ ॥ ओ व्यक्ति धर्म करते हैं वे पुरुषों में शिरोमणि के समान हो जाते हैं और जैसे वृक्षों को लताएं चारो तरफ से घेर लेती हैं उसी तरह उस धर्मात्मा को सम्पत्ति भी चारो तरफ से लिपट लेती है ।। ४२ ।। अथाग्रे चलन्मंत्री तस्यामेवाटव्यां समागतः । गच्छन्मनसि चिन्तयति स्म---अहो ! सैवाटवी समागता, सोऽथ पलादो मां मिलिष्यति मत्प्रतिज्ञानुकूलं च मां भक्षयिष्यति कोऽत्र मे शरणं ? पूर्वपुण्यं विना। यतः अनन्तर आगे चलता हुआ वह मंत्री उसी जंगल में आगया ( जहां आते समय राक्षस से सुलाकात हुई थी ) और जाता हुआ मन में विचार करने लगा-अरे यह तो वहीं जंगल आगया. अब यहां वह राक्षस मुझे मिलेगा और मेरी प्रतिज्ञा ( वादा ) के अनुसार मुझे खायगा, सो पूर्वपुण्य के बिना यहां मेरा रक्षक अन्य कौन होगा ? क्योंकि वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये, महार्णवे पर्वतमस्तके वा । सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा, रक्षन्ति पुण्यानि पुरा कृतानि ॥ ४३ ॥ बन में, संग्राम में, शत्रु-जल और अग्नि के बीच में, महासमुद्र के बीच में और पहाड़ के ऊपर सोये हुए, मतवाले दुःखित प्राणी को पूर्वकृत पुण्य ही रक्षा करते हैं ॥ ४३ ॥ ___इतश्चान पलादोऽपि मिलितः, तदेव तेनोक्तम्---हे पुरुषोत्तम ! स्वोक्तवचनमथ पालय । यतः For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २० श्री कामघट कथानकम __ और इधर आगे ( सामने में ) राक्षस भी मिला, उसी समय उसने कहा-हे नरश्रेष्ठ, अपनी बात को पालन (पूरा) करो। क्योंकि संसारस्य त्वसारस्य, वाचा सारा हि देहिनाम् । वाचा विचलिता यस्य, सुकृतं तेन हारितम् ॥ ४४ ॥ इस असार संसार में प्राणियों की वाणी ही सार है, जिसने अपनी वाणी से विचलित ( अलग) हुआ उसने अपना पुण्य गमा डाला ।। ४४ ॥ मन्त्रिणोक्तं यथाऽस्तु पालयिष्यामि परं किमनेन मेऽशुचिशरीरेण भक्षितेन ? । यतःमंत्रीने कहा, ऐसा ही हो मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी करूंगा। लेकिन, इस अपवित्र मेरे शरीर के खाने से तुझे क्या लाभ ? क्योंकि रसाऽमृग्मांसमेदोऽस्थि - मज्जाशुक्राणि धातवः । सप्तैव दश वैकेषां,रोमत्वकस्नायुभिः सह ॥ ४५ ॥ अमेध्यपूर्णे कृमिजालसंकुले, स्वभावदुर्गन्ध अशौचनिहवे । कलेवरे मूत्रपुरीषभाजने, रमन्ति मूढा विरमन्ति पण्डिताः ॥ ४६॥ अजिनपटलगूढं पिंजरं कीकसानां, यमवदननिषण्णं रोगभोगीन्द्रगेहम् । कुणपकुणपिगन्धैः पूरितं बाढगाढं, कथमिव मनुजानां प्रीतये स्वाच्छरीरम् ? ॥ ४७॥ रस, रक्त, मांस, मेद (चर्वी ) अस्थि ( हड्डी ), मज्जा और शुक्र (वीर्य ) इन सात धातुओं से अथवा किन्ही के मत से रोम (रोगंटे) त्वचा (चामड़ी) और स्नायु (नसें ) इन तीनों से युक्त दश धातुओं से बने हुए, अपवित्रता से भरे हुए कीड़ों के समुदाय से युक्त स्वभाव से ही दुर्गन्धि वाले अपवित्रता जिसमें छिपी है ऐसे मूत्र-पुरीष (पेशाब-पाखाना) के घर इस शरीर में मूढ़-मूर्ख लोग रमण (प्रेम) करते हैं और पण्डित (बुद्धिमान् ) लोग रमण नहीं करते हैं। हड्डियों के ढांचा का पिंजरा चर्म के समूह से गूढ़ ( ढंका हुआ) है। यमराज के मुंह में रहा हुआ, रोग रूपी सर्पराज का घर, यूं और खटमल के जैसी गंधों से पूर्ण यह शरीर किस तरह किसी की प्रीति (राग) के लिए हो सकता है अर्थात् यह नश्वर अपवित्र दुर्गन्धयुक्त शरीर किसी भी बुद्धिमान के प्रीति के योग्य नहीं है ।। ४५ ॥ ४६ ।। ४७ ।। For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कामघट. कथानकम www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुनरमात्येनोक्तम् — हे पलाद ! मच्छरीरभक्षणेन तव कार्य सरसरसवत्या वा १ तेनोक्तम् तर्हि - सरसां रसवतीं देहि, तदा तेन मन्त्रिणा कामघटप्रभावेण यथेष्टामत्यपूर्वी रसवतीं तस्मै दत्त्वा दिव्याहारो भोजितः । ततः सन्तुष्टेन फलादेनोक्तम् -- एवंविधा रसवती त्वया कुतो दत्ता ? तदा धर्मिणाऽसत्यपापभीरुणा मन्त्रिणा सत्यमेवोक्तं कामघटप्रभावेणेति । यतः सत्यवाचि विभवः पदे पदे, सत्यवाचि सुयशः पदे पदे, फिर मंत्रीने कहा- हे राक्षस, मेरे शरीर को भक्षण करने से तुम्हें काम है या रसदार रसोई से। राक्षसने कहा - तो रसदार रसोई मुझे दो, तब उस मंत्रीने कामघट के प्रभाव से उसकी इच्छा के अनुसार अपूर्व रसोई उसे देकर अच्छी तरह भोजन कराया । तब खुश होकर राक्षसने कहा- तुमने ऐसी रसोई मुझे कहां से ( लाकर ) दी ? तब असत्य और पाप से डरने वाला धर्मी मंत्रीने सच्चा सच्चा कहा कि कामघट के प्रभाव से । क्योंकि— २१ । सत्यवाचि सुहृदः पदे पदे सत्यवाचि सुखमेव सर्वतः ॥ ४८ ॥ सच बोलने वालों के पद पद में ऐश्वर्य होता है, सच बोलने वालों के पद पद में मित्र होते रहते हैं, सत्य बोलने वालों के पद पद में यश-कीर्त्ति होती रहती है और सत्य बोलने में सभी तरह सुख ही होता है ॥ ४८ ॥ ततो राक्षसेन कामघटो याचितस्तदा मन्त्रिणोक्तम् — एवंविधं कामघटमहं कथं तत्रार्थयामि ? तेनोक्तम् – यदि त्वमर्पयिष्यसि तदाऽहमतः परं हिंसां न करिष्यामि तव च महत्पुण्यं भविष्यति । अहमपि तत्प्रतिफले सकलकार्यकरं रिपुशस्त्रनिवारकं देवताधिष्ठितं सर्वोत्तमं दन्डमर्पयिष्यामि, अतस्त्वं मे कामघटं समर्पय । मन्त्रिणोक्तमहं समर्पयामि, तथापि तवाधर्मेण सर्वथा न स्थास्यति । यतः -- For Private And Personal Use Only फिर राक्षसने कामघट मांगा। तब मंत्रीने कहा — इसतरह का कामघट मैं तुम्हे कैसे दूं ? उस राक्षसने कहा - यदि तुम मुझे कामघट दोगे तो मैं अब यहां से आगे हिंसा नहीं करूंगा और तुमको बड़ा पुण्य होगा । मैं भी इसके बदले में सब कार्य करने वाला, शत्रु के शस्त्र को निवारण करने ( रोकने) वाला देवता से अधिष्ठित सर्वश्रेष्ठ दण्ड ( डंडा-लाठी ) दूंगा । इसलिए, तुम मुझे कामघट दो । मंत्रीने कहा मैं देता हूँ — मगर तुम्हारे अधर्म (पाप) से वह कामघट तुम्हारे पास किसी तरह भी नहीं रहेगा । क्योंकि -- Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथाननाम चिन्तामणिः कामकुम्भः, सुरभिः सुरपादपः । कनकं रजतं तिष्ठेत्, नैव पापिनिकेतने ॥ ४६॥ चिन्तामणि, कामघट, कामधेनु, कल्पवृक्ष, सोना और चांदी पापीके घरमें कभी नहीं रहते ॥ ४६ ।। तदा निशाचरेणोक्तम्--अहं सम्यक् प्रयत्नेनैनं स्थापयिष्यामि, इत्युक्ते मन्त्रिणा दंडप्रभावं स्वोपयोगिनं ज्ञात्वा पुनश्चिन्तितं स्त्रमनसि-- यद्यहमस्य प्रार्थनाभंग विधास्य तर्हि मे सर्वतो नीचपदत्वमापत्स्यते। यतः __ तब राक्षने कहा-मैं अच्छीतरह यत्नपूर्वक इस ( कामघट ) को रखेगा। इसतरह राक्षस के कहने पर मंत्रीने दण्ड के माहात्म्य को अपने लिए उपयोगी जानकर फिर मनमें विचार किया यदि मैं इसका प्रार्थना भंग करता हूँ तो मैं सभी तरह नीच पद को प्राप्त हो जाउंगा। क्योंकि - तण लहुयं तुस लहुयं, तणतुसमझ वि पत्थणालयं । ताहं चिय कुण लयं, पत्थणभंगो कओ जेण ॥ ५० ॥ ( संस्कृत छाया) तृणं लघुकं तुषो लघुकः तृणतुषमध्येऽपि प्रार्थना लध्वी । तस्माच्चैव को लधुः प्रार्थना-भंगः कृतो येन ॥ ५० ॥ तृण (तिन का) लघु (क्षुद्र-छोटा ) है, तुष (भूसा-अन्न के ऊपर का छिलका) क्षुद्र है और तृणतथा तुस से भी प्रार्थना छोटी है-क्षुद्र है। और उससे भी लघु कौन है जिसने प्रार्थना का भंग किया ? अर्थात् किसी की प्रार्थना (मांगना-भिक्षा) का भंग करना सब से अधिक क्षुद्रता है-नीचता है या हलकापन है या अत्यन्त लघुता है, कहा भी है "रहिमन वे नर मरचुके जे कछु मांगन जांहि । उनते पहले वे मुए जिन मुख निकसत नाहि" ॥ ५० ॥ इति विचिन्त्य स तं घटं तस्मै समर्पयित्वा तद्दत्त दंडं गृहीत्वा चाय चचाल । अथ तस्य मन्त्रिणो गच्छतो द्वितीयदिवसे बुभुक्षा लग्ना, तदा तेन दंडो लपितः हे दंड ! त्वं मे भोजनं दास्यसि नवा ? तेनोक्तम्-भोजनदाने मे सामर्थ्यं नास्ति । अथैवं क्षुत्पीडायामाहारनिषेधवार्ता For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम श्रुत्वान्नचिन्तातुरो मंत्री तमुवाच-एवं मा वद सर्वोदन्तक्षयकरी क्षुधा लग्नास्ति, यत्कथितं पूर्व बृद्धःस्तद्यथा- .... यह विचार कर मंत्री उस कामघटको राक्षसको देकर और राक्षस से दिया हुआ दण्ड लेकर आगे चला। अब जाते हुए उस मंत्री को दूसरे दिन भूख लगी, तब उसने दण्ड, से कहा-हे दण्ड, तुम मुझे खाना दोगे या नहीं ? दण्डने कहा भोजन देने की मेरी शक्ति नहीं है। अब इसतरह भूख की पीड़ा में भोजन न देने की बात को सुनकर अन्न की चिन्ता से दुःखी मन्त्रीने दण्ड को कहा-ऐसा मत बोलो, क्योंकि मुझे सभी बात को बिगाड़ने वाली भूख लगी। जिसको पूर्व बृद्धोंने कहा है। जैसे आदौ रूपविनाशिनी कृशकरी कामाग्निविध्वंसिनी, प्रज्ञामंदकरी तपःक्षयकरी धर्मस्य निर्मूलनी । पुत्रभ्रातृकलत्रभेदनकरी लज्जा . कुलच्छेदिनी, सा मां पीडति सर्वदोषजननी प्राणापहारी क्षुधा ॥५१॥ भूख होने पर ( अन्न न मिलने से ) पहले प्राणी का चेहरा फीका पड़ जाता, शरीर दुबला-पतला हो जाता, कामाग्नि नष्ट हो जाती, बुद्धि कम हो जाती, तपस्या का क्षय हो जाता, धर्म जड़ से उखड़ जाता, पुत्र, भाई, स्त्री से मन-मुटाब हो जाता, वही भूख मुझे सता रही है जो सभी दोषों की माता है और प्राणों को हरने वाली है।।२१॥ मानं मुञ्चति गौरवं परिहरत्यायाति दीनात्मतां, लज्जासुत्सृजति श्रयत्यदयतां नीचत्वमालम्बते । भार्याबन्धुसुहृत्सुतेष्वसुकृती नानाविधं चेष्टते, किं किं यन्न करोति निन्दितमपि प्राणी क्षुधापीडितः ॥ ५२ ॥ भूख से तड़पता हुआ प्राणी, मान-मर्यादा और गौरव को छोड़ देता है, दीन हो जाता है, लज्जा छोड़कर निर्दयता को पकड़ता है और नीचवृत्ति (निंदनीय कर्म) को धारण करता है, स्त्री, भाई, मित्र और पुत्रों में अनेक तरह अधर्म (निंद्य-पाप ) कर बैठता, अधिक क्या ? वे कौन ऐसे निदित कार्य हैं जो भूख से तड़पते प्राणी नहीं करते अर्थात् भूख से छटपटाते हुए व्याकुल प्राणी सभो तरह के पाप करते देखे जाते हैं ।। ५२ ॥ For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ श्री कामघट कथानकम किं किंन कयं को न पुच्छिओ, कह कह न नामिअं सीसं । दुब्भरउअरस्स कए किं न कयं किं न कायब्बं ॥ ५३ ॥ (संस्कृत छाया ) किं किं न कृतं को न पृच्छितः, कुह कुह न नामितं शीर्षम् । दुर्भरोदरस्य कृते, किं न कृतं किं न कर्त्तव्यम् ।। ५३ ॥ इस पापी पेट को पूरा करने के लिए क्या क्या नहीं किया ? किसको नहीं पूछा ? कहां कहां मस्तक नहीं नवाया ? और क्या नहीं किया ? और क्या नहीं करूंगा ? अर्थात् सब कुछ किया और करना भी पड़ेगा-केवल इस पापी पेट के लिए ही -आचार्य शंकरने भी लिखा है --- "उदर-निमित्त बहु-कृत-वेषः" ।। ५३ ॥ प्रहरे दिवसे जाते, क्षुधा संबाधते तनुम् । धैर्यकार्यविनाशः स्या-त्वां विना म्रियतेऽशन ! ॥ ५४॥ हे भोजन देव, एक पहर दिन उठते ही भूख मेरे शरीर को बहुत तकलीफ देती है और तेरे बिना धैर्य और कार्य तो नष्ट होते ही हैं पर प्राणी भी मर जाता है। कहा भी है भूखे भजन न होंहि गोपाला । लो यह अपनी कंठी माला ॥ ५४॥ अपि च-- और भीजीवंति खम्गछिन्ना, अहिमुहपडिया वि केवि जीवंति । जीवंति जलहिपडिआ क्षुहाछिन्ना न जीवंति ॥ ५५ ॥ तलवार से काटे गए प्राणी प्रायः जी सकते हैं, सर्प के मुंह में पड़े हुए भी कोई जीते हैं और कोई समुद्र में गिरे हुए प्राणी प्रायः जो जाते हैं मगर भूख रूपी महा शस्त्र से काटे हुए प्राणी कभी जिंदे नहीं रह सकते ।। ५५ ।। मन्त्रिवाक्यमेवं निशम्य दंडोऽवदत्-अन्यत्किमपि कार्य कथय तदहं करिष्यामि, तर्हि कामघटमानयेति मन्त्रिणोक्ते समानयामीत्युक्त्वाऽऽकाशमार्गेण दंडश्चचाल, गतस्तत्र यत्र राक्षसः । For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम तं कुट्टयित्वा द्वारं भक्त्वा कामघटं च गृहीत्वा स मन्त्रिसमीपे समागतः । मन्त्रिणाथ स कामघट आभाषितस्त्वं तत्र किं समाधिना स्थितः ? घटेनोक्तं क्व मे समाधिः ? कुतस्त्वं मां तस्मै अधर्मिणेऽदाः ? तेन नाममात्रमपि मे सुखं कथं भवेत् ? मम तु धर्मवतामेव समीपे समाधिर्नान्यत्र । लोकेऽपि सदृशेषु सदृशा एव समानन्दन्ति । यतः-- इस तरह मंत्री की बात सुनकर दण्ड बोला-और कोई दूसरा काम कहो तो वह मैं करूंगा। तब मंत्रीने कहा कि कामघट ले आओ, ऐसा मंत्री के कहने पर दण्डने कहा कि अभी लाता हूं, ऐसा कहकर आकाश के मार्ग से चला-और वहां गया जहां राक्षस था। वहां उस राक्षस को खूब मार पीट कर उसके द्वार को तोड़ ताड़ कर और कामघट को लेकर मंत्री के पास चला आया। तब मंत्रीने उस कामघट -तुम राक्षस के यहां समाधि (स्थिर-चित्त-अचल चित्त ) से ठहरा था क्या ? कामघटने कहा कि मेरी समाधि वहां कहां? तुमने उस अधर्मी को क्यों दिया? उससे कुछ भी सुख मुझो कैसे हो ? मेरी समाधि (चित्त-स्थिरता ) तो धर्मी लोगों के ही पास होती है दूसरी जगह नहीं। लोक में भी समान गुण-धर्म वालों मे समान गुण-धर्म वाले आनन्द अनुभव करते हैं। क्योंकि हंसा रच्चंति सरे, भमरा रच्चंति केतकीकुसुमे । चंदणवणे भयंगा, सरिसा सरिसेहिं रच्चंति ॥ ५६ ॥ (संस्कृत छाया) हंसा रज्यंते सरसि भ्रमरा रज्यंते केतकी कुसुमे । चन्दन-बने भुजंगाः सदृशाः सदृशे रज्यन्ते ।। हंस सरोवर में प्रीति करता है, भौंरे केतकी के फूलों में राग करता है, सर्प चंदन के वन में आनन्द मानता है और समान गुण धर्म वाले समान गुण धर्मवालों में प्रेम करते हैं ।। ५६ ।। । अतस्तत्पापिपावें लेशमात्रमपि समाधिर्मे नो जातः । ततस्तेनातिक्षुधाकुलाय मंत्रिणे मनोऽभोप्सितं भोजनं दत्तं ततस्ते द्वे वस्तुनी लात्वा सचिवोऽग्रे चचाल । अथाऽस्मिन्नवसरे पूर्वदेशीय एकः श्रेष्ठियों महालाभमधिगम्य लक्षसंख्यामितं जनसंघ संमील्य शत्रुञ्जयादिपंचतीर्थयात्राकरणाय तेन संघेन साकं निस्ससार । स संघलोको मार्गग्रामस्थतीर्थानि समभिवन्दमांनोऽनुक्रमेण शत्रुञ्जयं समागात् । तत्र ऋषभजिनस्य गिरनारे नेमजिनस्य चाष्टाह्निकमहोत्सवेन For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम २६ पूजाभक्तिभिः सधर्मिवात्सल्यैर्मुनिभ्यो बहुतरैर्दानसम्मानश्च सम्यग् जैनशासनोन्नतिं विधाय स्वजन्मसाफल्यं मन्यमानः शास्त्रवर्णिततीर्थयात्राफलभावनां भावयमानस्तीर्थ तुष्टाव । ___इस लिए उस पापी के पास थोड़ी भी मुझे समाधि (सुख चैन ) नहीं हुई। फिर कामघटने भूख से पीड़ित मंत्री को इच्छित भोजन दिया, बाद में दोनों चीजों को लेकर मंत्री आगे चला। अब इसी बीच में पूरब देश का एक बड़ा सेठ अधिक मुनाफा प्राप्तकर एक लाख मनुष्यों का एक संघ निकाल कर शत्रुजय आदि पंचतीर्थों की यात्रा के लिए उसी संघ के साथ निकला। वे संघ के लोग रास्ते में मिले हुए ग्राम-तीर्थों की बंदना करते हुए शत्रुजय में आए। वहां भगवान् ऋषभ जिनेश्वर के गिरनार में और नेमि भगवान के अष्टाह्निक महोत्सव के साथ पूजा-भक्ति के द्वारा और सामीवच्छलों से मुनिवरों को अनेक तरह के दान और सम्मान से अच्छी तरह जिन शासन की उन्नति करके अपने जन्म को सफल मानते हुए शास्त्रों में कहे हुए तीर्थयात्रा के फलों की भावना को विचारते हुए तीर्थ की स्तुति करने लगे। यतःक्योंकिआरम्भाणां निवृत्तिविणसफलता संघवात्सल्यमुच्चैनैमल्यं दर्शनस्य प्रणयिजनहितं जीर्णचैत्यादिकृत्यम् । तीर्थोन्नत्यं नितान्तं जिनवचनकृतिस्तीर्थसत्कर्मकृत्यं, सिद्धेरासन्नभावः सुरनरपदवी तीर्थयात्राफलानि ॥ ५७ ॥ तीर्थों की यात्रा करने से आरंभ ( कर्मों ) की निवृत्ति होती है, द्रव्य मिलता है, संघ में सद्भाव होता है, दर्शन की निर्मलता होती है, प्रेमी जनों के हितकारी होता है, जीर्ण चैत्य का पुनरुद्धार होता हैं, तीर्थों की अत्यधिक उन्नति होती है जिनेश्वर के बचन पाले जाते हैं, तीर्थों में सत्कार्य का काम होता है, सिद्धि नजदीक आती है, देवता या मनुष्य की योनि प्राप्त होती है ॥ ५७॥ छ?णं भत्तेणं, अपाणएणं तु सत्तजत्ता य । जो कुणइ सत्तुंजए, सो तइए भवे लहइ सिद्धिं ॥ ५८ ॥ (संस्कृत छाया) षड्भिः भक्तः अपानकैः तु सप्त यात्राश्च । यः करोति शत्रुजये स तृतीये भवे लभते सिद्धिम् ।। ५८ ॥ जो प्राणी शत्रुजय तीर्थराज में भक्तिपूर्वक निर्जलाहार रहकर छठ (तपस्या विशेष ) करता है और सात बार यात्रा करता है यह तीसरे जन्म में सिद्धि को प्राप्त होता है ॥ ५८ ।। For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् श्रीतीर्थपांथरजसा विरजी भवन्ति, तीर्थेषु संभ्रमणतो न भवे भ्रमन्ति । तीर्थव्ययादिह नराः स्थिरसंपदः स्युः, पूज्या भवन्ति जगदीशमथार्चयन्तः ॥ ५ ॥ प्राणी तीर्थों के मार्ग की धूली से निष्पाप (पवित्र ) होते हैं, तीर्थों में खूब घूमने से संसार में नहीं घुमते अर्थात् जन्म नहीं लेते, तीर्थ में खर्चा करने से स्थिर (अचल) लक्ष्मी ( सम्पत्ति ) प्राप्त होती है और तीर्थश्वर भगवान की पूजा करता हुआ मनुष्य संसार में पूज्य हो जाता है ।। ५६ ।। जाएण वि किं तेण, अहवा किं तेण मणुअजम्मेण । सत्तुंजयो न दिट्ठो, न वंदिओ जेण रिसहजिणो ॥ ६ ॥ { संस्कृत छाया) जातेनापि किं तेन अथवा किं तेन मनुजजन्मना । शत्रुजयो न दृष्टो न बन्दितो येन ऋषभ जिनः ।। उसको जन्म लेने से क्या लाभ ? अथवा मनुष्य जन्म से क्या फायदा ? जिसने शत्रुजय तीर्थराज को नहीं देखा और तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव को बन्दना नहीं की ।। ६० ।। अपि चऔर भीनमस्कारसमो मन्त्रः, शत्रुञ्जयसमो गिरिः । वीतरागसमो देवो, न भूतो न भविष्यति ॥ ६१॥ नमस्कार के समान कोई मंत्र, शत्रुजय के समान कोई पर्वत, वीतराग (जिनेश्वर ) के समान कोई देव न है और न होगा ॥ ६१ ।। एवं स श्रीसंघस्तीर्थस्तवनं विधाय शुद्ध भावनां च विभाव्य तदनन्तरं ततो निवर्तमानी मार्ग एकस्य मार्गस्थग्रामस्य समीपे स्थितः । अस्मिन् समये तेन मन्त्रिणा गच्छता स एव संघी मार्गे विलोकितो, विलोक्य चातीव हटेन तेन जयजिनेन्द्रतिभगवन्नामनिगदनपूर्वकं नमस्कार For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८ श्री कामघट कथानकम विधाय तेन संघेन सह क्षेमकुशलादिवार्तालापो विहितः। ततस्तेन मन्त्रिणा शास्त्रविचारदृष्टया महालाभं बुध्या स्वपार्श्वस्थं कामघटानुभावं विदित्वा च शुद्धभावनयातिबहुमानेन सहर्षभरेण स्वामिवात्सल्याय संघो निमन्त्रितः। कुतः शास्त्र संघभक्तिफलमेवमुक्तम् – इसतरह श्रीसंघ व तीर्थ की स्तुति करके और शुद्ध भावना करके बाद में वहां से लौटता हुआ रास्ता में एक गांव के पास ठहर गया। इसी समय उस मंत्रीने उसी मार्ग में जाता हआ उस संघ को देखा और देखकर अत्यन्त खुश होकर उसने 'जयजिनेद्र' इस भगवान् के नाम को कहता हुआ नमस्कार करके उसी संघ के साथ कुशल-मंगल की बातचीत की। फिर उस मंत्रीने शास्त्र के विचारों की दृष्टि से बहुत लाभ समझ कर अपने पास में रहे हए कामघट के माहात्म्य को जानकर शुद्ध भावना द्वारा बहत मान पूर्वक हर्षित होकर स्वामी वात्सल्य (सामी वच्छल) के लिए संघ को निमन्त्रण (न्योता) दिया। क्योंकि शास्त्र में संघ-भक्ति का फल ऐसा कहा गया है : कदा किल भविष्यन्ति, मदगृहांगण - भूमयः । श्रीसंघ-चरणाम्भोज - रजोराजि-पवित्रिताः ॥ ६२ ॥ रुचिर-कनक-धाराः प्रांगणे तस्य पेतुः, प्रवर-मणि-निधानं तद्गृहान्तः प्रविष्टम् । अमर-तरु-लतानामुद्गमास्तस्य गेहे, भवनमिह सहर्ष यस्य पस्पर्श संघः ॥ ६३ ॥ प्राप्तं जन्मफलं जने निजकुलाचारः प्रकाशीकृतः, पुण्यं स्वीकृतमर्जितं शुचियशः शुभ्रा गुणाः ख्यापिताः ।। दत्ता दुःखजलाञ्जलिः शिवपुरद्वारं समुद्घाटितं, यैः सिद्धान्त-नयेन शुद्ध-मनसा श्रीसंघ-पूजा कृता ॥ ६४ ॥ मेरे घर के आंगन की भूमि श्रीसंघ के चरण-कमल के रज की ढेर से पवित्र कब होगी ? जिसके मकान को श्रीसंघ हर्षित होकर स्पर्श (प्रवेश ) करता है, उसके आंगन में सोने की बर्षा होती है और घर के भीतर अच्छे मणियों की ढेर लग जाती है एवं उसके घर में कल्प वृक्ष उत्पन्न हो जाता है। For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् २६ जिसने सिद्धान्त की नीति से--भगवान् के कहे हुए अनुसार पवित्र मन से संघ की पूजा की उसका जन्म सफल हो गया, अपने कुल का शुभ आचरण प्रगट कर दिया, पुण्य और निर्मल यश प्राप्त किया और अपने निर्मल गुण प्रसिद्ध कर दिया, दुःखों को जलांजलि (खत्म ) कर दी और मोक्ष के (बंद) द्वार को उघाड़ दिया ।। ६२॥ ६३ ॥ ६४॥ तथा च और इसी तरह - कल्पद्रुमस्तस्य श्चिन्तामणिस्तस्य त्रैलोक्यलक्ष्मीरपि गृहांगणं गृहेऽवतीर्ण लुलोठ । वृणीते, यस्य पुनाति संघः ॥ ६५ ॥ जिसके घर के अंगन को संघ पवित्र कर देता है, उसके घर में कल्प वृक्ष उत्पन्न होता है और चिन्तामणि उसके घर मे लोटती है एवं तीनों लोक की लक्ष्मी (संपत्ति ) उसको वरण (पसन्द) कर लेती कथंभूतः स श्रीसंघो यथावह श्रीसंघ कैसा है ? सो वर्णन करते हैं :रत्नानामिव रोहणः क्षितिधरः खं तारकाणामिव, वर्गः कल्पमहीरुहामिव सरः पंकेरुहाणामिव । पाथोधिः पयसां शशीव महसां स्थानं गुणानामसा-, वित्यालोच्य विरच्यतां भगवतः संघरय पूजाविधिः ॥ ६६ ॥ रत्नों के लिए रोहण पर्वत के समान, तारों के लिए आकाश के समान, कल्प वृक्षों लिए स्वर्ग के समान, कमलों के लिए सरोवर के समान, जलों के लिए समुद्र के समान, शीतल ज्योति के लिए चन्द्रमा के समान और गुणों का स्थान श्रीसंघ की सेवा-भक्ति है, इसलिए उपर्युक्त बातों को विचार कर भगवान के श्रीसंघ का पूजा-विधान सब को करना चाहिए ।। ६६ ।। For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् परं तमेकाकिनं दृष्ट्वा तनिमन्त्रणा तैस्संघलोकन मानिता, रन्धनं च प्रारब्धं किमेकाकिनो निःस्वस्य निमन्त्रणेनेति । लेकिन उसको अकेला देखकर उसके निमन्त्रण को उन श्रीसंघ के लोगों ने नहीं माना और अपनी रसोई रांधना शुरू किया, यह समझ कर कि इस अकेला दरिद्र के निमन्त्रण से इस बड़े श्रीसंघ के लोगों को क्या होने का है ? यत:-- क्योंकि :ब्रह्मचारी मिताहारी, विनिन्द्रः शून्यमानसः । निःसङ्गो निष्परीवारी, भाति योगीव निर्धनः ॥ ६७॥ ब्रह्मचारी, अल्प (परिमित ) भोजन करने वाले, निद्रा रहित, शून्य-चित्त-वाले, अकेला और परिवार रहित जैसे योगी शोभता उसी तरह निर्धन ( दरिद्र-गरीब ) भी शोभता ( रहता ) है ।। ६७ ।। एवं संघलोकानां वार्तामवगत्य ततो मन्त्रिणापि जलघटं गृहीत्वा संघमध्यस्थचुल्हिकेषु वारि निक्षिप्तं, उक्तं चाद्य केनापि रन्धयित्वा न भोज्यं, तथाविधमसमंजसं दृष्ट्वा व्याकुलीभूताः संघपत्यादयो जनास्संभूय चिन्तयन्ति स्म । इसतरह संघ के लोगों की बात को जानकर मंत्रीने भी जल से भरे घड़े को लेकर संघ के जलते हुए चुल्हाओं में पानी डाल दिया और कहा कि आज किसी आदमी को रांधकर अपने यहां नहीं खाना चाहिए। इसतरह के असमंजस (गड़बड़ी ) देख कर व्याकुल हुए संघपति आदि इकठ्ठा होकर विचार करने लगे: यतः :-- क्योंकि :सुजीर्णमन्नं सुशासिता विचिन्त्य सुदीर्घकालेऽपि सुविचक्षणः सुतः स्त्री नृपतिः सुसेवितः । चोक्तं सुविचार्य यत्कृतं, न याति विक्रियाम् ॥ ६८ ॥ For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra और भी श्री कामघट कथानकम् अच्छी तरह पचा हुआ ( खाया हुआ ) अन्न, बुद्धिमान् आज्ञाकारी पुत्र, काबू में रही हुई गृहकार्य में चतुर स्त्री, अच्छी तरह सेवा किया हुआ राजा, अच्छी तरह शोच-समझकर कही हुई बात और विचार पूर्वक किया हुआ कार्य लंबे समय तक भी नहीं बिगड़ते ॥ ६८ ॥ अपि च यंत्रमेको कृषि www.kobatirth.org द्वयोर्मन्त्र पंचभिः त्रिभिर्गीतं कुर्या-द्विचारं बहुभिः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only चतुष्पथम् । सह ॥ ६६ ॥ च अकेला यंत्र का काम, दो मिलकर मंत्र, तीन से गाना, चार से रास्ता चलना, पांच से खेती और बहुत से राय लेकर विचार दृढ़ करना चाहिए ॥ ६६ ॥ अतोऽद्य वयं सर्व किं करिष्यामः ? एप तु स्वोदरपूर्ण करणेऽप्यसमर्थः पुनरस्माकमपि रन्धनं प्रतिषेधति । ततस्तन्मध्यात्कश्चिद् वृद्धरुक्तं भोः संघपत्यादिलोकाः ! अस्याप्याग्रहकार - कस्याशाभंगो न विधेयो भवद्भिरद्य वमेव भवत्वेष यत्स्वशक्त्या लवंगपूगीफल जलादिकमपि दास्यति तदेव खादित्वा वयं सर्वे स्थास्यामः । किमपरं कुमः ? अतो दातव्याज्ञा युष्माभिः एवंविधं वृद्धवाक्यं श्रुत्वा संघपतिराज्ञां तस्मै ददौ । आज्ञामादाय हर्षेणागतो मन्त्री स्वाश्रये पूजादिशुभकार्येष्वनुरक्तो बभूव । संघजनानामाह्वानं बहुवेलापर्यन्तं न कृतं तेन सर्वे उद्विग्नमनसः सन्तो विचारसमुद्रं निमग्नाः किमद्यैष भोजनं दास्यति नवेति ? इतो मन्त्रिणाप्यागत्य सादरं संघ आकारितः, संघोऽपि सन्देहदोलारूढः सन् तदुक्तस्थानेऽटव्यां चचाल । अग्रे गच्छन् दुकूलमयं रमणीयं मंडपं दूरतो दृष्ट्वा हृष्टो विस्मितश्च । परस्परं जनाः पृच्छन्ति स्म - किमिदं मण्डपं स्वर्गविमानं सत्यमसत्यं वा दृष्टिभ्रमो वा मृगतृष्णेन्द्रजालरजनीस्वमदिव्यव्यतिकरवद् दृश्यते वा किमिदं ? एवंविधं विचारं कुर्वन्तः सर्वे गतास्तत्र गमनानन्तरं हस्तेन मण्डपं विलोकयन्ति स्म । इतः प्रधानोऽपि तान् यथायोग्यस्थाने समुपावेशयत् । ततो घटप्रभावेण स्वर्णस्थालानि मण्डितान चाष्टोत्तरशतसंख्या मिताभिः पोडशशृङ्गारवतीभिः सुरांगनाभिः फलाद्यनुक्रमेण दिव्या रसवती परिवेषिता । तदाश्चर्यकारकं समस्तं वस्तु विलोक्य ते सर्वे जनाः परस्परं पृच्छन्ति स्म । ईदृशानि सुस्वादूनि फलानीदृशी पक्वान्नरसवती च केनचित् क्वापि कदापि दृष्टाऽऽस्वादिता वा ? अपरैरुक्तं न क्वापि । भोजनानन्तरं तेनोद्गमनीयोत्तरासंगोष्णीषकुण्डलकेयूर स्वर्णप्रालम्बिकाः सकलश्रीसंघः ३१ " Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् परिधापितः । अथ चमत्कारपूरितेन संघपतिना पृष्टं ? भोः पुरुषोत्तम ! त्वयैतावत्कस्य बलेन कृतं १, तदाऽमात्येनोक्तं कामघटबलेन । मन्त्रिणोक्तकामघटप्रभावं निशम्य लोभाभिभूतेन संघपतिनोक्तं-यदि मह्य कामघटमपयिष्यसि तर्हि सर्वदा साधर्मिकवात्सल्यपुण्यं ते भविष्यति, त्वन्तु धर्मार्थी दृश्यसे । इसलिए आज हम लोग क्या करेंगे? यह तो अपना पेट भरने में भी असमर्थ है और हम लोगों को भी रांधने को मना करता है। तब उस संघ के बीच से किसी बूढ़े ने कहा-हे संघपति आदि लोको! इस आग्रह करने वाले का भी आशाभंग मत करो--आज ऐसा ही हो, यह अपनी शक्ति से जो कुछ लवंग, सुपारी-जल आदि भी देगा वही खाकर हम लोग रहेंगे। और क्या कर ? इस लिए आप लोग आज्ञा दे दीजिए। इसतरह बूढ़े की बात सुनकर संघपतिने मंत्री को आज्ञा दे दी। आज्ञा लेकर हर्ष के साथ मंत्री अपने यहां आया और भगवान की पूजा आदि करने लगा संघ के लोगों को कुछ अधिक देर तक भोजन के लिए नहीं बुलाया, उससे संघ के सभी लोग व्याकुल होकर विचार-सागर में डबकर कहने कि क्या आज यह हम लोंगों को भोजन देगा या नहीं ? इधर मंत्रीने भी आकर लोगों को बुलाया, संघ के लोग भी शक-संदेह करते हुए उसके कहे हुए जंगल के स्थान की ओर चले। आगे जाते हुए संघ के लोग उत्तम चादर बिछा हुआ सुन्दर मंडप को कुछ दूर से ही देखकर खुश और विस्मित (चकित) होकर एक दूसरे से पूछने लगे-क्या यह मंडप है या स्वर्ग का विमान है ? यह सत्य है या मिथ्या है ? या हम लोगों का दृष्टिभ्रम है ? या मृगतृष्णा है, या इन्द्रजाल है, किंवा रात में देखे हुए स्वप्न की तरह यह क्या है ? इसतरह विचार करते हुए वे सब लोग उस मंडप के पास गए और हाथ से मंडप को देखने लगे। इधर संघ के प्रधान ने भी सब को यथायोग्य जगह पर बैठा दिया। उसके बाद कामघट के प्रभाव से सब के आगे सोने की थालियां देकर सोलहों शृङ्गार से सजी हुई एक सौ आठ सुर सुन्दरियों ने फल आदि अनुक्रम से अपूर्व दिव्य रसोई परोसी। उसके सभी आश्चर्य कारक चीजों को देखकर वे लोग आपस में पूछने लगे--ऐसे मजेदार फल और ऐसी रसदार मिठाई किसीने कहीं कभी देखी या खाई ? दूसरे ने कहा-कहीं नहीं। भोजन के बाद धोती पाग-दुपट्टे और सोने के कुण्डल हार आदि आभूषण सारे श्रीसंघ को पहना दिया। अब आश्चर्ययुक्त होकर संघपति ने मंत्री से पूछा-हे पुरुष श्रेष्ठ ! तुमने इतना किसके बल से किया ? तब मंत्री ने कहा - कामघट के बल से। मंत्री से कहे हुए कामघट के प्रभाव को सुनकर लोभ से ग्रसित संघपति ने कहा-यदि मुझे तुम कामघट दे दोगे तो तुमको साधर्मिक वात्सल्य (प्रेम ) का पुण्य होगा, तुम तो पुण्यात्मा दीखते हो। क्योंकि लक्ष्मीः परोपकाराय, विवेकाय सरस्वती । ...सन्ततिः परलोकाय, भवेद्धन्यस्य कस्यचित् ॥ ७० ॥ For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् लक्ष्मी परोपकार के लिए, सरस्वती (विद्या) ज्ञान के लिए, संतान परलोक के लिए किसी धन्य पुरुष के ही होते हैं ।। ७० ॥ __ अपरं मे सर्वरोगविषशस्त्रघाताद्युपद्रवनिवारकं चामरयुगलं त्वं गृहाण, कामघटं मह्य समर्पय, कुतो महतामपि लोभो दुर्जयः । और मेरा सब रोग, विष, शस्त्रघात आदि उपद्रवों को दूर करने वाले दोनों चामरों को तुम ले. लो, कामघट मुझे दे दो, क्योंकि बड़ों को भी लोभ दुर्जेय है । यतःक्योंकिदीसन्ति खमावन्ता, नीहंकारा पुणो वि दीसन्ति । निल्लोहा पुण विरला, दीसन्ति न चेव दीसन्ति ॥ ७१ ॥ ( संस्कृत छाया) दृश्यन्ते क्षमावन्तः निरहङ्काराः पुनरपि दृश्यन्ते । निर्लोभा पुनर्विरला दृश्यन्ते न चैत्र दृश्यन्ते ।। ७१ ॥ दयालु देखे जाते हैं और अहंकार रहित भी देखे जाते हैं, किन्तु इस संसार में लोभ रहित विरले ही देखें आते है और नहीं भी देखे जाते हैं ॥ ७१ ।। संघपतेरेवं वचनं निशम्य मन्त्रिणोक्तम्--सन्तुष्टेन देवेन यो यस्याऽर्पितो भवति तत्रैव स तिष्ठति, नाऽन्यत्र । तदा कामघटार्थी संघपतिः कथयति स्म त्वन्तु सकृदर्पय तिष्ठतु वा मा तिष्ठतु। ततो मन्त्रिणा तस्याऽत्याग्रहं विलोक्य तच्चामरयुगलं गृहीत्वा स्वकामघटः समर्पितः । तदनुहृष्टः सन् संघपतिमंत्री च स्वं स्वं स्थानं प्रति चलतौ। संघपति की ऐसी बात सुनकर मंत्रीने कहा-देवता संतुष्ट होकर जो वस्तु जिसको देता है वह वहीं रहती है, दूसरी जगह नहीं। तब कामघट का लालची संघपति कहने लगा तुम मुझे एकबार तो अर्पण करो पीछे वह मेरे यहां रहे या नहीं रहे। फिर मंत्रीने उसका अधिक आग्रह देखकर उससे दोनों चामर लेकर अपना कामघट उसे दे दिया। बाद में दोनों हर्षित होकर अपने अपने स्थान में चल दिए । For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३४ श्री कामघट कथानकम अथ द्वितीयदिवसे बुभुक्षितो मन्त्री दण्डं प्रति बक्ति स्म-भो दण्ड ! सर्वतोऽप्यशुभाऽसह्यवेदनाकारी क्षुधा मां बाधते । अब दूसरे दिन भूखा मंत्री दण्ड को कहने लगा-हे दंड ! सब से भी खराब, नहीं सहन करने योग्य वेदना वाली क्षुधा ( भूख ) मुझे सता रही है। उक्त चकहा भी हैक्षुधे ! रण्डे ! ब्रवीषि त्वं, माततर्भगिन्यये ! । बहिष्कृतं हतं लोके, स्वस्थानं ह्यानयस्यहो ! ॥ ७२ ॥ अरी राड़ ! भूख ! हे माई, हे भाई और हे बहन, तू ही बोलती है, लोक में समाज से बाहर किये गए ओर दूर हटाए गए को तू ही अपने स्थान में लाती है, आश्चर्य है ।। ७२ ।। अपि चऔर भीगीतं नाद-विनोद-पिण्डत-गुणाः श्रीखंड-कांताधराः, अश्व-स्यन्दन-नाग-भोग-भवनं कर्पूर-कस्तूरिके । रामा-रंग-विनोद-काव्य-करणं कामाभिलाषाऽपि च, सर्वे ते हि पतन्ति कन्दर-दरे ह्यन्नं विना सर्वथा ॥ ७३ ॥ मन हरण करने वाले अच्छे आबाज (स्वर ) से युक्त गाना, पण्डितों के गुण, श्रीखण्ड ( चन्दन ), रमणी का अधर-ओष्ठ, घोड़े, रथ, हाथी, भोग-विलास और महल, कर्पूर, कस्तूरी, विलासिनी-सुन्दरियों के साथ क्रीड़ा, (खेल-कौतुक ), काव्य का आनन्द, और काम की अभिलाषा ये सब अन्न के बिना कंदर दरी (पहाड़ के गढ ) में जा गिरते हैं ।। ७३ ॥ अतो मह्य भोजनं देहि दण्डेनोक्तम्-ममैतन्न सामर्थ्य, यदि त्वं वदेस्तहि भोजनदं कामघटमानयामीत्युक्ते मन्त्री मौन एव स्थितः । ततो दण्डः स्वयमेव कामघटमानेतुं पक्षिवदाकाशे समुड्डीय संघमध्ये गतः । पार्श्वस्थान् सुभटानाहत्य तेषां खड्गखेटकादीन् तिरस्कृत्य For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् मञ्जूषां च भक्त्वा बहून् सुभटानिजित्य तेन संघपतिनातियत्नेन रक्षितं कामघटं गृहीत्वा पश्चात्चरितमागतः। ततो हर्षेण तेन घटेन मन्त्रिणे भोजनं दत्तम् । अथ मन्त्री वस्तुत्रयं लात्वा स्वनगरं न्यवर्तिष्ट । पथि चलन् विचारयति स्म मे धर्मप्रभावतः सर्वाशा धर्मप्रतिज्ञा च सम्पूर्णा जाता । पुनस्संसारे यावन्ति सद्वस्तूनि प्राप्यन्ते तत्समस्तं सद्धर्ममाहात्म्येनैव । इस लिए मुझे भोजन दो, दण्डने कहा-यह मेरी शक्ति नहों, यदि तुम कहो तो भोजन देने वाले कामघट को ला दूं, ऐसा कहने पर मंत्री चुप रह गया। तब दण्ड स्वयं ही कामघट लाने के लिए पक्षी के जैसा आकाश में उड़कर संघ के बीच में चला गया। संघ के पास में रहे हुए योद्धाओं को मार पीटकर उनकी तलवार वरछी आदि को तिरस्कार कर पेटी को तोड़कर बहुत वीरों को जीतकर उस संघपति से यत्नपूर्वक रखे हुए कामघट को लेकर शीघ्र चला आया। फिर हर्ष से उस कामघट ने मंत्री को भोजन दिया। फिर मंत्री उन तीनों वस्तुओं को लेकर अपने नगर को लौटा। रास्ता में चलता हुआ विचार करने लगा-धर्म के प्रभाव से ही मेरी सारी आशाएँ और प्रतिज्ञा पूरी हुई और इस संसार में जितनी अच्छी वस्तुएँ मिलती हैं वे सब धर्म के माहात्म्य से ही मिलती हैं। तदुक्तं च-- कहा भी हैजैनो धर्मः प्रकट-विभवः सङ्गतिः साधु-लोके, विद्वद्गोष्ठी वचन-पटुता कौशलं सर्व-शास्त्रे । साध्वी लक्ष्मीश्चरण-कमलोपासना सदगुरूणां, शुद्धं शीलं मतिरमलिना प्राप्यते भाग्यवद्भिः ॥ ७४ ॥ जैनधर्म, ऐश्वर्य, साधुओं की संगति, विद्वानों की सभा, वचन की चतुराई, सभी शास्त्रों में कुशलता, स्थिर लक्ष्मी, सद् गुरुओं के चरण कमलों की उपासना, शुद्ध शील ( सदाचरण ) और निर्मल बुद्धि ये भाग्यवान् (धर्मात्मा) ही को प्राप्त होते हैं ।। ७४ ।। पत्नी प्रेमवती सुतः सविनयो भ्राता गुणालंकृतः, स्निग्धो बन्धु-जनः सखातिचतुरो नित्यं प्रसन्नः प्रभुः । For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् निर्लोभोऽनुचरः स्वबन्धु-सुमुनि-प्रायोपयोग्यं धनं, पुण्यानामुदयेन सन्ततमिदं कस्याऽपि संपद्यते ॥ ७५ ॥ प्यारी स्त्री, विनीत पुत्र, गुणी भाई, स्नेह करने वाला बान्धव, चतुर मित्र, खुशदिल स्वामी, लोभ रहित सेवक, अपने कुटुम्ब-परिवार और साधु-संत के योग्य धन, ये सब पुण्य के उदय से ही किसी को होते है ।। ७५॥ तथा चऔर उसीतरहयत्कल्याणकरोऽवतारसमयः खनाश्च जन्मोत्सवो, यद्रत्नादिक - वृष्टिरिन्द्र - जनिता यद्रूप-राज्य-श्रियः । यद्दानं व्रतसंपदुज्ज्वलतरा यत्केवलश्रीनवा, यद्रम्यातिशया जिने तदखिलं धर्मस्य विस्फूर्जितम् ॥ ७६ ॥ जिनेश्वर भगवान् में जो कल्याण कारी अवतार का समय हुआ, चौदह स्वप्न हुए, जन्म का महोत्सव हुआ, इन्द्र के द्वारा जो रत्न आदि की वर्षा हुई और जो रूप तथा राज्य की शोभा हुई, जो दान हुए तथा उज्ज्वल व्रतों की संपत्ति हुई और जो नई केवल ज्ञान की संपत्ति हुई तथा जो सुन्दर अतिशय हुए वह सब धर्म का ही माहात्म्य है ।। ७६ ॥ स मन्येवं धर्ममहिमानं विमृशन् परदेशादल्पदिनैरेव स्वगृहमाजगाम । अथ स राजा मन्त्र्यागमनं विज्ञाय तस्मिन्नेव दिवसे तस्य धर्माधर्मपरीक्षाकरणाथ बीजपूरकद्वयमानाय्यैकस्य बीजपूरकस्य मध्ये सपादलक्षमूल्यं रत्नं क्षिप्त्वैकस्य जनस्य हस्ते विक्रयार्थ समर्पितवान् , तस्मै चोक्तम् --शाकचतुस्पथे शाकविक्रयकारिणे त्वयैतत्समर्पणीयम् । यावत्पर्यन्तमेतत्कोऽपि न गृह्णीयात्तावत्त्वया तव प्रच्छन्नवृत्त्या स्थयम् । यदा कोऽपि गृह्णीयात्तदा तस्याऽभिधानं मदन वाच्यं, तेन जनेन समस्तं तथैव स्वीकृतम् । __ वह मंत्री इसतरह धर्म की महिमा को विचार करता हुआ परदेश से थोड़े ही दिनों में अपने घर में आगया। अनन्तर वह राजा मंत्री का आना जानकर उसी दिन में उसके धर्म-अधर्म की परीक्षा करने के लिए दो बीजपूरक (अमरुद ) मंगवा कर एक के बीच में सवा लाख मूल्य का एक रत्न डालकर बेचने For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra यतः www.kobatirth.org श्री कामघट कथानकम के लिए एक आदमी (चर ) के हाथ में दे दिया और उसको कह दिया कि -शाकके चौराहे ( चौक) पर शाक बेचने वाले को तुम यह दे देना और जबतक इसको कोई नहीं ले ले, तबतक तुम वहीं छिपकर रहना । जब कोई ले ले तब उसका नाम मुझे ( मेरे पास आकर ) कहना । उस चरने उसीतरह सब अंगीकार कर लिया । क्योंकि कवीनां ज्ञानं प्रतिभाचक्षुः, चक्षुर्महर्षीणां, शास्त्रं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चक्षुर्विपश्चिताम् । चारश्चक्षुर्महीभुजाम् ७७ ॥ ३७ कवियों की प्रतिभा ( नव नवोन्मेषशालिनी बुद्धि-टटकी- टटकी सूझ ) ही चक्षु है, पण्डितों का शास्त्र ही चक्षु है, महर्षियों का ज्ञान ही चक्षु है और राजाओं का चार ( पता लगाने वाला नौकर गुप्तदूत, जासूस, सी० आइ० डी० ) ही चक्षु है ।। ७७ ।। For Private And Personal Use Only ततो मन्त्रिणो गृहागमनानन्तरं मन्त्रिणो मार्गतापोपशान्त्यर्थं तदैव मन्त्रि - जायया प्रेषितदासी तत्रागत्य तदेव बीजपूरकं रत्नगर्भितं गृहीत्वा मन्त्रिणे समर्पितवती, मन्त्रिणाप तद्भक्षितं तन्मध्याच्च रत्नं गृहीतम् । अथ तेन जनेन सर्व वृत्तान्तमवलोक्य राज्ञोऽग्र े वृत्त सर्वमुक्तं तन्निशम्य राज्ञा चिन्तितम् — अहो एतदपि नूनं धर्ममाहात्म्यमेवेति तेनावधारितम् । अथ रात्रौ मन्त्रिणा धर्मासादितकामघटप्रभावेण सप्तभूमिकः स्वर्णमयावासः कृतः, तत्ररक्तरत्नखचिaft स्वर्णपिशीर्षकानि भान्ति स्म । द्वात्रिंशद्वा दित्रोपेतं दिव्यगीतनाट्यान्वितं नाटकं बभूव । एतद् दृष्ट्वा श्रुत्वा च राजा चमत्कारं गतस्सन् चिन्तयति स्म । किमयं स्वर्गः किमिन्द्रजालो वा स्वप्नं वा पश्यामीति विचारयन्निशायां सुष्वाप । ततः प्रभाते जायमाने स्वानुचरं पृष्टवान्, तेन कथितं - स्वामिन्निदं नृत्यं निशायां मन्त्रिणा कामघटप्रभावेण स्वर्णमयवप्ररत्नमयकपिशीर्षकद्वात्रिंशद्वद्धनाट्ययुतं सौधोत्तममाविष्कृतम् । इतः प्रातमंत्री धर्मफलप्रदर्शनार्थं दिव्यवस्त्राणि परिधाय स्वर्णस्थालं भृत्वा राज्ञो मिलितः । राज्ञा पृष्टं - एतावन्ति रत्नानि कुतः प्राप्तानि ? मन्त्रिणोक्तं धर्मप्रभावात् । नक्तं रात्रौ स्वर्णमयावासोपरि द्वात्रिंशद्वद्धनाटकं तवैवासीत् १ तेनोक्तं ममैव । ततस्तदावासं द्रष्टुकामेन राज्ञा मन्त्रिणं प्रत्युक्तं त्वं सकृत्स्वल्पपरिवारेण मासप्रान्तेऽपि स्वगृहे मां भोजय । तदा मन्त्रिणोक्तं स्वामिन्नद्य वाहं श्रीमन्तं भोजयिष्यामि । अतस्तच देशमध्ये तदा Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८ श्री कामघट कथानकम यावान्मेलापकोऽस्ति तावन्तं मेलापकंगृहीत्वा मद्गृहे समागन्तव्यम् । नूनं यथायोग्ययुक्त्या भवन्तमहं भोजयिष्यामि । एतन्निशम्य राजा चिन्तयपि स्म अहो ! वणिग्मात्रस्य मन्त्रिणः कियत्साहसं ? नूनमेतेन मम मेलापकः पानीयमपि पाययितुं न शक्यते। एतत्तु पिपीलिकागृहे गतगजराजप्राघूर्णकवद् ज्ञेयं । अतः किं पुनर्भोजनं कारयितुं शक्यते ?, तदा रुष्टेन राज्ञा मन्त्रिवार्तामन्यथा करणाय तदिन एव स्वभृत्यान्प्रेष्य स्वसर्वदेशमेलापको मेलितः । अथ राज्ञा सचिवालये सचिवस्वरूपदर्शनार्थ स्वचरः प्रेषितः, कियती भोजनसामग्रो जायमानाऽस्तीति विलोकय । तेनाऽपि तत्रागत्य यदामात्यालयस्वरूपं विलोकितं, तदा कापि मुष्टिमात्राप्यन्नसामग्री नाऽवलोकिता । पुनः सोऽमात्यस्तु सप्तमभूमौ सामायिकं गृहीत्वा नमस्कारमन्त्रं जयंस्तेन दृष्टः, ततस्तेन चरेण पश्चादागत्य सत्सर्वं स्वरूपं राज्ञे निवेदितं, तदाकर्ण्य भूपश्चिन्तयति स्म-नूनमेष मन्त्री ग्रथिलो भृत्वा दूरं गमिष्यति पश्चान्ममैवतेभ्योऽखिलेभ्यो भोजनं देयं भविष्यति । अतः किं कर्तव्यमिति विचारमूढो जातस्तेन विचार्य कार्यकरणं युक्तमेव । फिर मंत्री के घर आने के बाद उसके रास्ते की गर्मी के उपशमन के लिए मंत्री की स्त्रीने अमरुद लाने के लिए एक दासी बाजार में भेजी थी वह वही रत्न वाला बीजपूरक (अमरुद ) लाकर मंत्री को दे दी। मंत्रीने भी वह खाया और उसके बीच से वह रत्न निकाल लिया। अब उस चार (गुप्तदृत ) ने सभी हाल देखकर राजा के आगे सब बात कह दी। यह सुनकर राजाने विचार किया। अरे। पक्का, यह भी धर्म का प्रभाव ही है, ऐसा उसने अपने मन मे रखा। फिर रात में मंत्रीने धर्म से प्राप्त उस कामघट के प्रभाव से सात भूमि वाला सोने का महल बनाया, उसमें लाल मणियों से जड़े हुए सोने के कपिशीर्ष चमक रहे थे। ३२ बत्तीस बाजों से युक्त देव-गान और नाच से युक्त नाटक हुआ। यह देखकर और सुनकर राजा आश्चर्य से चकित होकर विचारने लगा। क्या यह स्वर्ग है ? या इन्द्रजाल है ? या खप्न देखता हूँ ? ऐसा विचारता हुआ रात्रि में सोगया। फिर प्रातःकाल में अपने नौकर को पूछा, तब उसने ( नौकरने ) कहा-हे स्वामी, यह नाटक रात्रि में मंत्रीने कामघट के प्रभाव से किया, और सोने का किला, मणियों के कपिशीर्ष और बत्तीस वाद्य और नाच से युक्त आलीशान महल बनाया। इधर मंत्री सुबह में राजा को धर्म का फल देखाने के लिए बेशकीमती कपड़े पहन कर सोने की थाली भरकर राजा से मिला। राजाने पूछा,—इतने रत्न कहां से लाए ? मंत्रीने कहा-धर्म के प्रभाव से। फिर राजाने कहा-रात्रि में सुवर्ण के महल पर बत्तीस वाजों से युक्त तुम्हारा ही नाटक था -मंत्रीने कहा-हां मेरा ही था। तब उसके महल को देखने की इच्छा से राजाने मंत्री को कहा-तुम एक महीना के भीतर थोड़े ही परिवार से युक्त मुझे भोजन कराओ। हे स्वामी, आज ही मैं श्रीमान् (आप) को For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् ३६ भोजन कराउंगा। इसलिए आपके देश (राज्य ) में जितने हित-मुहब्बत वाले हैं उन सबों को लेकर आप मेरे घर पर अवश्य पधारें । अवश्य ही आपके योग्य यथाशक्ति मैं आपको भोजन कराउंगा। यह सुनकर राजा विचार में पड़ गया-अरे यह बनिया-बकाल है, इसकी शक्ति कितनी ? अवश्य यह आज मेरे मित्रों को पानी भी नहीं पिला सकेगा। यह तो चोंटी के घर में गए हुए गजराज पाहुन के जैसा जानना चाहिए। इसलिए यह भोजन क्या कराएगा ? फिर रंज होकर राजाने मंत्री की बात को मिथ्या करने के लिए उसी दिन अपने दूतों को भेजकर अपने सभी मित्रों को बुलवाया। बाद मे राजाने संत्री के घर में उसके भोजन की सामग्री-इन्तजाम देखने के लिए अपना गुप्तदूत भेजा और कहा कि मंत्री के घर में कितनी भोजन की सामग्री है यह जाकर देखो। उस गुप्तदूत ने भी वहां जाकर मंत्री का घर देखा तब कहीं भी एक मुट्ठी भी अन्न की सामग्री नहीं देखी और फिर उसने सप्तभूमि (महल) में सामायिक लेकर नमस्कार मंत्र को जपते हुए मंत्री को देखा-फिर उस चरने पीछे लौट कर वहां का सारा हाल राजा को कह सुनाया। वह सुनकर राजा विचार करने लगा-निश्चय हो यह मंत्री पागल-दुखी होकर दूर देश चला जायगा और पीछे मुझे इन सभी को भोजन देना पड़ेगा इस लिए अब क्या करना चाहिए इसतरह विचार मूढ़ (जकथक) हो गया। इसलिए विचार करके ही काम करना ठीक होता है-कहा भी है यत : क्योंकि सहसा विदधीत न क्रिया-मविवेकः परमापदां पदम् । वृणुते हि विमृश्य कारिणं, गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ॥ ७८॥ सहसा ( बिना विचारे-एकाएक) कोई काम नहीं करना चाहिए, क्योंकि, अविचार आपत्तियों का स्थान ( घर ) है। शोच-समझकर काम करने वालों को संपत्ति स्वयं वरण करती (अपनती) है, क्योंकि, संपत्ति गुण के लोभी है ॥ ७८ ॥ एतस्मिन्नन्तरे मन्त्री समागतस्सन् विज्ञपयामास---स्वामिन् ! समागम्यतां रसवती शीतला जायते । तनिशम्य भूपेनोक्तं-हे मन्त्रिन ! मयापि सह किन्त्वया हास्यं प्रारब्धम् ? यतस्तवालये स्वल्पापि भोजनसामग्री नास्ति । तदा सचिवेनोक्तम्-हे स्वामिन् ! सकृल्पादाववधार्य विलोक्यतां सर्वा सामग्री प्रस्तुताऽस्ति । तदा धराधवः सपरिकरः प्रचलितो मार्ग च रोपारुणश्चिन्तयति स्म-एष यदि भोजनं न दास्यति तदा विविधविडम्बनया विगोपयिष्यामीति दुर्विचारः कोपवशेन तेन कृतः। For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४० www.kobatirth.org श्री कामघट कथानकम इसी बीच में मंत्रीने आकर राजा को विनीत होकर सूचना दी कि - हे स्वामी, शीघ्र पधारें, रसोई ठंढी हो रही है। यह सुनकर राजाने कहा - हे मंत्री, मेरे साथ भी तूने मसकरी करना क्या शुरू कर दिया ? क्योंकि तेरे मकान में थोड़ी भी भोजन सामग्री नहीं है । तब मंत्रीने कहा- स्वामिन्, एक बार अपने चरणों को ले जाकर (पधार कर ) जरा देख लें, सारी सामग्री तैयार है। तब राजा अपने नौकर-चाकर दोस्त - महीम के साथ चला और मार्ग में क्रोध से लाल शुर्ख होकर विचारने लगा - यदि यह (मंत्री) हमको आज भोजन नहीं देगा तो अनेक तरह के छल कपट से इस बात को ( शिकायत को ) छिपा दूंगा यह विचार उसने कोप के अधीन होकर किया । तदुक्तं च और वह कहा भी है सन्तापं तनुते भिनति विनयं सौहार्दमुत्सादयजनयत्यवद्यवचनं ब्रूते विधत्ते युगं कलिम् । कोर्त्तिं कृन्तति दुर्गतिं वितरति व्याहन्ति पुण्योदयं, दत्ते यः कुगतिं स हातुमुचितो रोषः सदोषः सताम् ॥ ७६ ॥ ( संस्कृत छाया ) - क्रोध पीड़ा को देता है, विनय को नष्ट करता है, मित्रता को भेदन करता है, उद्वेग को उत्पन्न करता है, बुरा बचन बोलता है, झगड़ा करता है, कीर्त्ति को काट डालता है, दुर्गति को देता है, पुण्य को मार भगाता है, और खराब गति ( नरकगति) को देता है, इसलिए क्रोध बहुत बुरा है, बुद्धिमानों को इसे छोड़ देना चाहिए ।। ७६ ।। कोह पट्टिओ देहघरि, आप तपे पर संतपे, तिपिण विकार धणणी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हाणि क्रोधः प्रतिष्ठितः देह गृहे त्रीन् विकारान् करोति । स्वयं तपति परं संतापयति धनस्य हानिं करोति ॥ For Private And Personal Use Only es | करेइ ॥ ८० ॥ देह रूपी घर में क्रोध के रहने से तीन विकार होते हैं, क्रोध स्वयं तपता है और दूसरों को पीड़ित करता है तथा धन का नुकशान करता है ॥ ८० ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् लग्गो कोह उवसमजले जो दवानलो, डज्झइ ओलवे, न सहइ गुणरयणाई । दुक्खसयाई ॥८१ ॥ (संस्कृत छाया) लग्नः क्रोधदवानलः दाहयति गुणरत्नानि । उपशम-जले यो मज्जति न सहते दुःख-शतानि ।। इस दुर्लभ मानव शरीर में लगा हुआ यह क्रोध रूपी दवानल ( वन की आग ) गुण रूपी रत्नों को जला डालता है, जो उपशम रूपी जल में स्नान करता है वह क्रोध जनित सैकडों दुःखों को नहीं सहता (भोगता) है।। ८१। ततो मनुष्यलक्षः परिवृतो नृपतिस्तद्वारसमीपमागतः। तत्रस्थ एव तद्गेहाडम्बरं विलोक्य विचिन्तयति स्म-किमेषः स्वर्गः, किमिन्द्रजालं वा, किमिदं सत्यमसत्यं वा १, यथा २ तममात्यालयमण्डपं पश्यति तथा २ राजा स्वमनसि चिन्तयति स्म-किमनेन मन्त्रिणाऽद्य वेशमिन्द्रजालं विकीर्याहं विप्रतारितः ? एवमनेकप्रकारचिन्तासमुद्रनिमनो विचारयति स्म । अथ राजान्ये च लोकास्तं मुहुर्महुरवलोक्यातीव भ्रान्तिपतिताः, यथा शुद्धस्वर्णपरीक्षानभिज्ञा अमूल्यक स्वर्णमपहाय गच्छन्ति । तथा तेऽपि ततः स्वस्थानं प्रतिगन्तुमिच्छुकाः संजाता अग्रे नो गच्छन्ति स्म । अस्मिन्नवसरे शीघ्रमागत्य मन्त्रिणा भूपतिं लोकांश्च स्वकरेणाभिगृह्य २ यथोचितस्थाने सर्वेषामुपवेशनार्थमासनानि दत्तानि । ततो मन्त्रिणा कामघटप्रभावेणैतादृशी दिव्यपक्वान्नरसवती परिवेषिता, यथा राजादयः सर्वेऽपि जनास्तामश्रमेण सुखेन भक्षयामासुः प्रशशंसुश्च । अनन्तर लाखों मनुष्यों के साथ राजा उसके द्वार पर आया। वहीं रहा हुआ ही उसके घर के तड़क भड़क-डीलडौल देखकर विचारने लगा-क्या यह स्वर्ग है ? या इन्द्रजाल है ? या सत्य है यह या झूठ ही झूठ है ? जैसे जैसे उस मंत्रीके घर के मंडप को देखता है वैसे वैसे राजा अपने मनमें विचारने लगा-क्या आज इस मंत्रीने ऐसा इन्द्रजाल फैला करके मुझे ठगा तो नहीं है ? इसतरह अनेक प्रकार के चिन्ता रूपी समुद्र में डूबा हुआ राजा विचार करने लगा-फिर राजा अन्य लोग उसको बार बार देखकर अत्यन्त भ्रम में पड़ गए, जैसे शुद्ध सुवर्ण की पहचान करने में अनभिज्ञ ( अनाड़ी) बेशकीमती सोना को छोड़ कर चले जाते हैं, उसीतरह वे लोग भी अपने अपने स्थान को जाने के लिए उतारू हो गए और आगे नहीं जा सके। इसी अवसर में मंत्रीने शीत्र आकर राजा और उनके लोगों को हाथ पकड For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४२ श्री कामघट कथानकम . पकड़ कर उचित स्थान में आसन देकर बैठाया। फिर मंत्रीने कामघट के प्रभाव से ऐसी दिव्य पक्की रसोई परोसी कि जिसको राजा आदिक सभी लोग बिना श्रम के सुख पूर्वक खाने लगे और प्रशंसा करने लगे । तद्यथा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैसे शुभ्र गोधूमचूर्णं घृत- गुड-सहितं नालिकेरस्य खंड, द्राक्षा-खर्जूर-सुंठी-तज-मरिच-युतं वेलची- नागपुष्पम् । पक्त्वा ताम्र कटाहे तल-वितल-तटे पावके मंदहीने, धन्या हेमन्त काले प्रियजन सहिता भुञ्जते लापसीं ये ॥ ८२ ॥ स्वच्छ गेहूं के चूर्ण में घी और गुड़ मिलाकर नारियल ( गरी ) के छोटे छोटे टुकड़े मिलावें, फिर उसमें दाख, छोड़ा, सोंठ, तज, कालीमिर्च, इलाइची और नाग केसर डाल कर तांबे की कड़ाह में धीमी धीमी आंच से पकावे और बीच में नीचे ऊपर करता हुआ कड़छू से खूब लारते रहने से अच्छी लापसी तैयार होती है, ऐसी लापसी को हेमन्त ऋतु में अपने प्रिय परिवारों के साथ भाग्यवान ही लोग खाते हैं ।। ८२ ।। हिंग्वाजीरे मेरी चैर्लवण पुटतरेरार्द्रकाद्य : सुपक्कान्. सिग्धान्पक्कान् मनोज्ञान्परिमल-बहुलान्पेशलान्कुङ्कुमाभान् । क्षिप्त्वा दन्तान्तराले मुर-मुर-वदतः स्पष्ट-सुस्वाद-युक्तान्, धन्या हेमन्त काले मुख - गत- बटकान्भुञ्जते प्रीतिदत्तान् ॥ ८३ ॥ हींग, जीरा, काली मिर्च, सेंधा नमक और अदरख से मिले हुए तेल या घी में अच्छी तरह पके हुए सुन्दर सुगन्ध ( केसर - कस्तूरी ) युक्त कुंकुम की रंग की तरह अच्छे जायकेदार और दांत के तले • दबाने पर जिन में 'मुर मुर' आबाज हो ऐसे प्रेम से दिए गए बड़े ( बाड़ा-सेबई आदि) को हेमन्त ऋतु में भाग्यवान् ही भोजन करते हैं ॥ ८३ ॥ गोधूमचूर्ण लवणेन मिश्रितं, जलेन पिण्डीकृत हस्तमर्दितम् । तद्गोलिका गोमय-वह्निपक्काः, क्षुधाहराः पुष्टिकरा घृतेन ॥ ८४ ॥ For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् गेहूं के चूर्ण में संधा नमक मिलाकर और जल देकर खूब गूंधे (साने ) फिर अन्दाज से गोले बनाकर गोइठा ( छाना ) की आग में पकाने से बाटी तैयार होती है उसमें खूब घी डालकर खाने से जल्दी भूख नहीं लगती और वह पुष्ट करने वाली होती है ।। ८४ ।। इति राजादिसर्वजनमुखादेवं प्रशंसां निशम्य मन्त्रिणा राज्ञेऽभिहितम्राजा आदि के मुख से इसतरह की प्रशंसा सुनकर मंत्रीने राजा को कहापिव भूप! सुदुग्धमहो ! मुदितः, कफ-मारुत-पित्त-विकारहरम् । मदनोदययोषिति कामकरं, सुरभि-द्रव-मिश्रित-ताप-हरम् ॥ ८५ ॥ हे राजन् प्रेम से इस अच्छे दूध को पीजिए, यह दृध कफ, पित्त, वायु ( त्रिदोष ) के विकार को हरण करने वाला है, कंदर्प को उत्पन्न करने वाला और स्त्रियो में इच्छा बढ़ाने वाला, तथा सुगन्धित द्रव्यों से युक्त होने के कारण ताप नाशक है ।। ८५॥ दधि भक्षय भूप ! सुखंडयुतं, घनसार-विमिश्रित-गन्धयुतम् । शुचि-काम-करं बल-पुष्टि-करं, शुभ-सैन्धव-जोरकमाशुगहम् ॥ ८६ ॥ हे राजन्, अच्छी मिसरी और कर्पूर से युक्त जायकेदार, खुशबूदार और लज्जतदार इस दही को चखिए, यह शुद्ध वीर्य को बढ़ानेवाला, बल-पुष्टिकारक है तथा सेंधा नमक और जीरा मिलाने से यह वायु विकार को दूर भगाता है ।। ८६ ।। घृतमद्धि जनेश्वर ! पुष्टिकर, मदनोदयमिन्द्रिय-तृप्ति-करम् । बहु-कान्ति-करं हृत-ताप-भरं, मधुरेश-सुधा-रस-दूरकरम् ॥ ८७॥ हे जनवल्लभ ( राजन ), वीर्यवर्धक, इन्द्रिय को तृप्त करने वाला, बल पुष्टि कारक इस घी को खाइए । यह अत्यधिक कान्ति को बढ़ाने वाला, शरीर के संताप को हरण करने वाला और अमृत के रस को भी मात करने वाला है ।। ८७ ॥ शशि-कांति-समुज्ज्वल-शंख-निभं, परिपक-सुगन्ध-कपित्थ-समम् । युवती-मृदु-पाणि-विनिर्मथितं, पिव तक्रमिदं तनु-रोग-हरम् ॥ ८ ॥ हे राजन्, चन्द्रमा और शंख के समान अत्यन्त उज्ज्वल, पके हुए सुगंध वाले कपित्थ के समान For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४४ श्री कामघट कथानकम और युवतियों के कोमल पाणि-पल्लव से मथा हुआ शरीर के रोगों को हरने वाले इस तक (घोल-छाछ) को पीजिए ।। ८८ ।। हिम-शीतल-निर्मल-कुंभ-भृतं, घनसार-सुवासित-वात-युतम् । युवती-कर-हेम-कचोल-भृतं, रिपु-पक्ष-हरं पिब भूप ! जलम् ॥८६॥ हे राजन्, बर्फ के जैसा ठंडा और निर्मल जल से भरे हुए कपूर और खश की खुशबू से युक्त घड़े में से युवती के हाथ से सोने की कटोरी में भर कर लाए हुए इस जल को पीजिए, यह जल आप के दुश्मन के दल को जीतने वाला है ।। ८६ ।। इत्यादि मन्त्रिप्रेमवाक्यं शृण्वन रसवती भुंजानः सन् राजा पार्श्वस्थान् पुरुषान् पृच्छतिभो जनाः ! एवंविधा रसवती कापि युष्माभिरास्वादिता पक्वान्नानि वा दृष्टानि श्रुतानि वा ? सर्वे जनास्तदैवमाहुने क्वापि । एवमतिभक्त्या राजादयस्सर्वे जनास्तेन भोजिताः। तदनु च तेषु केसरचन्दनच्छटा निक्षिप्ताः, तांबलानि च सर्वेभ्यो दत्तानि दिव्यवस्त्राभरणादीनि च परिधापितानि । तदनु विस्मितेन राज्ञा मन्त्री पृष्टः-भो मन्त्रिन् । एतावन्तो जनास्त्वया कस्य प्रसादेन भोजिताः ? मन्त्रिणोक्तम्-महाप्रभावशालिनो देवाधिष्ठितस्य कामघटस्य प्रसादेन । तदा राज्ञोक्तं तं कामघट ममार्पय, यतः शत्रुसैन्यादिकृतपराभवावसरे स सर्वदा मम महोपयोंगी भविष्यति । ततोऽमात्येनोक्तम्-अधर्मवतस्तव गृहे स सर्वथा न स्थास्यति । नृपेणोक्तं सकृत्त्वं मेऽपय पश्चादहमतिप्रयत्नेन स्थापयिष्यामि, पुनरहं तबोपकारं ज्ञास्यामि । सचिवेनोक्तम्--अतःपरं किमहं ब्रवीमि भवदमात्योऽस्मीति ददामि, परं दिनत्रयं तु भवद्भिः सावधानतयाऽवश्यमस्य रक्षा विधेयेति मया स्पष्टं ज्ञापितोऽसि । नातःपरं मे कोऽपि दोष इत्युक्त्वा मन्त्रिणा स कामघटस्तस्मै समर्पितः । नृपेणाप्यतिप्रयत्नेन स्वालयभाण्डागारे स्थापितः, परितश्च तद्रक्षार्थ सारभूता निजसहस्रसुभटाः खड्गखेटकधरा सेना च स्थापिता । इत्यादि मंत्री की प्रेमभरी बात को सुनता हुआ और रसोई जीमता हुआ राजा अपने पास में रहे हुए लोगों से पूछा कि हे लोगो, आप लोगों ने ऐसी रसोई कहीं खाई या ऐसी मिठाई कहीं देखी या सुनी ?तब उस समय सभी ने कहा कि कहीं नहीं। इस तरह भक्तिपूर्वक मंत्रीने राजा आदि सब को भोजन कराया। और उसके बाद उन लोगों को केसर-चन्दन आदि की छांटे देकर पान के बीड़े सबों को दिए और सुन्दर वस्त्र-अलङ्कार आदि पहना दिए। उसके बाद विस्मित होकर राजाने मंत्री से पूछा-हे मंत्री, For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra यतः- ४५ श्री कामघट कथानकम् इतने लोगों को तुमने किसकी कृपा से भोजन कराया। मंत्रीने कहा- महा प्रभाव - शाली देवता से अधिष्ठित कामघट के प्रभाव से । तब राजा ने कहा- वह कामघट मुझे दे दो, क्योंकि, शत्रु की सेना से परास्त होने के समय में वह कामघट मेरा अधिक उपयोगी होगा । तब मंत्रीने कहा- आप अधर्मी हैं, इसलिए आपके पास वह कामघट नहीं रह सकता । राजाने कहा - एकबार तो तुम मुझे दो पीछे मैं खूब संभालकर उसे रखूंगा और मैं तुम्हारा उपकार मानूंगा। मंत्रीने कहा- अब इसके आगे मैं आपको क्या कहूं ? क्योंकि, में आपका मंत्री हूं, इसलिए देता हूं, लेकिन तीन दिन तक आप इसकी अच्छी निगरानी के साथ रक्षा करना यह मैं आपको साफ कहे देता हूँ, इसके आगे अब मेरा कोई दोष नहीं, यह कहकर मंत्रीने वह कामघट राजा को दे दिया । राजाने भी अत्यन्त होसियारी से अपने महल के भांडागार में उसे रखा और चारों ओर उसकी रक्षा के लिए हजारो अच्छे लड़ाकू योद्धाओं को और किच, तलवार वाली सेना भी तैनात कर दी । क्योंकि सामी सूरा चार जे संपत्ति पारखडे, www.kobatirth.org करि, व्यसने स्मशाने च, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कायर स परिहर ते चारे चउसट्ठि ॥ ६० ॥ राजा लोग शूर-वीर को ही अपना चार ( चाकर - अंगरक्षक ) बनाते हैं और कायर ( डर पोक ) शस्त्रधारी को छोड़ देते हैं, वास्तव में जो संपत्ति के पारखी-संरक्षक हों वे ही चतुर शस्त्रधारी कलाकुशल राजा के चार के योग्य हैं ॥ ६२ ॥ अतो युष्माभिर्मे बान्धवरूपैः सेवकैरिदं कार्यं सावधानतया विधेयम् । इसलिए तुम लोग मेरे बान्धव रूप सेवक हो, यह कार्य सावधानी से करना चाहिए । उक्तं च और कहा भी है आतुरे राज-द्वारे प्राप्त, दुर्भिक्षे शत्रु-निग्रहे । यस्तिष्ठति स For Private And Personal Use Only बान्धवः ॥ ६१ ॥ संकट काल उपस्थित होने पर, दुष्काल में, शत्रु की दबाव होने पर, राज दरबार में और स्मशान में जो ( मदद करने के लिए) खड़ा रहता है, वहीं ( वास्तव में ) बान्धव ( करकटुम्ब, भाई-बन्धु ) है ।। ६१ ।। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम अपि चऔर भीजानीयात्प्रेषणे भृत्यान्, बांधवान् व्यसनागमे । मित्रमापदि काले च, भार्या च विभव-क्षये ॥ १२ ॥ किसी कार्य के लिए कहीं भेजने में नौकरों को, कष्ट (दैहिक आर्थिक ] में बांधवों को, आपत्ति में मित्रों को और धन के न रहने पर स्त्री को ( अच्छा बुरा ) जानना चाहिए ।। ६२ ।।। एवं राज्ञा भृत्याः शिक्षिताः। अथ द्वितीयदिवसे तस्मिन् पुरेऽपि धर्ममाहात्म्यदर्शनार्थ मन्त्रिणा दण्डं प्रत्युक्तम्-भो दंड ! कामघट मे समानयेति, तदैव स दंडस्तत्र गत्वा सर्वान हयगजसुभटान् कुट्टयित्वा रुधिरवमनांश्च विधाय मूर्छाभिभूतान् कृत्वा राज्ञः पश्यत एव तं कामघटं गृहीत्वा मन्त्रिगृहे समागतः। राजा तं घटं गतं दृष्ट्वा विषण्णचेता मन्त्रिगृहे गत्वोवाच भो मन्त्रिन ! पापिनो गहे सद्वस्तु न तिष्ठतीति तवोक्तं सर्व सत्यं जातम् । अतः सांप्रतं ममालयेऽयमनर्थः समुत्पन्नः, ततस्त्वं प्रसादं कृत्वा मत्सेन्यं सज्जीकुरु । एवं राज्ञो बताग्रहेण मन्त्री तत्र गत्वा तेषां सुभटानामुपरि प्रभावान्वितं चामर-युगलं बीजयित्वा सर्वानपि सजीकृतवान् । ततो मन्त्रिणोक्तं भो राजन् ! मद्धर्मप्रभावोऽयं दृष्टः १ ततो राज्ञापि मन्त्रिप्रसङ्गाद् धर्मोऽङ्गीकृतः प्रोक्तं च सर्वमपि भव्यं धर्मादेव भवति । इसतरह सेवकों को राजाने समझा दिया। अब दूसरे दिन उस नगर में मंत्रीने धर्म के माहात्म्य को दिखलाने के लिए दण्ड को बोला-हे दण्ड, मेरा कामघट तू ला दो, उसी समय दण्डने वहां जाकर राजा के हाथी घोड़े और सुभटों को इतनी मार मारी कि उन सबों के मुंह से खून की उलटी होने लगी और सब मूच्छित (बेहोश ) हो गए. ऐसा करके राजा को देखते ही उस कामघट को लेकर मंत्री के घर पर चला आया। राजा उस घड़े को गायब होते देखकर अत्यन्त दुःखी चित्त होकर मंत्री के घर पर जाकर बोला-हे मंत्री, पापी के घर में अच्छी वस्तु नहीं टिकती है, यह तुम्हारा कहा हुआ सब सत्य निकला। इसी से अभी मेरे घर में यह अनर्थ ( आफ़त) हुआ है, इस लिए तुम कृपा करके. (प्रसन्न होकर ) मेरी सेना को अच्छा कर दो, इसतरह राजा के अधिक आग्रह से मंत्री वहां जाकर उन मूर्छित सुभटों के ऊपर प्रभावों से युक्त दोनों चामरों को डुला कर सब को अच्छा कर दिया। तब मंत्रीने कहा-हे राजन् ! आपने मेरे धर्म का प्रभाव देखा। राजाने कहा-हां, देख लिया। उसके बाद राजाने भी मंत्री के प्रसंग से धर्म को स्वीकार किया और बोला कि सभी अच्छाई धर्म से ही होती है । For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री कामघट कथानकम् यतः क्योंकि— धर्मादेव धर्माद्धनं कुले सुखं जन्म, www.kobatirth.org रूपं, रूपं रूपाभिमतरतयः कान्ता पटखंडोव - तल-परिवृढत्वं सौभाग्य-श्रीरिति कुलं विश्व श्लाघ्यं सुवित्तं सौभाग्यं चिरायुस्ता रुपयं धर्माच्च धर्मः अच्छा कुल में जन्म, फैलने वाली कीर्ति, धन-दौलत, सुख-चैन, रूप-सौन्दर्य ये सब धर्म से ही होते हैं और धर्म स्वर्ग तथा मोक्ष को देता है ॥ ६३ ॥ रम्यं करण- पटुताऽऽरोग्यमायुविशालं, भक्तिमन्तः । सूनवो यशः क्षीर-शु फलमहो ! धर्म-वृ विपुलं यशः । वपुरपगदं ललित-ललना बलमविकलं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - वृक्षस्य सर्वम् ॥ ६४ ॥ सुन्दर रूप, इन्द्रियों की कार्यक्षमता, नीरोगता, विशाल आयु, अच्छी तरह प्रेम करने वाली सुन्दर स्त्री, आज्ञाकारी पुत्र, छः खण्ड पृथ्वी का आधिपत्य, दूध के जैसा उज्ज्वल यश और सौभाग्य की शोभा यह सब धर्म-वृक्ष का फल है ॥ ६४ ॥ स्वर्गापवर्गदः ॥ ६३ ॥ ४० For Private And Personal Use Only जातिरमला भोग्य-कमला । स्थानमतुलं, यदन्यच्च श्रेयो भवति भविनां धर्मत इदम् ॥ ६५ ॥ संसार में मान्य कुल ( में जन्म ), नीरोग शरीर, निर्दोष जाति, अच्छे धन-दौलत और भाग्य, सुन्दर स्त्री और लक्ष्मी का भोग, दीर्घ आयु, तरुणाई ( जबानी ), अटूट बल और अच्छे स्थान तथा अन्य दूसरे जो पुण्यात्माओं के अच्छे होते हैं वे सबके सब धर्म से ही होते हैं ॥ ६५ ॥ अहो ! सर्वतोऽधिको धर्मस्य प्रभावो नत्वन्यस्येति सर्वैर्नगरलोकैरपि धर्मोऽङ्गीकृतां मानितश्च । अरे सब से अधिक धर्म का ही प्रभाव है दूसरे का नहीं, इसतरह नगर के सभी लोगों ने भी धर्म को स्वीकार किया और संमान भी किया Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८ श्री कामघट कथानकम यतःक्योंकि राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः, पापे पापाः समे समाः । राजानमनुवर्तन्ते, यथा राजा तथा प्रजाः ॥६६॥ राजा के धर्मात्मा होने से धर्मात्मा, पापी होने से पापी और समान होने से समान लोग (प्रजा) हो जाते हैं, अर्थात् राजाके पीछे पीछे प्रजा चलती है, कहावत है कि जैसा राजा वैसी प्रजा ।। ६६ ।। ___अथ कियदिनानि यावर्तन राज्ञा तथाविधधर्मप्रभावो मानितः । तदनु पुनरपि चलचित्तन राजकदा मन्त्रिणं प्रति प्रोक्तम्- हे मन्त्रिन् ! घुणाक्षरन्यायेन सकृत्तव भाग्यं फलितं परं नायं धर्मप्रभावः । इदं सर्वमपि पापफलमेव, यदि त्वं धर्मप्रभावं सत्यमेव मन्यसे, तर्हि पुनरपि द्वितीयवारं मम धर्मफलं दर्शय । परं कामघटं चामरयुगलं दण्डं चाऽत्रैव मुक्त्वा , निःसंवलः सभार्यस्त्वं देशान्तरे गत्वा, धनमर्जयित्वा, पुनरपि यदि त्वमत्रागमिष्यसि तदाहं तव सत्यधर्मप्रभाव मस्ये नाऽन्यथा । एवंविधानि राज्ञो वचनान्याकर्ण्य मन्त्री चिन्तयति स्म-पूर्वमेष राजा महानधर्म्यभूत्पुनरपि तथैव जातः, प्रथमन्तु महापरिश्रमेण परीक्षां विधाय धर्मोऽङ्गीकृतः । अथ पुनस्तदवस्थयैव स्थितो हन्त ! यस्य यथा शुभोऽशुभो वा स्वभावोऽस्ति स तेन कदापि नो मुच्यते। उसके बाद कुछ दिनों तक उस राजाने धर्म के प्रभाव को माना, पश्चात् फिर चलचित्त होने के कारण राजाने एक समय मंत्री को बोला-हे मंत्री, घुणाक्षर न्याय से एकबार तुम्हारा भाग्य फला किन्तु यह धर्म का प्रभाव नहीं है। यह सब भी पाप का ही फल है। यदि तुम धर्म के प्रभाव को सत्य हो मानते हो तो एकवार फिर भी धर्म का फल मुझे दिखाओ। लेकिन कामघट को, दोनों चामरों को और दण्ड को यहीं छोड़कर बिना संवल (रास्ते का खर्चा-बर्चा ) के अपनी स्त्री के साथ तुम दूसरे देश में जाकर, धन कमाकर यदि फिर भी यहां आयगा तब मैं तुम्हारा सच्चा धर्म का प्रभाव मानंगा, अन्यथा नहीं। इसतरह राजा की बातें सुनकर मंत्री विचार करने लगा-पहले यह राजा महा पाप-विश्वासी था फिर भी जैसा का तैसा हो गया। पहले तो बहुत परिश्रम से परीक्षा करके इसे किसी तरह धर्म स्वीकार कराया था। अब, फिर उसीतरह हो गया। खेद है, कि, जिसके जैसे अच्छे या बुरे आदत ( स्वभाव ) हो जाते हैं, वह उस स्वभाव को कभी नहीं छोड़ता-आदत से लाचार हो जाता है। For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् ४६ यतः-- क्यों कि रक्तत्वं · कमलानां, सत्पुरुषाणां परोपकारित्वम् । असतां च निर्दयत्वं, स्वभावसिद्धं त्रिषु त्रितयम् ॥ ७॥ कमलों में लालाई, सत्पुरुषों में दूसरे की भलाई और असज्जनों ( दुष्टों ) में निर्दयपना ये तीनों तीनों में स्वभाव सिद्ध ( स्वतः सिद्ध-अपने आप मौजूद ) हैं ।। ६७ ॥ अपि च और भी काकस्य गात्रं यदि काञ्चनं स्यात् , माणिक्यरत्नं यदि चञ्चु-देशे। एकैकदेशो ग्रथितो मणीभि-स्तथापि काको न तु राजहंसः ॥ १८ ॥ कौए का देह यदि सोना का हो और उसके चोंच में माणिक-रत्न हो, तथा प्रत्येक अंग मणियों से गूंथा हुआ हो, फिर भी कौआ राजहंस कभी नहीं हो सकता ।। ६८ ॥ अरे ! एष दीनोऽधर्मी धर्मगुणं कथं वेत्ति ? धर्मगुणन्तु धर्मी विद्वानेव जानाति । अरे ! यह दीन और पापी राजा धर्म के गुणों को किस तरह जाने ? क्योंकि, धर्म के गुण तो विद्वान् पुण्यात्मा ही जानते हैं - यतः क्कोंकिप्रतिपच्चन्द्रं सुरभि-नकुलो नकुली पयश्च कलहंसः । चित्रक-वल्ली पक्षी, शुद्धं धर्म सुधीर्वेत्ति ॥ ६ ॥ पड़िवा के चन्द्रमा को सुरभि ( पृथिवी ), नकुली को नकुल, और दूध को राजहंस, चित्रक बल्ली को पक्षी और शुद्ध धर्म को बुद्धिमान ही जानते हैं ।। ६६ ।। For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५० श्री कामघट कथानकम एवं मन्त्रिणा विचारितं, तथापि साहसिकेन परोपकारतत्परेण मन्त्रिणा तद्राज्ञोक्तं द्विवारमपि मानितम् | कुतो जगति विना प्रयोजनं यत्परोपकारकरणमिदमेव सर्वोत्तमत्वम् । कहा भी है अकृतज्ञा कृतोपकारिणः www.kobatirth.org इसतरह मंत्रीने विचार तो किया- फिर भी साहसी और परोपकारी होने से राजा का दूसरी बार कहा हुआ भी मान लिया। क्योंकि बिना प्रयोजन के कोई भी प्रवृत्ति नहीं देखी जाती और प्रवृत्तियों में जो प्रवृत्ति परोपकार के रूप में होती है वह सर्व श्रेष्ठ प्रवृत्ति कही जाती है --- उक्तं च असंख्याताः, स्तोकाः, किये हुए उपकार को नहीं जानने वाले बहुत हैं, और किए हुए (उपकार) को जानने वाले गिनती वाले ( कम ) हैं । उपकार करने वाले बहुत कम हैं और अपने से उपकार करने वाले तो दो ही तीन हैं ॥ १०० ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छायामन्यस्य फलन्ति संख्याताः कृत-वेदिनः । द्वित्राः स्वेनोपकारिणः ॥१००॥ वरं करीरो मरु-मार्ग-वर्त्ती, यः पान्थ-सार्थं कुरुते कृथार्थम् । कल्पद्रुमैः किं कनकाचलस्थैः, परोपकार - प्रतिलंभ-दुःस्थैः ॥ १ ॥ च मारवाड़ के रेतीले मार्ग में रहा हुआ वह करीर ( केरड़ी ) का झाड़ अच्छा है जो पथिकों को साधारण (छाया) रूप में भी कृतार्थ करता है, लेकिन सुमेरु पर्वत पर रहे हुए उन कल्पवृक्षों से क्या ? जो परोपकार करने के डर से दूर जाकर ठहरे हुए हैं ॥ १ ॥ कुर्वन्ति, स्वयं तिष्ठन्ति चापे । नात्महेतोर्महाद्रुमाः ॥ २ ॥ परस्यार्थे, बड़े वृक्षों की छाया दूसरे के लिए होती है और स्वयं उसके ऊपर प्रचण्ड गरमी आपड़ती है, और वे बड़े झाड़ दूसरे के लिए ही फलते भी हैं—अपने लिए नहीं - कभी नहीं ॥ २ ॥ पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः, खादन्ति न स्वादु- फलानि वृक्षाः । पयोमुचः किं विलसन्ति शस्यं, परोपकाराय सतां विभूतयः ॥ ३ ॥ For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् ५१ नदियां स्वयं पानी नहीं पीतीं, पेड़ स्वयं फल नहीं खाते, मेघ स्वयं धान नहीं खाते, वास्तव में सजनों ( बड़ों ) की संपत्तियां परोपकार (दूसरे की भलाई ) के लिए ही होती हैं ।। ३ ।। अपि चऔर भीक्षुद्राः सन्ति सहस्रशः स्व-भरण-व्यापार-बद्धादराः, स्वार्थो यस्य परार्थ एव स पुमानेकः सतामग्रणीः । दुष्पूरोदर-पूरणाय पिबति श्रोतःपतिं वाडवो, जीमूतस्तु निदाघ-संभृत-जगत्सन्ताप-विच्छित्तये ॥ ४ ॥ अपने पेट को भरने के लिए हजारों क्षुद्र (नीच-दरिद्र ) हैं किन्तु परमार्थ (परोपकार ) ही जिनका स्वार्थ है ऐसे सज्जनों का आगेवान कोई एक (कम ) ही है। देखिए वाड़वाग्नि अपनी दुःख से भरने योग्य उदरपूर्ति के लिए समुद्र को पीता है, मगर मेघ गर्मी से परिपूर्ण संसार के संताप की निवृत्ति के लिए ही (समुद्र का जल लेता है ) ॥४॥ तदनु स मन्त्री राज्ञे निजगृहं समय विनयसुन्दरीभार्यायुक्तो देशान्तरं चचाल, गच्छन् कियदिवसैः समुद्रतटे गंभीरपुरनाम नगरं प्राप । तन्नगरासन्नवाटिकायां च देवकुलमासीदिति जिनेश्वरदेवनत्यर्थ श्रीवीतरागप्रासादे गतः । तदवसरे तत्रस्थजनमुखातं न श्रुतं यत्सागरदत्तनामा व्यवहारी पूरितयानपात्रो द्वीपान्तरं प्रति गच्छन् लोकेभ्यो बहुलं दानं ददाति । तनिशम्य स मन्त्र्यपि निजसुन्दरीं तत्रैव मुक्त्वा दानग्रहणार्थी समुद्रतटं गतवान् । तत्र तेन दानार्थिजनानां बहुसमुदायो मिलितो दृष्टः । उसके पीछे वह मंत्री राजाको अपना घर समर्पण कर विनय-सुन्दरी नाम की अपनी स्त्री से युक्त होकर दूसरे देश को चला। जाते हुए कुछ दिनों में समुद्र के किनारे गंभीरपुर नाम का नगर मिला। उस ननर के समीप बगीची में एक देव-मन्दिर था, यह जानकर जिनेश्वर देव की वन्दना के लिए भगवान् वीतराग के मन्दिर में गया। उस समय उसने वहां रहे हुए लोगों के मुंह से सुना कि सागरदत्त नाम का व्यापारी जहाज भर कर दूसरे द्वीप में जाता हुआ लोगों को बहुत दान देता है। यह सुनकर वह मंत्री भी अपनी स्त्री को वहीं छोड़कर दान लेने की इच्छा वाला समुद्र के किनारे गया। वहां उसने याचक लोगों की जमघट देखी। For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम . यतःक्योंकिवयोवृद्धास्तपोवृद्धाः, ये च वृद्धा बहु-श्रुताः । सर्वे ते धन-वृद्धानां, द्वारे तिष्ठन्ति किंकराः ॥ ५ ॥ जो उमर में बूढ़े हैं, तपस्या में बूढ़े हैं और शास्त्रज्ञ में बूढ़े हैं वे सब धन में बूढ़े ( महाधनी ) लोगों के द्वार पर किंकर होकर रहते हैं ॥५॥ अपि चऔर भीयस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः, स पण्डितः स श्रुतवान् गुणज्ञः । स एव वक्ता स च दर्शनीयः, सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ते ॥ ६॥ जिसके पास धन है, वही आदमी कुलीन (खानदानी) है। वही (धन वाला ही) पण्डित है, वही शास्त्रवेत्ता है, वही गुणी है, वही वक्ता है और वही दर्शन करने योग्य है, क्योंकि सारे गुण काञ्चन (धन-दौलत ) के ही सहारा लेते हैं ।। ६ ।। इतो मन्त्रिणा सर्वलोकेभ्यो द्रव्यादानानन्तरं वाहने समारूढः सागरदत्तो व्यवहारी दृष्टः । तेन सोऽपि दानाय जलमध्ये कियद् दूरं गत्वा वाहने समारुह्य तस्य श्रष्टिनः पार्चे दानं याचितवान् । व्यवहारिणापि तद्धर्मप्रभावेण तस्मै यथेष्टं दानं दत्त, मन्त्रिणापि शीघ्रमेव गृहीतम् । इधर मंत्रीने सब लोगों को द्रव्य दान देने के बाद सवारी पर चढ़ा हुआ सागरदत्त नाम के व्यापारी को देखा। इससे वह मंत्री दान के लिए जल के बीच में कुछ दूर जाकर सवारी पर चढ़ कर उस सेठ के पास दान मांगा। उस व्यापारी सेठने भी उसके धर्म के प्रभाव से उसको पूरा दान दिया, मंत्रीने भी शीघ्र ले लिया For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम यत: क्योंकिदाणं मग्गण-दव्वं, भांडं लंचा-सुभासियं वयणं । जं सहसा न य गहियं, तं पच्छा दुल्लहं होइ ॥ ७॥ ( संस्कृत छाया) दानं मार्गण-द्रव्यं भाण्डं लाश्चा सुभाषितं वचनम् । यत् सहसा न गृहीतं तत् पश्चात् दुर्लभं भवति ॥ दान, ढूंढ़ा हुआ द्रव्य, वर्तन, घृश, सुभाषित वचन जो जल्दी ग्रहण न किया जाए तो वह पीछे दुर्लभ हो जाता है ।। ७॥ एवं दानं गृहीत्वा मन्त्रो यावत्पश्चादागन्तुमिच्छति तावत्सुवायुना प्रेरितः पोतोऽसाय समुद्रमध्ये दूरं गतः । तेन पश्चात्तटे समागन्तुं समर्थो न बभूव, प्रवहणमध्ये एव स्थितः। अथ सागरदत्त न व्यवहारिणा मिथः कथाप्रसंगेन सं मन्त्री सकलकलाकलापकुशलो ज्ञातः। ततस्तेन श्रष्टिना मन्त्री पृष्टस्त्वं लेखलिखनादिकं किमपि वेत्सि ? तेनोक्तं सम्यग् वेनि । हे श्रेष्ठिन् ! द्वासप्ततिकलाकुशलत्वन्त्वास्तां परं धर्मकलाज्ञानं विना भगवन्नामस्मरणं विना च सर्वमपि निरर्थकमेव । इस तरह दान लेकर जबतक मंत्री पीछे आना चाहता है तबतक वायु की झोंक से जहाज जल्द ही समुद्र के बीच में दूर चला गया। इसलिए वह पीछे लौटने में समर्थ नहीं हो सका, जहाज में ही बैठा रहा। अब सागरदत्त व्यापारीने परस्पर बातचीत से उस मंत्री को सारी कलाओं में प्रवीण समझा | तब उस सेठने मंत्री को पूछा-कि-तुम लेख लिखना आदि कुछ जानते हो ? मंत्रीने कहा-अच्छी तरह जानता हूं। हे सेठ, बहत्तरकला की कुशलता की बात तो छोड़ो, परन्तु धर्म कला के ज्ञान के बिना और भगवान के नाम स्मरण बिना सभी व्यर्थ हैं। यतः क्योंकि For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् वावत्तरिकलाकुसला, पंडियपुरिसा अपंडिया चेव । सव्वकलाणं पवरा, जे धम्मकलं न जाणंति ॥८॥ (संस्कृत छाया-) द्वासप्तति-कला कुशलाः पण्डित-पुरुषा अपण्डिताश्चैव । सर्व-कलानां प्रवराः ये धर्मकलां न जानन्ति ॥ ८॥ . बहत्तर कलाओं में चतुर, सब कलाओं में प्रवीण पण्डित पुरुष भी यदि धर्मकला को नहीं जानते हैं तो वे अपण्डित (मूर्ख) ही हैं ।। ८ ।। अपि चऔर भीसीखेहो अलेख लेख कविता गीतनाद- छन्द, ज्योतिषके सीखे रहते मगरूरमें । सीखेहो सौदागिरी सराफी बजाजी लाख, रुपियनके फेरफार बहेजात पूरमें ॥ सीखेहो जंत्र मंत्र तंत्र बातां भातां बहु ज, जगत कहत जाको हाजर हजूर ! में । कहे मुणि 'राजेन्द्रसरि' जिननाम बोलवो, नहीं सीख्यो ताको सब सीख्यो गयो धूरमें ॥ ६ ॥ एवं धर्मसम्बन्धीनि वचनान्यकर्ण्य महाहर्षेण व्यवहारिणोक्तम्-तहि त्वं मम न्यापारसम्बंधि लेखादिकम कुरु, तेनापि तदंगीकृतं, ततो व्यवहारिणाऽपि स लेखादिकार्ये स्थापितः। एवं स तत्र सुखेन कालं गमयति स्म । इसतरह धर्म की बातें सुनकर खुश होकर व्यापारीने कहा-तो तुम मेरा व्यापार संबन्धी लिखने आदि का काम करो-मंत्रीने भी मंजूर कर लिया। फिर सेठने भी मंत्री को लिखने आदि के कार्य में नियुक्त कर दिया, इसतरह वह मंत्री सुख से समय बिताने लगा। For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम अथ मन्त्रिणा देवकुले मुक्ता या स्वपत्नी विनयसुन्दरी सा निजभत प्रवासगमनकालादारभ्य तत्रैवासीना तदागमनमार्ग प्रपश्यन्त्येवं विचारयति स्म-अहो ! केन हेतुना मे स्वामी मामेकाकिनी मुक्त्वाऽधुनावधि नो समायातः। लोके ये खगा अपि वने स्वजीविकार्थमगच्छन् , तेऽपि कृत्वोदरपूर्ति स्वेनैव मनसा स्वस्वस्थाने प्रत्यायान्ति, पुनमें पतिस्तु दानार्थ गतोऽधुनापि न समायातः । अतो रे हृदय ! यदि त्वं स्वामिनि सम्पूर्णतया निजप्रेम रक्षसि तर्हि तद्विरहे कथं विनाशं नाधिगच्छसि ? पतिसमीपावस्थानमेव पतिव्रतानां पतिव्रतात्वं, अन्यथा तासां विनाश एव नंव लोके कुत्रापि शोभा च । अब मंत्रीने जो अपनी स्त्री विनय सुन्दरी देवकुल में छोड़ रखी थी वह (विनय सुन्दरी) अपने पति ( मंत्री ) के परदेश जाने के समय से लेकर तबतक वहीं बैठी हुई उसके आने की बाट को जोहती हुई इसतरह विचारने लगी-हाय, किस कारण, मेरे पति मुझे अकेली छोड़कर अभीतक नहीं आये ! संसार में जो पक्षी भी अपनी जीविका के लिए बन में जाते हैं, वे भी अपना पेट भर कर अपने ही अपने अपने स्थान पर आजाते हैं, फिर पति तो दान के लिए गए अभीतक भी नहीं आए। इसलिए रे मन, यदि तुम अपने पति में पूरी तरह अपना प्रेम रखते हो तो उसके वियोग में क्यों नहीं विनाश हो जाते ? क्योंकि पतिव्रताओं का पातिव्रत धर्म पति के पास रहने में ही है, अन्यथा उनका विनाश ही है और लोक में कहीं भी शोभा नहीं है। यतः क्योंकिराजा कुलवधूविप्रा, नियोगी मन्त्रिणस्तथा । स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते, दन्ताः केशा नखा नराः ॥१०॥ राजा, अच्छे कुल की स्त्री, ब्राह्मण, नियोग करने वाला और मंत्री तथा दांत, केश, नाखून और आदमी अपने स्थान से हटाए गए शोभा नहीं पाते हैं ॥ १० ॥ पुनश्चित्त ! तद्विरहे स्वस्थेन त्वया कथमहं लज्जावती क्रिये ? एतेन तु व्याघ्री समागत्य यदि मां भक्षयेत्तदा वरं, एतदेवानुपमेयमौषधं मदःखहरणाय भवतु । एवं विविधरीत्या पौनःपुन्येन स्वकर्मणो दोषानिष्कास्य तदैकाकिन्येव सा वराकी निजाज्ञानवशेन पूर्वदुष्कृतकर्माणि निनिन्द । For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् पुनर्विलापपूर्वकं रोख्यते स्म | हन्त ! पूर्वस्मिन् भवे मया महान्ति कोटिशः कल्मषाण्युपार्जितानि येन मद्विल्लभो मामेवं पथ्येव विहाय गतः। अथाहं निर्माथा क्व गच्छानि ? अस्मिन् क्षणे परमस्नेहवन्तो गोवत्सा अपि स्तन्यपानं विधातुं स्वमातरं प्राप्ताः । प्रतिगृहं प्रज्वलच्छिखा दोपमालिकाच प्रज्वलिताः। रात्रिंचराश्चोन्मत्ताः सन्तो नर्तितं लग्नाः। विरहिजनविरहार्तिवर्द्धनश्चन्द्रोऽप्युदियाय । पुनस्तेन विरहिण्योऽतीव दुःखिताः समजायन्त । अथाहमनाथा किं कुर्या चक्रवाकीव गाढतरदुःखधारिण्यहमभूवम् । एवमनेकधा विलप्य सा तत्रैव वाटिकायां भगमनजं दुःखं सस्मार । अपि चाहो ! क मे पितरौ क्व चाहं ?, मया यत्र यत्र दृग्विन्यस्यते तत्र सर्वत्र पत्यभाव एव विलोक्यते । हा प्राणनाथ १ प्रतिक्षणं ते मुखाब्जाकृतिस्मरणं कुर्वत्या मेऽक्षिणी जीमूतो जलधारामिवाश्रुधारां मुंचतः । हे पतिदेव ! त्वां विना कोऽरण्यसमानायामस्यां वाटिकायां मद्य सायं स्थानं दास्यति । अन्यच्च कथमहं स्वशीलवतं रक्षयिष्यामि ? किं बहु निगदामि किमनुतिष्ठामि ? हे पतिदेव ! त्वदभावेऽहं सर्वतो दिङमूढा निश्शोभा गतविचारा च जाताऽस्मि । सैवंविधं नानाविलाप परिदेवनं चिरं विधायोत्थाय च दृशावितस्ततः परिभ्रम्यावलोकयति स्म । ततः कुत्रापि स्वाम्यभिज्ञानमलभमानातीवोदासोना सती तत उदस्थात् । निजेशं विलोकयन्ती वाटिकोपकण्ठे कुलालमेकमद्राक्षीत् । अथ तत्समीपं गत्वेयं सुवाला मृदया सम्बन्धसूचिकया दीनया गिरा तमगादीत्—हे बान्धव ! यदि त्वं मां स्वसारमिवांगीकुर्यास्तह्य हमन्यदेशनिवासिनी स्वदुःखपूर्णां विज्ञप्ति श्रावयेयम् । फिर, रे मन, उस पति के विरह में चैन से रहे हुए तुम मुझे क्यों लजाते हो ? इससे तो अच्छा होता कि बाधिन आकर मुझे खालेती, यही बेजोड़ दवा मेरी इलाज के लिए हो। इसतरह अनेक प्रकार से बार बार अपने कर्म के दोषों को निकाल (कह ) कर उस समय अकेली ही वह बेचारी अपनी बेसमझी से पहले ( पूर्व जन्म में ) किए हुए कर्मों की निन्दा की। फिर बोल बोल कर खूब रोने लगी-हाय, पूर्व जन्म में मैंने करोड़ों बड़े पाप किए हैं, जिससे मेरे पति मुझे इसीतरह रास्ता में ही छोड़कर चले गए। अब मैं पति के बिना कहां जाऊं ? इस समय पूरे प्रेम वाले गायों के बछड़े भी दृध पीने के लिए अपनी मां के पास गए। हर एक मकान में दीपों की कतारें जलने लगी। रात्रिचर (रात में चलने वाले राक्षस आदि) पागल होकर नाचने लगे। वियोगिनियों के विरह-पीड़ा को बढ़ाने वाला चन्द्रमा भी उग गया और उस ( चन्द्रोदय ) से विरहिणी स्त्रियां अधिक दुःखित होने लगी। अब, मैं अनाथा (पति के बिना ) क्या करूँ ? चक्रवाकी ( चकली) की तरह मैं बहुत दुःख की भारवाली हो गई हूं। इसतरह For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् अनेक प्रकार से विलाप कर वह उसी बगीची में पति के चले जाने के दुःख को स्मरण करने लगी। और भी हाय, मेरे माता पिता कहाँ ? और मैं कहां ? मैं जहां जहां नजर डालती हूं, वहां सभी जगह पति का अभाव ही देखती हूं। हा प्राणनाथ, हर समय तुम्हारे मुख-कमल को याद करती हुई मेरी आंखें मेघ रूप होकर जल धारा की तरह अस की धारा छोड रही हैं। हे पतिदेव, तेरे बिना समान इस बगीची में मुझे सायंकाल में स्थान देगा ? । और दूसरी बात यह कि तुम्हारे बिना मैं अपना शीलव्रत की रक्षा कैसे करूंगी ? बहुत क्या कहूं, क्या करूं ? हे पतिदेव, तुम्हारे बिना मुझे चारों तरफ कुछ भी नहीं दिखाई देता ? मैं बिना शोभा वाली और बिना विचार वाली हो गई हूं। वह इसतरह अनेक प्रकार खूब चिल्ला चिल्ला कर रो कर और उठकर आखें इधर उधर घुमाकर देखने लगी। फिर कहीं भी पति को अपनी ओर नहीं आते देख अत्यन्त उदासीन होती हुई वहां से उठ चली । अपना पति को ढूंढ़ती हुई बगीची के नजदीक एक कुम्हार को देखा, फिर उसके पास जाकर वह नव युवती पहचान कराने वाली दीनताभरी कोमल वाणी से उसको कहने लगी-हे भाई, तुम मुझे अपनी बहन की तरह मानो तो दूसरे देश की रहने वाली मैं तुम्हें कुछ अपनी दुखभरी बात सुनाऊँ। अथ दयालुरतिसज्जनः कुम्भकारोऽपि दयां विधाय प्रत्यवोचत्-हे स्वसः ! यत्स्वदुःखं भवेत्तनिवेदय, मया त्वं स्वसृत्वेनांगीकृताऽसि । तनिशम्य सा पाह-हे भ्रातर्महानुभाव ! शृण, मामत्रस्थां मुक्त्वा मे पतिः क्वापि दानग्रहणाय गतोऽस्ति, स चाधुनापर्यन्तं मत्समीपे नो समागतः, तस्य बहुवेला न्यतिगता। अथाहं निर्माथा क्व गच्छामीति विचार्य, अन्यत्र कुत्राप्याधारभूतं त्वत्समानमन्यजनमलभमाना त्वदन्तिके समागमम् । हे प्रिय बान्धव ! अतःपरं त्वमेव ममाधारभूतः शरणभूतश्चासि नान्यः कोऽपि । अथ हे करुणासागर ! ममोपर्यनुग्रहं विधाय मामाज्ञापय यदहं पत्यागमनावधि त्वद्गृहे निवासं कुर्याम् । अनन्तर दयालु, अत्यन्त सज्जन कुंभकार (कुम्हार ) भी दया करके बोला-हे बहिन, जो तुम्हारा दुःख है, वह अच्छी तरह कहो, मैंने तुझे अपनी बहन स्वीकार कर लिया। यह सुनकर वह बोलने लगी-- हे मान्यवर भाई, सुनो-मेरा पति मुझे यहां छोड़कर कहीं दान लेने के लिए गया हुआ है और वह अभीतक मेरे पास नहीं आया, उसको बहुत देर हो गई। अब, मैं पति के बिना कहां जाऊं ? यह विचार कर, कहीं दूसरी जगह तुम्हारे समान किसी दूसरे व्यक्ति को सहारा नहीं पाती हुई तुम्हारे समीप आई हूं। हे प्यारे भाई, अब इसके आगे तुम ही मेरा सहारा हो और रक्षक हो, दूसरा कोई भी नहीं। हे दया सागर ! अब, मेरे ऊपर दया करके मुझे आज्ञा दो कि मैं अपने पति के आने तक तुम्हारे घर में रहूं। एवंविधानि स दुःखालापितानि विनयसुन्दरी-वचनान्याकर्ण्य दयार्द्रचेतसा परोपकारिणा For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८ श्री कामघट कथानकम् तेन तस्याः पुण्यशीलमाहात्म्येन स्वभगिनीत्वेनांगीकृत्य सम्यक् प्रकारेणाऽऽश्वास्य च स्वगृह एव सा रक्षिता। ततः शीलशृङ्गारशोभिता सा तत्र कुलाल-समनि सतीत्वपवित्रगुणगणवती शील तरक्षाहेतोः सुनियमान् धारयामास । तानाह- भर्तमिलनावधि मया भूमौ शयनीयं, शोभार्थ स्नानं न करणीयं, सुन्दरवस्त्राणि त्याज्यानि, पुष्पांगरागविलेपनं त्याज्यं, ताम्बुललवंगलाजातिफलादीनि नास्वाद्यानि वै, शरीरमलमपि विभूषार्थ नापनेयं, सर्वहरितशाकानि त्याज्यानि, पुनदधिदुग्धपक्कानगुडखंडशर्करापायसप्रभृति सरसमाहारं न भोक्ष्ये, किन्तु नीरस एवाहारो मया ग्राह्यः, सदैकभुक्तमेव कार्य, महत्कार्य विना गृहाद् वहिर्न निर्गन्तव्यं, गवाक्षेषु न स्थातव्यं, लोकानां विवाहाद्यपि न वीक्षणीयं, सखोभिः सहापि नालापपुरुषस्त्री-शृङ्गारहास्यविलासनेपथ्यादिका विकथा नैव कार्या, वैराग्यकथैव परिकथनीया परिवर्तनीया च । कर्मकरादिभिः सहाप्यालापसंलापादिकं विशेषतो न कार्य, तर्हि अन्यपुरुषैः सह तु दूरे एव, किं बहुना चित्रस्था अपि पुरुषा नावलोकनीयाः। ___ इसतरह दुःखों से भरी विनयसुन्दरी की बातों को सुनकर दया से पिघला हुआ चित्त वाला परोपकारी उस कुंभारने उसके पुण्य-शील के प्रभाव से अपनी बहन की तरह मान कर और अच्छी तरह तोष-भरोस • देकर अपने घर में ही उसे रखा। उसके बाद शील रूपी आभूषणों से शोभती हुई वह उस कुंभार के घर में सती-धर्म के पवित्र गुणों को धारण करने वाली अपना शीलव्रत की रक्षा के लिए अच्छे नियमों को धारण करने लगी। उसके नियमों को बतलाते हैं-पति के मिलने तक मैं भूमि पर ही सोऊंगी, शोभा के (शृङ्गार के ) लिए स्नान नहीं करूंगी, लहरदार कपड़े नहीं पहनूंगी, फूलों और चन्दन-केसर कस्तूरी आदि को अंग में नहीं लगाऊंगी, पान, लौंग, इलायची और जायफल आदि नहीं खाउंगी, शरीर के मैल भी शोभा बढ़ाने के लिए नहीं हटाऊंगी, सभी हरे ताजे शाक छोड़ दूंगी और दही, दूध, मिठाई-पूड़ी, गुड़, मिसरी, चीनी और खीर आदि नहीं खाऊंगी, बल्कि बिना रस का ही भोजन करूंगी, हमेशा एक ही समय भोजन करूंगी, बहुत जरूरी काम के बिना घर से बाहर नहीं निकलूंगी। झरोखों पर नहीं बैठेंगी। लोगों के विवाह आदि भी नहीं देखूगी, सखी-सहेलियों के साथ भी हंसी-दिल्लगी की बात, पुरुष-स्त्री के शृङ्गार, हंसी-मजाक, विलास और नेपथ्य की बुरी (कामजगाने वाली ) बातें नहीं करूंगी। वैराग्य की कथा ही अच्छी तरह कहूंगी और वैराग्य पालूंगी। नौकर चाकर से भी विशेष हब-गब नहीं करूंगी फिर दूसरे पुरुषों की बात तो दूर रही। अधिक क्या ? चित्र में रहे हुए पुरुषों को भी नहीं देखूगी। यतःक्योंकि For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् लज्जा दया दमो धैर्य, पुरुषालाप-वर्जनम् । एकाकित्व-परित्यागो, नारीणां शील-रक्षणम् ॥ ११ ॥ लज्जा, दया, इन्द्रियों की रोक-थाम, धैर्य धारण करना, अन्य पुरुष के साथ विशेष बातचीत को त्याग देना, अकेलीपन का त्याग ये स्त्रियों के शील रक्षक होते हैं ।। ११॥ एवं कुर्वती तत्र कुलालगृहे सुखेन निवसति स्म । इतः स मन्त्री तेन व्यवहारिणा सह सुखेन रत्नद्वीपं गतः । तत्र सुरपुरनाम नगरं पुरन्दराभिधश्च राजा राज्य शास्ति स्म । अथ तेन व्यवहारिणा स्वप्रवहणेभ्यः सर्वक्रयाणकान्युत्तार्य वक्षरेषु निक्षिप्तानि। तेषां क्रयविक्रयादिः सर्वो व्यवसायस्तेन श्रेष्ठिना मन्त्रिणे समर्पितः, तेन स मन्त्री तत्र सर्वव्यवसायं करोति स्म । सागरदत्तो न्यवहारी तु नगरान्तः स्थितः गणिकायामासक्तोऽजनि, तस्या गृहे स सागरदत्तो व्यवहारी तस्यां मुग्धमनाः निरन्तरन्तया सार्द्धमभिनवान् भोगाननुबभूव । अतः सूर्यस्योदयास्तावपि न जानाति स्म । शास्त्रेऽप्युक्तं यैर्निजशीलरत्न विलुप्तं तैर्धनादिजन्मसमस्तं हारितम् । इसतरह करती हुई वह उस कुंभार के घर में सुख से रहने लगी। इधर वह मंत्री उस सेठ के साथ सुख से रत्नद्वीप में गया। वहां सुरपुर नाम का नगर था और पुरंदर नाम का राजा राज्य करता था। अब उसने अपनी नाव ( जहाज ) से सभी वस्तुओं को उतार कर बखारों में डाल दिया। उन वस्तुओं के खरीदने और बेचने का सब हक्क उसने मंत्री को सौंप दिया। इसलिए वह मंत्री वहां सब व्यापार करने लगा और सागरदत्त सेठ उस नगर में रहने वाली वेश्या में आसक्त हो गया। वह सागरदत्त सेठ उत वेश्या के घर में रहता हुआ उस (वेश्या) में मोहित होकर हमेशा उसके साथ नये नये भोग-विलासों का अनुभव करने लगा, इसलिए, सूर्य का उगना और डूबना भी नहीं जानता था। शास्त्र में भी कहा है कि-जिसने अपना शील (ब्रह्मचर्य, सदाचार ) रूपी रत्न को गमा दिया उसने धन आदि सारा जीवन, हार चुका। यतः क्योंकि दत्तस्तेन श्चारित्रस्य जगत्यकीर्ति-पटहो गोत्र जलांजलिर्गुणगणारामस्य मषी-कूर्चक दावानलः । For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६० www.kobatirth.org संकेतः सकलापदां शिवपुर-द्वारे शीलं येन निजं विलुप्तमखिलं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कपाटो दृढः, त्रैलोक्य - चिन्तामणिः ॥ १२ ॥ यतः - श्री कामघट कथानकम जिसने तीनों लोक में चिन्तामणि समान अपना शील खो दिया उसने संसार में अपयश के ढ़िढ़ोरे पिटवा दिए, अपने वंश में कालिमा लगाई, चरित्र धर्म की जलांजलि दे दी, गुणों के समुदाय रूपी उद्यान में आग लगा दी, सारे विपत्तियों को ( अपने पास आने के लिए) इशारा कर दिया और मोक्ष रूपी नगर के दरवाजे पर मजबूत किवाड़ लगा दिया अर्थात् अपना सर्वस्व खो चुका ॥ १२ ॥ पुनस्तेन कुशीलेनापध्यानमत्ति विपत्तिं च परस्त्रीलम्पटा जना दिने दिने लभन्ते, तांश्च परदारवेश्यादिभोगिनो निन्दितनरास्तथा ये दुर्जनाः पिशुनाः छलान्वेषिणश्च ते प्रतिपदं निगृह्णन्ति । राजादिलो का दण्डयन्ति स्वजनादयश्चापि निभर्त्सयन्ति । और उस खराब आचरण से पर स्त्री में लम्पट लोग खराब ध्यान, विपत्ति और शारीरिक दुःख दिन दिन पाते हैं और उन परस्त्रीगामी तथा वेश्यागामी जनों को क्षुद्र व्यक्ति तथा दुर्जन, चुगल खोर और दोष ढूढ़ने वाले बात बात में दण्ड करते हैं । क्योंकि कलिः कलंकः परलोकदुःखं, यशश्च्युतिर्धर्म-धनस्य हानिः । हास्यास्पदत्वं स्वजनैर्विरोधो, भवन्ति दुःखानि कुशीलभाजाम् ॥ १३ ॥ झगड़ा, बदनामी, परलोक में दुःख अपयश, धन और धर्म की हानि, लोगों में हँसी, अपने भाइयों से वैर - विरोध, ये दुःख कुशील बालों (बद चलन- परस्त्री गामी, वेश्यागामी) को होते हैं ।। १३ ।। अथ स श्रेष्ठी विषयमोहितस्तस्यै गणिकायै प्रसादभूतं मुद्रालक्षं ददौ । स च यानि २ कार्याणि गणिका समाज्ञापयति स्म तानि सर्वाणि तत्क्षणमेवातिहर्षेण विदधे । कुललज्जामर्यादा-दीनगणयित्वा यथा मद्यपाः परवशदेहा भवन्ति तथा सोऽपि विषयमदान्धो बभूव । For Private And Personal Use Only इसके बाद उस सेठने विषय में मोहित होकर उस वेश्या को खुश होकर लाख रुपये दिये । और जिस जिस कार्य को वेश्या हुक्म देती थी सेठजी उन कामों को फौरन ( उसी समय ) ही बड़े आनन्द से Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री कामघट कथानकम् ६१ कर डालते थे । जैसे शराब पीने वाला कुल की लाज और मर्यादा ( इज्जत ) आदि को नहीं गिन कर अपने देह की सूध भी ( भूल ) जाता है उती तरह वह सेठ भी विषय रूपी मद से अंधा हो गया । यतः क्योंकि प्रभुत्वमविवेकिता । यौवनं एकैकमप्यनर्थाय किं पुनस्तच्चतुष्टयम् ॥ १४ ॥ जबानी, धन-दौलत, प्रभुता और बेवकूफी, ये एक एक भी दुनियां में बरबाद करने वाले हैं, फिर जहां ये चारों इकट्ठे हों वहां क्या कहना ? ॥ १४ ॥ पूर्व महर्षिभिर्विद्वद्वर्यैरपि स्त्रीदेहमुद्दिश्य धर्मशास्त्रे नीतिशास्त्रेऽपि च सर्वेषां बन्धनरूपं भणितमस्ति । जैसे : धन-सम्पत्तिः, प्राचीन महर्षियों और विद्वानों ने भी स्त्री देह ( कामिनी ) को लक्ष्य में लाकर धर्मशास्त्र और नीति शास्त्र में भी सब के लिए बन्धन रूप कहा है यथा- www.kobatirth.org संसारे हयविहिणा, वज्यंति जत्थ मुद्धा, ( संस्कृत छाया ) महिलारूवेण जाणमाणा 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मंडियं अजाणमाणा पासं । For Private And Personal Use Only वि ॥ १५ ॥ संसारे हस- विधिना महिला-रूपेण मण्डितः पाशः । asयंते यत्र मुग्धा ज्ञायमाना अज्ञायमाना अपि ।। १५ ।। बदतमीज ब्रह्माने या बदनसीबीने इस संसार में कामिनी रूप पाश (जाल) को फैला दिया जिस जाल में मोह को प्राप्त हुए व्यक्ति जानते हुए और नहीं जानते हुए भी बँध ( फँस ) जाते हैं ।। १५ ।। नोट- ध्यान रहे कि दूरदर्शी ऋषियों, मुनियों, ज्ञानियों और पूर्राचार्याने मदमाती, मर्यादाहीना कामिनी को ही महिला रूप पाश कहा है, नकि धर्मपरायणा पतिव्रता सच्चरित्रा सती - शिरोमणि सीता, सावित्री आदि आदर्श नारी को, बल्कि इन भारतीय आदर्श-ललनाओं के समान पतिव्रता सच्चरित्राओं को तो उन्होंने मानव के ऐहिक पारलौकिक सुख प्राप्ति में परिपूर्ण सहायिका मानी है। विशेष जिज्ञासा की संतृप्ति के लिए, हमारी "सोता का पति-प्रेम” नामक पुस्तक देखें। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६२ मदिराया कुरुते www.kobatirth.org गुणज्येष्ठा, महिला दृष्टमात्रापि, शराब से गुण में बड़ी ( शराब की बड़ी बहिन ) कामिनी दोनों लोक में विरोध कराने वाली है, क्योंकि, मदमाती सुन्दरी देखने मात्र से ही लोगों को प्रायः पागल बना देती है ।। १६ ।। कहा भी है अपि च और भी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लोक- द्वय - विरोधिनी । ग्रथिलं " जे मुनि ज्ञान निधान, मृगनैनी विधु-मुख निरखि । विकल होत हरियान, नारि विश्व माया प्रगट " ॥ श्री कामघट कथानकम् "बुधि-बल- शील- सत्य सच मीना वंशी सम तिय कहहिं प्रवीना " जनम् ॥ १६ ॥ सम-रस- रभसावेग-गाहे गभीर तावद्धीरोऽतिवीरः स्तावद्ध ढोऽसौ श्रुति- मुख-गदिते पंडितोऽप्यत्र तावत् । तावल्लज्जा सपर्या मनन-निपुणता योग वासिष्ट - निष्ठा, यावत्सस्मेर - नारी - नयन- तट-गतापांगभल्ली न लग्ना ॥ १७ ॥ मानव तबतक संग्राम में हर्ष के साथ तेजी से धीर और वीर ( बहादुर ) रहता है, धर्म में तबतक पक्का और गहरा विचार वाला रहता है और शास्त्रों में कहे गए बातों में पण्डित भी तभीतक रहता है, तभीतक लाज, पूजा पाठ, ज्ञान-ध्यान में कुशल रहता है तथा योग वासिष्ठ ( योग शास्त्र ) में निष्ठा (आस्था) वाला रहता है, जबतक मुस्कराती हुई मदमाती सुन्दरियों के चंचल आखों के कटाक्ष रूपी भाले ( चंचल चितवन तिरछी नजरें ) उसको नहीं लगते ।। १७ ॥ कहा भी है For Private And Personal Use Only एवं स श्रेष्ठी विषयासक्तत्वाद्वहु धनव्ययं कुर्वन् वारांगनागृहे तिष्ठति स्म । अथैकदा सा वारांगना मनस्येवं विचिन्तयामास - यद्यस्य वणिजो मुनीमाख्यो यो धर्मबुद्धिनामा सर्वव्यापारा Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६३ श्री कामघट कथानकम धिकारी वर्तते स यदि केनचिदप्युपायेनास्माकं गृहे समागच्छेत्तर्हि स मुख्यत्वान्मे बहुधनं दत्त्वा सम्यक सन्तोषयेद् नृलस्नेहत्वादिति विचित्य तन्मनश्चालनाय सा षोडशभृङ्गारान् व्यधात् । इसतरह वह सेठ विषय में फंसा हुआ बहुत धन बरबाद करता हुआ वेश्या के घर में रहता था । अनन्तर एक समय वह वेश्या अपने मन में ऐसा विचार करने लगी- कि - यदि इस सेठ का मुनीम धर्मबुद्धि नाम का जो सभी व्यापारों का अधिकारी (मालिक) है वह किसी उपाय से मेरे घर पर आता तो वह मुखिया ( व्यापार का प्रधान ) होने से मुझे बहुत धन देकर नया स्नेह होने के कारण अच्छी तरह संतुष्ट करता, यह विचार कर उस मंत्री ( मुनीम ) के मन को चलायमान करने ( लुभाने ) के लिए वह वेश्या सोलह शृङ्गारों को सजने लगी यथा- जैसे : आदौ मज्जन- चारु- चीर-तिलकं नासा - मौक्तिक हार - पुष्प-निकरं अंगे चन्दनचर्चितं कुच-मणिः ताम्बूलं कर-कंकणं चतुरता नेत्रांजनं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'कुण्डलं, कारवन्नूपुरम् | घंटिका, षोडश ॥ १८ ॥ क्षुद्रावली शृङ्गारकाः प्रथम अच्छी तरह स्नान करना, फिर उत्तम कपड़ा पहनना, तिलक ( कपाल में बिन्दी ) करना, आखों में काजल करना, कानों में कुण्डल पहनना, नाक में नासामणि ( बुलकी ) धारण करना, गले में हार, माथा के जूड़े ( केस बन्ध ) पर फूलों के गुच्छे लगाना, पैरों में नूपुर ( पांवजेब - पायल ) पहनना, अंग में चन्दन का लेप करना, कुचमणि ( स्तनों को ऊंचे-खड़े रखने का वस्तुविशेष-या वस्त्र विशेष- चूचकस ) धारण करना, करधनी धारण करना, घंटिका- कमर कस धारण करना, पान खाना, हाथों में कंगन पहनना और बोलने में चतुराई- निपुणता ( कोमल-मीठी मुस्कुराहट के साथ बोलना ) ये सोलह शृङ्गार कामिनियों के हैं ॥ १८ ॥ एभिः शोभनशृङ्गारैः स्वदेहं साक्षात्स्वर्वेश्येव विधाय कपटनाट्यैकपटुः कट्या सिंह, वेण्या शेषनागं, मुखेन मृगांक, गत्या गजं, अक्ष्णा मृगीं, स्वसुन्दररूपेण रतिञ्च पराजयमाना, परितः कटाक्षवाणान् विक्षिपन्ती, भ्रमरावलीसमालका भ्रूधरा कामुकजनप्राणान् कामवाणेन विध्यन्ती स्वर्णरेखाशोभितदन्तावलिका कृतवक्रम्मुखी करशाखायां परिहितमुद्रिकां मुहुर्मुहुः प्रपश्यन्ती, For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम शिरोवेण्यां ग्रीवायां पंचवर्णपुष्पमालाधरा च साक्षात्कल्पलतेव शोभमाना धनकुचकुम्भभारैरानम्रीभृतहृदया चलन्ती प्रतिपदं स्नेहं प्रकाशयन्ती गंभीरनाभिका कृशोदरी नपुरं रणत्काररवं वादयन्ती पिकीव प्रियभाषिणी जितेन्द्रियाणामनेकसाहसिकानाञ्चापि सत्वभंजिका, एवंप्रकारा सा गणिका भूत्वा मन्त्रिणोऽग्रे समाजगाम । चागत्य वेणीकचानुत्कचयन्ती मुखेनोच्छ्वसन्ती आलस्यभरेणांगं मोटयन्ती कंचुकीबन्धनं च शिथिलीकुर्वती अनेकहावभावविभ्रमादिविलासान् कुर्वाणा स्ववशानयनाय स्वात्मानं मन्त्रिणं दर्शयामास । ___ इन सोलह सुन्दर शृङ्गारों से अपने देह को साक्षात् स्वर्ग की आसरा की तरह बनाकर छल-कपट रूपी नाट्य में पण्डिता वह वेश्या-अपनी कमर से सिंह को, चोटी से शेष नाग को, मुख से चन्द्रमा को, चाल से हाथी को, आखों से हरिणी को और अपने मनोहर रूप से रति को भी पराजय करती हुई, चारों ओर चंचल तिरछी नजर रूप बाणों को फेकती हुई, भौंरों के समान अलका ( माथे पर बालों की लटें) को धारण करने वाली, धनुष के समान भौंह वाली कामुक जनों के प्राणों को कामबाण से बींधती हुई, सुवर्ण की रेखा से शोभित दाँतों वाली टेढ़ा मुंह करके अंगुलियों में पेन्ही हुई अंगूठी को बार बार निहारती हुई, मस्तक की वेणी (चोटी) और गले में पांच वर्षों के पुष्पों की माला को धारण करने वाली साक्षात् कल्पलता की तरह शोभती हुई, घड़े के समान विशाल स्तनों की भार से झुके हुए हृदय वाली, चलती हुई पग पग में प्रेम को प्रगट करती हुई, गहरी नाभि वाली, पतली कमर वाली, नूपुर ( पायल ) को रन-रनाती (झन-झनाती ) हुई कोयल की तरह मीठे स्वर वाली जितेन्द्रियों और साहसियों के भी पराक्रम को चकनाचूर कर देने वाली, इसतरह का रूप धारण कर वह वेश्या मंत्री के सामने आगई और आकर चोटी को खोलती हुई, मुख से हांफती हुई आलस के भार से अंगों को मरोड़ती हुई, नमस्तीन (जाकिट ) की गांठ (बटन ) को ढीली करती हुई, अनेक तरह के हाव, भाव, विभ्रम और विलास को करती हुई अपना वश में लाने के लिए अपनी आत्मा ( अपना स्वरूप ) को मंत्री को दिखलाने लगी। तथाहिजैसे :हावो मुख-विकारः स्याद् , भावश्चित्त-समुद्भवः । विलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो भ्रू-समुद्भवः ॥ १६ ॥ मुख के विकार-चेष्टा “हाव" कहे जाते हैं, चित्त (हृदय, मन) के विकार "भाव" कहे जाते हैं, नेत्र के विकार "विलास" कहे जाते हैं और भौंह के विकार ( चेष्टा ) "विभ्रम" कहे जाते हैं ।। १६ ।। For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम अथ नृत्यपूर्वकं हावभावादिविषयासक्तं युवकगणं कुर्वती तां गणिकां प्रति सद्गुणसमुद्रो मन्त्री जगाद-अये विरूपभाषाभाषिणि ! कथमेवं प्रलपसि ? त्वं केनाहूतासि ? उन्मत्तेव वारम्वारं किमर्थमसमंजसं भाषसे ? हे दुष्टालापिनि ! त्वमत्र मा किमपि वद, नाहं त्वया साकं समागमिप्यामि, नैव च कदापि त्वां सेविष्ये । फिर नाच करती हुई हाव-भाव आदि से युवक जनों को विषय में आसक्त करती हुई उस वेश्या के प्रति अच्छे गुणों का समुद्र मंत्री बोला -अरी, खराब बात बोलने वाली, तुम इसतरह क्यों बकती हो ? तुम्हें किसने बुलाया है ? तुम पगली की तरह बार बार क्यों अनुचित बोल रही हो ? हे विषैले आखों वाली, हे दुष्ट-आलाप करने वाली, तुम यहां कुछ भी मत बोलो, मैं तेरे साथ नहीं आसकूँगा, न कुछ भी कहूंगा और कभी भी तुम्हें नहीं सेदूंगा। यतःक्योंकिकश्चुम्बति कुल-पुरुषः, वेश्याधर-पल्लवं मनोज्ञमपि । चार-भट-चौर-चेटक - नट-विट-निष्ठीवन-शरावम् ॥ २०॥ कौन कुलीन पुरुष सुन्दर भी वेश्या के अधर-पल्लव ( होठ ) को चुम्बन करता है ? अर्यात् कोई नहीं, कारण कि वेश्या का होठ-नौकर-चाकर, भांट-भिखार, चोर-डाकू नट और जारों के थूक का प्याला हे ।।२०।। या विचित्र-विट-कोटि-निघृष्टा, मद्य-मांस-निरतातिनिकृष्टा । कोमला वचसि चेतसि दुष्टा, तां भजन्ति गणिकां न विशिष्टाः ॥ २१ ॥ जो रंग-बिरंग के करोड़ों जारों द्वारा बार बार भोगी गई और शराब तथा मांस खाने वाली अत्यन्त अपवित्र है तथा वाणी में कोमलता और मन में क्रूरता से भरी है, ऐसी उस वेश्या को विशिष्ट ( अच्छे, भले ) व्यक्ति कभी नहीं सेवते ।। २१ ॥ अपि चऔर भीजात्यन्धाय च दुर्मुखाय च जरा-जीर्णाखिलांगाय च, ग्रामीणाय च दुष्कुलाय च गलत्कुष्ठाभिभूताय च । m For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम यच्छन्तीषु मनोहरं निज-वपुर्लक्ष्मी-लव-श्रद्धया, पण्यस्त्रीषु विवेक-कल्प-लतिका-शस्त्रीषु को रज्यते ? ॥ २२ ॥ जो वेश्याएं थोड़ी सो लक्ष्मी (पैसे) के लिए जन्म के अंधे ( पुरुष ) को, कुरूप को, बुढ़ापे से शिथिल (ढीले ) अंग वालों को, गमारों को, नीचों (दलित वर्गों) को और गलित कुष्ठ वालों को अपने सुन्दर शरीर को न्यौछावर करती हैं, उन विवेक रूपी कल्पलता के काटने वाली हँसुआ समान वेश्याओं में कौन (विचारशील ) राग (प्रेम ) करता है ? अर्थात् कोई भी नहीं ।। २२ ।। अथ मे सम्मुखमपि मा पश्य, कथं मद्गृहे विनादेशं समागता ? पुनर्हेगणिके ! मद्वाक्यं शृणु-यदि त्वं केवलस्वर्णमयी भवेस्तथाऽप्यहं त्वां नाभिलषामि, नानुरक्तो भवामि, नास्ति साप्तधातुकेऽस्मिन् ते देहे मे भोगरुचिः, एषा तनुर्दर्गन्धपूर्णा चर्ममण्डिता सद्बुधैर्निन्दिता दशभिः छिट्टैरहर्निशं मलवाहिनी सर्वतोऽशुच्यागारभूता। एवंभूतां तनुं पुरीषाभिलाषुको एवांगीकुर्युनान्ये । अतोऽहं ते विग्रहं मनसापि नाभिलष्यामि, तर्हि कायेन किम् ? पुनर्या स्त्री मद्यपा इवोन्मत्ताऽस्मिन् लोकेऽकार्यक: विलोक्यते सा दर्शनमात्रेणैव सर्वमैहिकं पारत्रिकं च पुण्यं विनाशयति । यत्स्वभाषितं तदपि न सत्यापयतीति सा कथं विश्वासार्हा ? अनेनैव कारणेन महानर्थमूला स्त्रीतनुरिति ज्ञात्वा ज्ञानिनो लोकाः परदारसंगं त्यजन्ति । कुतो विषयाब्धिनिमग्नैः सद्भिरेकवारमपि यत्परदारगमनं विधीयते, तर्हि तैरेकविंशतिवारं सप्तमनरकदुःखमनुभूयत एव । अब, मेरे सामने भी मत देखो, बिना आज्ञा के मेरे घर में क्यों आगई ? फिर हे वारांगने, मेरी बात सुनो-यदि तुम निखालिश सोने की हो जाओ, फिर भी मैं तुम्हें नहीं चाहूंगा और न प्रेम करूंगा, सात धातुओं से बने हुए तुम्हारे इस देह में मेरी भोग की इच्छा नहीं है। यह शरीर दुर्गन्धमय है, चाम से ढका हुआ है, ज्ञानियों ने इसकी निन्दा को है। दश छिद्रों से निरन्तर मल निकलते रहते हैं, सब तरह से यह अपवित्र का भण्डार है। इसतरह के अपवित्र शरीर में पुरीष (पाखाना-टट्टी) की चाहना करने वाले ही अनुराग करते हैं, दूसरे नहीं। इसलिए मैं तुम्हारे शरीर को मन से भी इच्छा नहीं करता हूं, फिर शरीर से क्या ? फिर जो स्त्री शराबी की तरह मतवाली होकर कुकर्म करती हुई दीखती है वह देखने मात्र से ही इस लोक के और परलोक के सारे पुण्य को विनाश कर डालती है। जो अपने आप कहती है उसे भी सत्य करके नहीं दिखलाती वह ( वेश्या ) कैसे विश्वास के योग्य हो सकती है ? इसी कारण से “भारी खतरे को जड़ कामिनी का शरीर है" यह जानकर ज्ञानी लोग दूसरी स्त्री के संग (सहावास ) को छोड़ देते हैं। क्योंकि, विषय रूपी समुद्र में डूबे हुए सज्जनों द्वारा एकबार भी जो पराई For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् ६७ स्त्री के साथ व्याभिचार किया जाता है, उसका परिणाम स्वरूप उन्हें एकीस बार सातवां नरक का दुःख भोगना ही पड़ता है। यदुक्तंकहा भी हैतस्माद्धर्मार्थिभिस्त्याज्यं, परदारोपसेवनम् । नयन्ति परदारास्तु, नरकानेकांवशांतम् ॥ २३ ॥ इस लिए धर्म की इच्छा वालों को पराई स्त्री के साथ मैथुन (व्यभिचार ) छोड़ देना चाहिए, क्योंकि, पराई स्त्री के साथ मैथुन एक्कीस बार कठोर नरक में ले जाता है ।। २३ ।। तथा च युधिष्ठिरं प्रति भीष्मः--- और इसीतरह महाभारत में धर्मराज युधिष्ठिर के प्रति पितामह भीष्म का उपदेश है : नहीदृशमनायुष्यं लोके किञ्चन विद्यते । यथा हि पुरुषव्याघ्र ! परदारोपसेवनम् ॥ हे नर शार्दूल ! दूसरे की स्त्री के साथ मैथुन ( व्यभिचार ) जिस तरह शीघ्र आयुष्य को नष्ट कर डालता है, उस तरह आयु को नष्ट करने वाला इस संसार में कोई भी कुकर्म नहीं है ।। अपि चऔर भीभक्खणे देव-दव्वस्स, परथी-गमणेण य । सत्तमं नरयं इंति, सत्तवाराओ गोयमा ! ॥ २४ ॥ (संस्कृत छाया) भक्षणे देवद्रव्यस्य परस्त्री गमनेन च । सप्तमं नरकं यान्ति सप्तवारं हि गौतम ! ॥ २४ ॥ भगवान महावीर कहते हैं कि हे गौतम, देवद्रव्य के हड़पने में और पर स्त्री के साथ मैथुन करने से सातवां नरक में सात बार जाना पड़ता है ।। २४ ।। For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ૨૮ श्री कामघट कथानकम पुनरपि तद्दोषेणात्र लोक एव तैः क्लीवत्वं कुरोगित्वमिन्द्रियहीनत्वं च लभ्यते । तेषां नामापि न कोऽपि गृह्णाति, एवं ते दुःशीलिनो निंद्याः दौर्भाग्यशालिनश्च जायन्ते । अतएव हे वारांगने ! न कदाऽप्यहं त्वय्यनुरक्तो भविष्यामि । एवंविधं मन्त्रिवाक्यचातुर्यमाकर्ण्य तयाऽन्ते ज्ञातम् - मम कलाकौशलमस्य शीलभ्रष्टकरणे न प्रभवति । इति विमृश्य ततोऽपसृत्य च यथाऽऽगता तथैव सा स्वस्थानं त्वरितं परावर्तिष्ट । एवं परिवर्जितकुसंगस्य तस्य मन्त्रिणस्तस्मिन् सकलेऽपि नगरे शीलमहिम सुप्रसिद्धिर्जाता । यदुक्तं च www.kobatirth.org फिर भी उस परस्त्री के साथ व्यभिचार के पाप से इसी लोक में ही वे व्यभिचारी नपुंसक हो जाते हैं, खराब रोगों से ग्रसित होते हैं और उनकी इन्द्रियां भी नष्ट-भ्रष्ट ( निकम्मी ) हो जाती हैं । व्यभिचारियों का नाम भी कोई नहीं लेता, इसतरह वे कुकर्मी, निंदाके योग्य और बदनसीब ( अभागे ) हो जाते हैं । इसलिए, हे बाजार की जोरू ! मैं कभी भी तुम में अनुराग वाला नहीं हो सकूंगा । इसतरह मंत्री की वाक् चतुरता को सुनकर उस वेश्याने अन्त में समझा कि मेरी कलाकुशलता इसके शील (ब्रह्मचर्य ) भ्रष्ट करने में समर्थ नहीं हो सकती है। ऐसा विचार कर और वहां से निकल कर जैसे आई थी उसी तरह वह अपने घर को शीघ्र लौट गई। इसतरह बुरे संग को छोड़ देने वाले उस मंत्री के उस सारे नगर में शील (सदाचार-ब्रह्मचर्य ) की महिमा की प्रसिद्धि हो गई । कहा है सीलं सीलं उत्तम - वित्तं, दोहग्ग-हरं, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सीलं जीवाण मंगलं सीलं परमं । कुलभवणं ॥ २५ ॥ सुक्खाण शीलं उत्तम - वित्तं शीलं जीवानां परमं मंगलम् । शीलं दुर्गतिहरं शीलं सुखानां कुल-भवनम् ॥ २५ ॥ शील उत्तम धन है, शील प्राणियों का परम मंगल है, शील दुःख नाशक है, शील सुखों का खजाना है ।। २५ ।। For Private And Personal Use Only सुविसुद्ध - सील-जुत्तो, , पावइ कित्तिं जसं च इहलोए । सव्व जण वल्लहो सुह-गइ-भागी अ च्चिय, परलोए ॥ २६ ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री कामघट कथानकम www.kobatirth.org सुविशुद्ध-शीलयुक्तः प्राोति कीर्ति यशश्च इहलोके । सर्व-जन-वल्लभश्चैव शुभ-गति-भागी च परलोके ॥ २६ ॥ अखण्ड ब्रह्मचारी इस लोक में यश प्रतिष्ठा और कीर्त्ति को प्राप्त करता है और सब का प्रिय होकर परलोक में मोक्ष का भागी होता है ।। २६ ॥ देव-दानव-गंधव्वा, बंभयारिं दुक्करं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जक्खरक्खस जे नमसंति, यक्ष - राक्षस- किन्नराः । देव-दानव - गंधर्वा ब्रह्मचारिणं नमस्यंति दुष्करं यत् कुर्वन्ति तत् ॥ २७ ॥ - किन्नरा ! कति तं ॥ २७ ॥ जिस लिए, ब्रह्मचारी अत्यन्त दुष्कर ( कठिन ) ब्रह्मचर्य व्रत ( तपस्या ) करते हैं, इस लिए ब्रह्मचारी को देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर ( देवयोनि के लोग ) भी बन्दना करते हैं ॥। २७ ॥ अपि च और भी वह्निस्तस्य जलायते जलनिधिः कुल्यायते तत्क्षणात्, मेरुः स्वल्पशिलायते मृगपतिः सद्यः कुरंगा | व्यालो विष - रसः शीलं ६६ माल्यगणायते स्यांगेऽखिल-लोक-वल्लभ-तमं समुन्मीलति ॥ २८ ॥ जिस व्यक्ति के शरीर में समस्त लोक का अत्यन्त प्रिय शील ( ब्रह्मचर्य ) चमकता है, उसके ( ब्रह्मचर्य के ) प्रताप से अग्नि जल के जैसी हो जाती है, समुद्र एक छोटी क्यारी का जैसा, मेरु पर्वत छोटी शिला की तरह, शेर हरिण की तरह, सर्प माला की तरह और विष अमृत की तरह हो जाता है ।। २८ ॥ For Private And Personal Use Only पीयूष वर्षायते अथैकदा राज्ञा तन्नगरे तटाकं खानयितुं प्रारब्धम् । ततः कियद्दवसैर्लिखितताम्रपत्राणि निःसृतानि, जनैश्च राज्ञे समर्पितानि । राज्ञापि तत्र लिखितलेखपरिवाचनाय तानि पण्डितेभ्यः समर्पितानि, किन्तु तत्र लिप्यन्तरसद्भावात्कोऽपि तामि चाचयितुं न शक्नोति स्म । तदा कौतुकप्रियेण राज्ञा पटहो वादितो यथा - यः कोऽप्यमून्यक्षराणि वाचयिष्यति तस्य राजा स्वीयकन्यामर्द्धराज्यं च दास्यतीति वाद्यमानः पटहः क्रमेण मन्त्रिगृहसमीपमागतस्तदा मन्त्रिणा स Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानक फ्टहः स्पृष्टः। ततोऽमात्येन नृपसभायां गत्वा तानि ताम्रपत्राणि वाचितानि यथा—यत्रैतानि पत्राणि निःसृतानि, ततः पूर्वस्यां दिशि दशहस्तमितं गत्वा.कटिप्रमाणं पृथिवीखनने सति तत्रैका महती शिला समेण्यति, तस्या अधश्च दीनाराणां दशलक्षाणि सन्ति, तन्निशम्य सर्वेषां चमत्कारोऽभूत् । कौतुकालोकोत्कण्ठितमानसेन राज्ञोक्तं तर्हि संप्रत्येव तत्र गत्वा विलोक्यते, ततः सर्वजनपरिवृतो राजा तत्र गतः। ताम्रपत्रोक्तविधिश्च तेन कारितः, दशलक्षाणि सुवर्णानां निःसृतानिः, सर्वेषां महान् हर्षों जातो, राज्ञापि मन्त्रिणः प्रशंसा कृता, यदहो ! कीदृशं ज्ञानस्य माहात्म्यमिति । बाद में एक समय राजा ने उस नगर में तालाब खुदवाना शुरु किया, फिर कुछ दिनों में वहां ताम्र पत्र का लेख निकला। मजदूरों ने राजा को वह लेख दे दिया। राजाने भी उस लेख ( ताम्र पत्र लिपि ) को पढ़ने के लिए पण्डितों को दिया। किन्तु उस ताम्र पत्र में दूसरी लिपि ( अक्षर ) के होने से कोई भी उसे नहीं पढ़ सका। तब कौतुक प्रिय ( उस लेख से दिलचस्पी लेने वाला ) राजाने ढिढोरा पिटवायाकि-जो कोई भी इन अक्षरों को पढ़ लेगा, उस व्यक्ति को राजा अपनी लड़की और अपना आधा राज्य देगा, इसतरह बजता हुआ ढोल (ढिढ़ोरा) मंत्रो के घर के पास आया तब मंत्रीने उस ढोल को स्पर्श कर दिया। फिर मंत्रीने राजा की सभा में जाकर उन ताम्र पत्र के अक्षरों को पढ़ा, जैसे"जहां ये ताम्र-पत्र निकले हैं उस से दश हाथ पूरब कमर के बराबर भूमि को खोदने पर वहां एक बड़ी शिला मिलेगी और उस शिला के नीचे दश लाख सोना-मोहर है" यह सुनकर सब के सब आश्चर्य युक्त हुए। इस आश्चर्य को देखने के लिए उत्कण्ठित मन वाला राजाने कहा--तो अभी वहां चलकर देखा जाय, फिर सभी लोगों के साथ राजा वहां गया। और ताम्र पत्र में कही हुई विधि ( क्रिया खोदना ) भी कर वाई । दश लाख सुवर्ण के मोहर निकले, सबों को बड़ा हर्ष हुआ। राजाने भी मंत्री की प्रशंसा की कि-अरे, ज्ञान का माहात्म्य कैसा है ।। यदुक्तंकहा भी हैविद्वत्त्वञ्च नृपत्वं च, नैव तुल्यं कदाचन । खदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥ २६ ॥ पण्डिताई और राजापन कभी भी समान नहीं है, क्योंकि, राजा अपना देश में ही पूजा जाता है और विद्वान् सभी जगह पूजे जाते हैं अर्थात् राजा से पण्डित का पलड़ा भारी है ।। २६ ।। For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री कामघट कथानकम् www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रूप-यौवन-सम्पन्ना, विद्याहीना न शोभन्ते, अच्छे कुल में उत्पन्न, सौन्दर्य जौर युवा अवस्था से युक्त भी व्यक्ति विद्या से हीन उस तरह नहीं शोभा पाते हैं जैसे किंशुक ( ढाक - पलास ) के फूल खूबसूरत होने पर भी गन्ध रहित होने से शोभा नहीं. पाते ॥ ३० ॥ विशाल-कुल- सम्भवाः । निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥ ३० ॥ वरं दरिद्रोऽपि विचक्षणो नरो, नैवार्थयुक्तोऽपि सुशास्त्र-वर्जितः । विचक्षणः कार्पटिकोऽपि शोभते, न चापि मूर्खः कनकैरलंकृतः ॥ ३१ ॥ ७१ बुद्धिमान् दरिद्र भी अच्छा, लेकिन मूर्ख धनी भी अच्छा नहीं, क्योंकि, चतुर कार्पटिक भी शोभा पाता है परन्तु सुवर्ण से अलंकृत भी मूर्ख नहीं शोभता ।। ३१ ।। अपि च और भी विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं, विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः । विद्या बन्धु-जनो विदेश गमने विद्या परं दैवतं, विद्या राजसु पूजिता नहि धनं विद्या विहीनः पशुः ॥ ३२ ॥ For Private And Personal Use Only विद्या, मनुष्य का बहुत बड़ा रूप है, सुरक्षित गुप्त धन है, विद्या भोग (सुख) देती है और यश-कीर्ति फैलाती है, विद्या गुरुओं का भी गुरु है। परदेश में विद्या सगे-संबन्धियों के समान हो जाती है, विद्या सब से बड़ी देवता है, विद्या राजाओं में पूजी जाती है धन नहीं, विद्या से हीन मनुष्य ( विना सींग पूंछ का ) पशु है ।। ३२ ।। हर्त्तुर्याति न गोचरं किमपि शं पुष्णाति सर्वात्मना, ह्यर्थिभ्यः प्रतिपाद्यमानमनिशं वृद्धिं परां गच्छति । कल्पान्तेष्वपि न प्रयाति निधनं विद्याख्यमन्तर्धनं, येषां तान्प्रति मानमुज्झत जनाः कस्तैः सह स्पर्धते ॥ ३३ ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ७२ श्री कामघट कथानक विद्या को कोई चुरा नहीं सकता और सभी तरह विद्या कोई भी कल्याण करती है, विद्या ( रूपी धन) याचकों (छात्रों ) को देने से प्रति दिन बढ़ती ही है, कल्पान्त ( सर्व नष्ट ) में भी विद्या नष्ट नहीं होती, विद्या अन्दर का धन है, अतः हे लोगो, जिन के पास विद्या है उनसे मान को त्याग दो, क्योंकि उनके साथ कौन स्पर्धा - ( चढ़ा उतरी- प्रतियोगिता ) कर सकता है ॥ ३३ ॥ किञ्च— और भी पण्डितेषु गुणाः तस्मान्मूर्खसहस्रपु, प्राज्ञो पण्डितों में प्रायः सभी गुण रहते हैं और मूर्खों में केवल अवगुण रहते हैं, इसलिए हजारों मूर्खो से एक पण्डित अच्छा है ॥ ३४ ॥ www.kobatirth.org यतः - क्योंकि सर्वे, पूगीफलानि स्थानभ्रष्टाः अथ तत्कौशल्यचमत्कृतेन राज्ञा तस्मै मन्त्रिणे सौभाग्यसुन्दर्यभिधानं स्वकन्यारत्नं निजं चार्द्धराज्यं दत्तम् । तथैवाने कहयगजरत्नमणिमाणिक्य स्वर्णादिभृतानि द्वात्रिंशत्प्रवहणान्यर्पितानि ! कुत एतानि वस्तूनि यत्र गच्छन्ति तत्र शोभामेव प्राप्नुवन्ति । हैं ।। ३५ ।। अनन्तर उसकी चतुरता से आश्चर्य से आनन्दित होकर राजाने उस मंत्री को अपनी सौभाग्य सुन्दरी नाम की कन्या और आधा राज्य दे दिया, उसी तरह अनेक घोड़े हाथी, सोने-जवाहिरात से भरे बत्तीस जहाज दिए । क्योंकि, ए चीजें जहां जाती हैं वहां शोभा कोही प्राप्त होती हैं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूर्खे पत्राणि, दोषास्तु केवलाः । विशिष्यते ॥ ३४ ॥ एको राजहंसास्तुरंगमाः । सत्पुरुषा गजाः ॥ ३५ ॥ सुशोभन्ते, सिंहाः सुपारी, पत्ते, राजहंस, घोड़े, सिंह, सत्पुरुष और हाथी ये दूसरी जगह अधिक शोभा पाते अथैवंविधां तस्य समृद्धिं दृष्ट्वा स सागरदत्तश्रेष्ठी निजहृदि प्रज्वलितुं लग्नः | ततः स श्रेष्ठी निजशेषक्रयाणकानि विक्रीय तत्रस्थैर्नानाविधैरपरैः क्रयाणकैः प्रवहणान्यापूर्य पश्चान्मन For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री कामघट कथानकम् मन्त्रिधनस्त्रीयॆया ज्वलन् स्वदेशीयत्वात्केनचिजनेन मन्त्रिणमाकारयामास। यदा मन्त्रिणापि निजश्वशुराय राज्ञे प्रोक्तं यदहं यास्यामि स्वदेशं, तदा पुना राज्ञाऽप्यर्द्धराज्यमूल्यप्रमाणानि स्वर्णमाणिक्यादिरत्ने त्वा यष्टौ प्रवहणानि तस्य समर्पितानि । ततः समुद्रतटं यावद्राजा तं प्रेषयितं समायातः, तत्र राज्ञा स्वसुता सुष्ठुशिक्षया शिक्षिता, तद्यथा-हे सुते ! मदीयस्य जामातुश्च कुलस्य येन प्रकारेण शोभा भवेत्तनैव प्रकारेण त्वया श्वश्रुश्वशुरयोज्येष्ठतत्पन्योश्च सुविनयः करणीयः। भर्जुरुक्त्यनुसारेणेव समस्तं कार्यञ्च कर्त्तव्यं, अनुचरवर्गातिथिप्रभृतीनां यथायोग्यमादरसम्मानौ च विधातव्यौ, सपल्या साकं स्वभगिनीतोऽप्यधिकतरप्रेम्णा वर्तितन्यं, किमहं बहुपदिशामि ! तत्राखिलं शुभमेव विरचनीयमित्यादिकाः सुशिक्षाः सुतायै प्रदाय जामातरं च सम्यक् स्नेहेन संभाष्य संप्रेष्य च नृपः स्वस्थानमाजगाम । ततस्तौ मन्त्रिव्यवहारिणौ समुद्रमध्ये चलितौ । अथ स श्रेष्ठी मन्त्रिणो रनभृतानि प्रवहणानि रूपवती पत्नीं च दृष्ट्वा लोभदशां प्राप्तः सन् चिन्तयति स्म -अस्य मन्त्रिणः पल्यादिसर्वसंपत्तिर्ममैव चेत्स्यात्तर्हि जगति मन्ये स्वजन्म कृतार्थम् । अतिलोभित्वेन तेनैवंविधं दुष्ट-कर्म विचारितम् । ____ अब इस तरह ( मंत्री ) की धन-सम्पत्ति को देखकर सागरदत्त नाम का सेठ अपने मन में जलने लगा। उसके बाद वह सेठ अपना बाकी माल को बेचकर वहां के दूसरे मालों से जहाजों को भर कर पीछे मंत्री के धन-स्त्री की डाह से जलता हुआ स्वदेशीय होने से किसी आदमी के द्वारा मंत्री को बुलावा भेजा। जब, मंत्रीने भी अपना ससुर राजा को कहा कि मैं अपना देश जाऊंगा, तब फिर राजाने भी अपने आधे राज्य के मूल्य बराबर सुवर्ण, रत्न-माणिक्य आदि से आठ जहाज भर कर उस ( मंत्री ) को दिया। फिर समुद्र के किनारेतक राजा उसको भेजने के लिए आया, वहां, राजाने अपनी लड़की को अच्छी शिक्षा दी, जैसे :-हे वत्से, मेरे और मेरे जमाई के कुल की शोभा जिसतरह हो सके उसी तरह तुमको सास और ससुर को, भैसुर और जेठरानी को अच्छी तरह विनय करना और पति के कहे अनुसार ही सारे काम करना, एवं नौकर-चाकर और अतिथि आदिको जहाँतक बन सके आदर और सम्मान करना, सौतिन के साथ अपनी बहिन से भी अधिक प्रेम से व्यवहार रखना, अधिक मैं क्या सिखावन दूं ? वहां हर तरह से अच्छा ही करना, इत्यादि अच्छी सिखावन लड़की को देकर जमाई को भी अच्छी तरह प्रेम से समझा बुझाकर और भेजकर राजा अपना स्थान में लौट आया। तब मंत्री और सेठ समुद्र के बीच में चलने लगे। अब, वह सेठ मंत्री के रत्नों से भरे जहाजों को और सुन्दरी स्त्री को देख कर लोभ दशा को प्राप्त होकर बिचारने लगा-कि-इस मंत्री की स्त्री आदि सारी संपत्ति मेरी ही यदि किसी तरह हो जाय तो मैं संसार में अपना जन्म सफल मानूं। अत्यन्त लोभ में आकर उसने ऐसा दुष्ट कर्म विचार किया। For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम यदुक्तंकहा भी हैकोहो पाइं पणासेइ, माणो विणय-नासणो । माया मित्तिं पणासेइ, लोहो सव्व-विणासणो ॥ ३६ ॥ क्रोधः प्रीतिं प्रणाशयति मानो विनय-नाशनः । माया मैत्री प्रणाशयति लोभः सर्व-विनाशनः ॥ ३६ ॥ क्रोध (गुस्सा ) प्रेम को विनाश कर देता है, मान विनय को नाश कर देता है, माया (कपट-छल) मित्रता को विनाश कर देती है और लोभ सभी कुछ नाश कर डालता है ।। ३६ ।। अपि चऔर भीयददुर्गामटवीमटन्ति विकटं कामन्ति देशान्तरं गाहन्ते गहनं समुद्रमतनु-क्लेशां कृषि कुर्वते । सेवन्ते कृपणं पतिं गज-घटा-संघट्ट-दुःसंचरं सर्पन्ति प्रधनं धनान्धितधियस्तल्लोभ-विस्फूर्जितम् ॥ ३७॥ धन के पीछे अंधे होकर जो ( लोग ) दुर्गम जंगल में भटकते हैं, भयंकर दूर विदेश में जाते हैं, गहरे समुद्र में गोते लगाते हैं, बड़ी कड़ी मेहनत से खेती करते हैं, कंजूस स्वामी की सेवा करते हैं और हाथियों के मुंडों की जमघट ( भीड़) से नहीं चलने लायक जो युद्ध स्थान, उस में भी जो दौड़ते हैं, वह सब लोभ का ही माहात्म्य है ।। ३७॥ पुनरेतादृशैः कुत्सितनरैरचलाप्यशुद्धा भवति तद्वृत्त दृष्टान्तेन दर्शयति । और ऐसे बदनीयत लोगों से धरती भी नापाक हो जाती है, यह बात दृष्टान्त के द्वारा दिखलाते हैं यथा जैसे For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् हस्ते नरकपालं ते, मदिरा-मांस-भक्षिणि!। भानुः पृच्छति मातङ्गीं, किं तोयं दक्षिणे करे ? ॥ ३८ ॥ भानु भंगिन से पूछता है कि हे मदिरा-मांस-खानेवाली मातंगी! तुम्हारे एक हाथ में मनुष्य का मुंड है और दाहिने हाथ में जल क्यों १ ॥३८ ।। साऽऽहवह बोल उठी:मित्र-द्रोही कृतघ्नश्च, स्तेनो विश्वास-घातकः । कदाचिच्चलितो मार्गे, तेनेयं क्षिप्यते छटा ॥ ३६॥ मित्र का द्रोही, किए हुए को न मानने वाला, चोर और विश्वास घाती, कहीं इस रास्ते से चला हो, इस लिए ये छोटे छीटती हूं ।। ३६ ।। तथा चऔर भीपासा वेसा अग्नि जल, ठग ठक्कुर सोनार । ए दस होय न अप्पणा, दुज्जण सप्प विलार ॥ ४० ॥ पासा (जुआ), वेश्या, अमि, जल, ठग, ठाकुर, सोनार, दुर्जन, सांप और बिलाड़ ए दश अपने नहीं होते अर्थात् इनका विश्वास कभी नहीं करना चाहिए ।। ४० ॥ ___अथ कपटेनेनं चेन्मारयामि तदैतत्सर्वमपि मे स्वाधीनं भवेदिति विचार्य तेन मन्त्रिणा सहाधिका प्रीतिमण्डिता। अब, यदि छल करके इस को मारडालूं तो इसका सब कुछ (धन-स्त्री ) मेरे अधीन हो जायगा,, ऐसा विचार कर उस मंत्री के साथ अधिक प्रीति रच डाली यतः क्योंकि ददाति प्रतिगृह्णाति, गुह्यमाख्याति पृच्छति । भुंक्ते भोजयते चैव, षड्विधं प्रीतिलक्षणम् ॥ ४१ ॥ For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम देना और लेना, रहस्य बात कहना और पूछना, एवं खाना और खिलाना यह छः प्रकार का प्रेम का लक्षण है ।। ४१ ॥ तथा च: - और इसी तरहक्षीरेणात्मगतोदकाय हि गुणा दत्ताः पुरा तेऽखिलाः, क्षीरे तापमवेक्ष्य तेन पयसा ह्यात्मा कृशानी हुतः । गन्तुं पावकमुन्मनस्तदभवद् दृष्ट्वा तु मित्रापदं युक्तं तेन जलेन शाम्यति सतां मैत्री पुनस्त्वीदृशी ॥ ४२ ॥ दूध और पानी की मैत्री दिखलाते है : पहले दूधने अपने में रहे जल ( मित्र ) के लिए अपना सब गुण दे डाला, फिर दूध में ताप ( उफानजलन) देख कर उस (मित्र) जलने अपनी आत्मा को अग्नि में हवन कर दिया। फिर अपने मित्र (जल) के संकट (अग्नि में हवन होते ) को देखकर, दूध व्याकुल होकर अग्नि में जाने के लिए तैयार हो गया, फिर उस ( मित्र ) जल से मिलकर दूध शान्त हो गया-नीतिकार कहते हैं कि-सज्जनों की दोस्तीमैत्री ऐसी ( दूध और पानी की जैसी) होनी चाहिए ।। ४२ ।। ___ अथैवं मैत्री दर्शयन्नेकदा तेन सागरदत्तेन मन्त्रिणं प्रति प्रोक्तं-पृथक् पृथक् प्रवहणस्थयोरावयोः का प्रीतिः ? अतस्त्वं मम प्रवहणे समागच्छेति धूर्तश्रेष्ठिवचनरञ्जितः सरलस्वभावो मन्त्री तद्यानपात्रे गतः। तदा सागरदत्त नोक्तम्--यद्यावां वाहनप्रान्ते समुपविश्योल्ललजलधिकल्लोललीलां पश्यावस्तदा वरं, मन्त्रिणाऽपि तदङ्गीकृतम् । यथावसरं प्राप्य लोभाभिभूतेन पापिना तेन सागरदत्त न मन्त्री समुद्रान्तः पातितः। मन्त्रिणा तु पततैव पंचपरमेष्ठिनमस्कारस्मरणानुभावेन फलकं लब्धम् । अब, एकबार इसीतरह मित्रता को दिखलाते हुए उस सागरदत्त सेठने मंत्री के प्रति बोला-अलग अलग जहाजों के रहने से हमारी और आप की मित्रता क्या ? इस लिए, तुम मेरे जहाज पर चले आओ, इसतरह की धूर्त सेठ की. बात से खुश होकर सरल-सीधा (भोला) स्वभाव वाला मंत्री उसके जहाज में चला गया । तब, सागरदत्तने कहा-यदि हम दोनों जहाज के किनारे बैठकर उछलते हुए समुद्र For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम की तरङ्गों की लीला को देखें तो सुन्दर है, मंत्रीने भी इसे स्वीकार कर लिया। अब, अवसर (समयमौका) पाकर लोभ से ग्रसित उस पापी सागरदत्तने मंत्री को समुद्र में गिरा दिया। लेकिन मंत्रीने गिरते ही पंच परमेष्ठी-नमस्कार के स्मरण करने के प्रभाव (माहात्म्य ) से फलक (पट्टी) पकड़ लिया यतःक्योंकिसंग्राम - सागर . करीन्द्र - भुजङ्ग - सिंहदुर्व्याधि - वहि - रिपु . बन्धन . संभवानि । चौर - ग्रह - भ्रम - निशाचर . शाकिनीनां नश्यन्ति पञ्च . परमेष्ठि - पदैर्भयानि ॥ १३॥ लड़ाई, समुद्र, गजराज, सांप, सिंह, महाव्याधि, अग्नि और शत्रु के बन्धन से उत्पन्न भय तथा चोर, ग्रह, भ्रान्ति, राक्षस और शाकिनियों के भय पंच परमेष्ठी पद के स्मरण मात्र से दूर भाग जाते हैं ।। ४३॥ ततोऽनन्तरं सर्वाण्यपि प्रवहणानि त्वग्रतो गतानि । अथ स दुष्टो मायावी सागरदत्तोऽतीवोच्चस्वरेण पूत्कारं कुर्वन् कूटशोकं च विधाय विलपन्त्या राजपुत्र्याः पार्वे समागत्य मायया विलपन् सन्नुवाच हे भद्रे चन्द्रवदने ! स मन्त्री तु भृशं दयादाक्षिण्यौदार्यगांभीर्यादिसद्गुणकलितोऽद्वितीयः परोपकारभारधुर्य उत्तमपुरुषश्चासीत् । अतएव मे मनस्यपि तद्वियोगजं महद्दःखं भवति । अहमपि त्वदग्रे तद्दःख निवेदयितुमशक्योऽस्मि परं भवितव्यता तु पुण्यशालिनां महापुरुषाणामपि नो दूरीभवति । ___ उसके बाद सभी जहाज तो आगे चले गए और वह दुष्ट मायावी सागरदत्त खूब जोर से चिल्लाता हुआ बनावटी शोक रचकर रोती हुई राजपुत्री के पास जाकर कपट करके रोता हुआ बोला-हे चन्द्रमा के समान मुख वाली ! वे मंत्री तो बड़े ही दया-दाक्षिण्य, उदारता, गंभीरता आदि अच्छे गुणों से युक्त थे, अद्वितीय ( बेजोड़-एकही) परोपकारी और उत्तम पुरुष थे। इसलिए, मेरे मन में भी उनके वियोग का दुःख है। मैं भी तुम्हारे सामने उस दुःख को कहने में असमर्थ हूं, लेकिन-होनहार पुण्यात्मा महापुरुषों के भी दूर नहीं होता यतःक्योंकि For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकाम असंभवं हेममृगस्य जन्म, तथाऽपि रामो ललुभे मृगाय । प्रायः समापन्न-विपत्ति-काले, धियोऽपि पुंसां मलिना भवन्ति ॥ ४४ ॥ सोने का हरिण का पैदा होना असम्भव है, फिर भी उस असंभवित सुवर्ण-मृग के लिए रामचन्द्रजी ललचा गए। प्रायः संकटकाल के आने पर मनुष्यों की बुद्धि भी मन्द (निकम्मी ) हो जाती है ॥ ४४ ॥ तथा च और इसीतरहन स प्रकारः कोऽप्यस्ति, येनेयं भवितव्यता । छायेव निज-देहस्य, लंध्यते जातु जन्तुभिः ॥ ४५ ॥ ऐसा कोई भी उपाय नहीं है, जिसके द्वारा यह भवितव्यता (होनहार ) टलाई जा सके, अपनी देह की छाया की तरह यह भक्तिव्यता प्राणियों द्वारा कभी भी नहीं लांघी जा सकती ॥ ४५ ॥ अपि चऔर भीपातालमाविशतु यातु सुरेन्द्र-लोकमारोहतु क्षितिधराधिपतिं सुमेरुम् । मंत्रौषधैः प्रहरणैश्च करोतु रक्षा यद्भावि तद्भवति नात्र विचार-हेतुः ॥ ४६ ॥ प्राणी पाताल में जाए या स्वर्ग में जाए अथवा सुमेरु पर्वत पर चढ़ जाए, मंत्रों-औषधियों और हथियारों द्वारा अपनी रक्षा ( भले ही ) करे, मगर जो होनहार है वह होकर ही रहता है, इसमें तर्कवितर्क की गुंजाइश नहीं। अथ समुद्रपतिते तस्मिन्नमात्ये चिन्ताकरणं तव नोचितं, चिन्तया किमपि हस्ते नैव समायाति तत्करणेन च कर्मबन्धोऽपि भवति । अब, मंत्री के समुद्र में गिरजाने पर उसके विषय में तुम्हारा चिन्ता करना ठीक नहीं, क्योंकि शोक करने से कुछ भी हाथ में नहीं आता और शोक करने से कर्म का बन्धन भी तो होता है। For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम यदुक्तम्कहा भी है - गते शोको न कर्त्तव्यो भविष्यं नैव चिन्तयेत् । वर्तमानेन योगेन वर्तन्ते हि विचक्षणाः ॥४७॥ गए हुए का-बीते हुए का शोक नहीं करना चाहिए, भविष्य की भी चिन्ता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, बुद्धिमान लोग भूत-भविष्य को छोड़कर वर्तमान के अनुसार ही रहते हैं । ४७ ॥ पुनरिमानि सद्गुणान्वितानि वस्तूनि यत्र यत्र गच्छन्ति तत्र तत्रादरमेव लभन्ते, ततस्त्वया कापि चिन्ता न विधेया। फिर ये अच्छे गुणों से युक्त वस्तुएँ जहां जहां जाती हैं वहां वहां आदर ही पाती हैं, इसलिए तुम्हें फोई भी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। यतःक्योंकिशूराश्च कृतविद्याश्च, रूपवत्यश्च याः स्त्रियः । यत्र यत्र हि गच्छन्ति, तत्र तत्र कृतादराः ॥ ४८ ॥ शूर, विद्वान् और रूपवती ( खूब सूरत) स्त्रियां, ये जहां जहां जाते हैं, वहां वहां आदर-सम्मान पाते हैं ।। ४८ ॥ हे सुभगे! तेन यदि त्वं मदुक्तं करिष्यसि तदाहं त्वां निजसर्वकुटुम्बस्वामिनी करिष्यामि। तस्यैवंविधवचनतस्तया चतुरया ज्ञातम्-नूनमनेनैव दुरात्मना लोभाभिभूतत्वेन कामान्धलेन च मम स्वामी समुद्रमध्ये पातितोऽस्ति । हे सुन्दरी, इसलिए यदि तुम मेरे कही बात करोगी तो मैं तुमको अपने सारे परिवार की मलिकाइन बना दूंगा। उसकी इसतरह की बात से उस बुद्धिमतीने जाना-पक्का, इसी दुष्टने लोभ में आकर और काम-वासना में अन्धा होकर मेरे पति को समुद्र में गिरा दिया है। यदुक्तम्कहा भी है For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८० श्री कामघट कथानकम् न पश्यति हि जात्यन्थः क्षुधान्धो नैव पश्यति । न पश्यति मदोन्मत्तो ह्यर्थी दोषं न पश्यति ॥ ४६॥ जन्म का अन्धा नहीं देखता, भूख से अन्धा नहीं देखता, मद से मतवाला नहीं देखता और अर्थी (धनी या याचक) दोष को नहीं देखता है ।। ४६ ।। तथा च-- और इसीतरहदिवा पश्यति नो घूकः काको नक्तं न पश्यति । अपूर्वः कोऽपि कामान्धो दिवानक्त न पश्यति ॥ ५० ॥ दिन में उल्लू नहीं देखता, रात में कौआ नहीं देखता और कोई अजबनिराला काम ( वासना ) में अंधा दिन और रात में नहीं देखता है ।। १० ।। अन्यच्चऔर भीकिमु कुवलय-नेत्राः सन्ति नो नाकि-नार्यस्त्रिदशपतिरहिल्यां.. तापसी यत्सिषेवे । मनसि तृण-कुटीरे दीप्यमाने स्मराग्नावुचितमनुचितं वा वेत्ति कः पण्डितोऽपि ॥ ५१ ॥ क्या कमल के समान सुन्दर आंखें वाली स्वग की सुन्दरियां नहीं थीं ? जो इन्द्रने ऋषिपत्नी ( गौतम की स्त्री ) अहिल्या से व्यभिचार किया-ठीक है कि घास-फूस की कुटिया समान (निर्बल ) मन में काम ( वासना ) रूपी अग्नि के जल उठने पर कोई पण्डित भी अच्छा या बुरा को नहीं पहचानता ॥ ११ ॥ अपि चऔर भी विकलयति कला-कुशलं, तत्वविदं पंडितं विडम्बयति । अपरयति धीर-पुरुष, क्षणेन मकर-ध्वजो देवः ॥ ५२ ॥ For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीकानघट कथानकम उसके बाद अपनी शील-रक्षा के लिए उसने कहा-अभी मुझे शोक है, इसलिए, नगर में जाने के बाद विचार करूंगी, इसतरह की उसकी बात से सागरदत्त सुखी हो गया। इधर सागरदत्त सेठ का जहाज तेज वायु से प्रेरित होकर गम्भीरपुर नगर में पहुंच गया। तबतक सौभाग्य सुन्दरी अपनी शीलरक्षा के लिए जहाज से उतर कर समीप में रहे हुए श्री ऋषभदेव भगवान के मन्दिर में जाकर उनको विधिपूर्वक बन्दना करके और किवाड़ लगाकर रह गई और उसने कहा कि यदि मेरा शील का ( कुछ भी ) माहात्म्य है तो मेरे पति के बिना ( किसी दूसरे से ) ये दोनों कपाट नहीं उघड़े। फिर सागरदत्त भी उसके शील का प्रभाव से उसको वहीं भूल कर अपना घर चला गया। इधर धर्मबुद्धि मंत्रीने "नव-स्मरण" के माहात्म्य से फलक (पट्टी) को पकड़ कर धीरे धीरे समुद्र के किनारे आगया। क्योंकि, 'नवस्मरण" का फल शास्त्र में भी ऐसा ही कहा है यथा :जैसे :जिणाससणस्स सारो, चउदसपुव्वाण जो समुद्धारो । जस्स मणे नमुक्कारो, संसारो तस्स किं कुणइ ? ॥ ५३॥ ( संस्कृत छाया) जिनशासनस्य सारः चतुर्दशपूर्वाणां यः समुद्धारः । यस्य मनसि नमस्कारः संसारः तस्य किं करोति ॥ ५३ ।। पंच परमेष्ठी नमस्कार जिनशासन का सार है, चौदह पूर्वो का समुद्धार है, वह नमस्कार ( मंत्र ) जिसके मन में है, उसको संसार क्या कर सकता है।५३ ।। नमस्कार मंत्र यह है णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहणं। For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ८२ तथा च : www.kobatirth.org ( संस्कृत छाया ) - ॐ नमः अद्द्भ्यः, नमः सिद्धेभ्यः नमः आचार्यभ्यः, नमः उपाध्यायेभ्यः, नमः लोके सर्वसाधुभ्यः । नवकारपरममंतो, ( संस्कृत छाया ) - " अरिहंतों (जिनेश्वरों ) को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो, लोक में सब साधुओं को नमस्कार हो । अन्यच्च : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir और इसीतरह एसो मंगलनिलओ, भवविलओ सव्वसन्तिजणओ य । चिंतिअमत्तो सुहं देइ ॥ ५४ ॥ एष मंगल-निलयो भवविलयः सर्वशान्तिजनकश्च । नवकार - परम - मंत्रः चिन्तितमात्रः सुखं दत्ते ॥ ५४ ॥ श्री कामघट कथानकम् यह महा प्राभाविक नमस्कार परम मंत्र है, मंगल का घर है, संसार से मुक्त कराने वाला है और सभी सुख-शान्ति करने वाला है, तथा स्मरण मात्र से सुख देता है ।। ५४ ॥ और भी : एसो चिन्तामणी अपुव्वो अ । अप्पुव्वो कल्पतरू, जो कायइ सय कालं, सो पावइ सिवसुहं विउलं ॥ ५५ ॥ For Private And Personal Use Only ( संस्कृत छाया ) - अपूर्व: कल्पतरुः एष चिन्तामणिः अपूर्वश्च । यो ध्यायति सर्वकालं स प्राप्नोति शिवसुखं विपुलम् ।। ५५ ।। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् यह नमस्कार मंत्र अपूर्व कल्पवृक्ष है और यह अलौकिक चिन्तामणि है, जो इसको सर्वदा ध्यान करता है, वह परिपूर्ण सुख-शान्ति पाता है ।। ५५ ।। तथा चऔर इसीतरहनवकारिक अक्खरो, पावं फेडेइ सत्त अयराणं । पण्णासं च पएणं, पंचसयाइं समग्गेणं ॥ ५६ ॥ (संस्कृत छाया) - नवकारस्यैकमक्षरं पापं स्फोटयति सप्त सागराणाम् । पञ्चाशच्च पदेन पञ्चशतानि समग्रेण ।। ५६ ॥ नवकार का एक अक्षर सात सागरोपम पापों को नष्ट करता है और उसका एक पद पचास सागरोपम पापों को नष्ट करता है तथा सारा पदापांच सौ सागरोपम पापों को नष्ट करता है।५६ ।। अन्यच्चऔर भीजो गुणइ लक्खमेगं, पूएइ विहिणा य नमुक्कारं । तित्थयरनामगोयं, सो बंधइ नथि संदेहो ॥ ५७ ॥ ( संस्कृत छाया) यो गणयति लक्षमेकं पूजयति च विधिना नमस्कारम् । तीर्थकर-नाम-गोत्रं स बनाति नास्ति सन्देहः ॥ ५७ ॥ जो विधिपूर्वक नमस्कार मंत्र को एक लाख जपता है और पूजता है, वह तीर्थंकर (जिनेश्वर ) के नाम गोत्र को बांधता है अर्थात् तीर्थंकर होता है, इसमें शक ( सन्देह ) नहीं ।। ५७ ।। तथा चऔर भीअट्ठव य अट्ठसया, अट्ठसहस्स च अट्ठकोडीओ। जो गुणइ भत्तिजुत्तो, सो पावइ सासयं ठाणं ॥ ५८ ॥ For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ८४ ( संस्कृत छाया ) - www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम अष्टैव च अष्ट शतानि अष्ट सहस्रं च अष्ट कोटिः । यो गणयति भक्तियुक्तः स प्राप्नोति शाश्वतं स्थानम् ॥ ५८ ॥ जो व्यक्ति भक्तिपूर्वक नमस्कार मंत्र को आठ करोड़, आठ हजार, आठ सौ और आठ बार गिनता ( जपता ) है, वह शाश्वत पद ( कैवल्यपद-मोक्षपद ) को प्राप्त होता है ॥ ५८ ॥ For Private And Personal Use Only अथ सोऽमात्यः समुद्रतटादग्रे भ्रमन्सन् कमनीयतरमेकं नगरं शून्यं दूरतो ददर्श । ततः शनैः शनैर्नगरमध्ये प्रविशन् सोऽनेकमणिमाणिक्यरत्नविद्रुममौक्तिकस्वर्णादि विविधवस्तुऋयाणकापूर्णापणश्रेणीं सतोरणां मन्दिरधोरणीं चालोक्य मनसि वाढं चमच्चकार । साहसेनैकाक्येव नगरमध्ये व्रजन् स राजमन्दिरे सप्तमभूमिकोपरि गतः । तत्र खट्वोपर्येकामुष्ट्रिकां तथैव च तत्र स कृष्णश्वेताञ्जनभृतं कूपिकाद्वयं ददर्श । तद् दृष्ट्वा विस्मितः सन् सकौतुकं श्वेतांजनेनोष्टिकाया नयनेऽञ्जनं चकार, तत्प्रभावाच्च सा दिव्यरूपा मानुषी जज्ञे । तत्क्षणमेव तस्मै तयाऽऽसनं दत्तम्, ततो मन्त्रिणा सा पृष्टा - अयि चन्द्रवदने ! का त्वं १ कथमेवंविधा ते दशा ? किमिदं नगरं ? कुत: कारणाच्च शून्यं वर्तते ? इति श्रुत्वा सा कन्या निजनेत्राभ्यामश्रुपातं कुर्वती प्राह-भो नरपुङ्गव ! त्वमितः शीघ्रं याहि यतोऽत्रैका राक्षसी विद्यते सा यदि द्रक्ष्यति तर्हि त्वां भक्षयिष्यति । तदा मन्त्रिणा पुनरपि पृष्टा - हे सुलोचने ! सा का राक्षसी ? इत्यादि समस्तं वृत्तान्तं त्वं स्पष्टतरं कथय । साऽऽह - हे पुरुषोत्तम ! त्वं शृणु - अस्य नगरस्य स्वामी भीमसेनो राजाऽहं च तत्पुत्री रत्नसुन्दरीनाम्नी स मे पिता तु तापसभक्त आसीत् । एकदा कश्चित्तपस्वी मासोपवासी अस्मिन्नगरे समागतवान्, स च मत्पित्रा भोजनाय निमन्त्रितः, अहं च राज्ञा तस्य परिवेषणायाऽऽदिष्टा। ततः स मद्रूपं दृष्ट्वा चुक्षोभ, रात्रौ च मत्समीपे तस्करवृच्या समागच्छन् स प्राहरिकैर्धृत्वा बद्धः, नातच नृपस्य समर्पितः राज्ञा च स शूल्यामारोपितः, तेनार्त्तध्यान मृत्वा राक्षसी बभूव । तया चेदं नगरमुद्वासितं विधाय पूर्ववैरेण राजापि व्यापादितः, तद् दृष्ट्वा नगर लोकास्सर्वेऽपि भयभ्रान्ताः पलायनं चक्रुरिति नगरं शून्यं जातम् । पूर्वभवमहामोह भावतोऽहं तया एवं रक्षिता, कृष्णाञ्जनेनोष्ट्रीरूपेण स्थापिता, प्रतिदिनं च सा राक्षसी मत्सत्कार शुश्रूषा करणार्थमत्र समागच्छति, अतस्त्वं प्रच्छन्नो भव, यतः सा राक्षसी संप्रत्येव समागमिष्यति । पुनरेकदा -सा राक्षसी मया पृष्टा - हे मातः अहमत्रारण्यसदृशे सौधेऽप्येकाकिनी किं करोमि ? अतस्त्वं मां Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् मारय तर्हि सुठुतरं भवेत् । ततस्तयोक्तम्- यदि योग्यं वरमहं लप्स्ये तदा तस्मै त्वां दास्यामि, हे सत्पुरुष ! पूर्वमहमेवं तया निगदिताऽस्मि । अथ सांप्रतं तदागमनवेलाऽस्ति सा च कदाचिन्मां तुभ्यं दद्यात्तदा त्वयाऽस्या राक्षस्याः पार्खादाकाशगामिनी विद्या, सप्रभावा खट्वा, महाय॑दिव्यरत्नग्रन्थी, सप्रभावे श्वेतरक्तकरवीरकविके चैतानि वस्तूनि मार्गणीयानि करमोचनावसरे, इति तदुक्तसंकेतं गृहीत्वा पुनस्तां कृष्णाञ्जनेनोष्ट्रिकां विधाय मन्त्री प्रच्छन्नः स्थितः । इतश्च मनुष्य भक्षयामीति वदन्ती राक्षसी समागता, तया च श्वेताजनेन सोष्ट्रिका कन्या चक्रे, ततस्तया राक्षस्या साकं वातां कुर्वत्या स्वयोग्यो वरो याचितः। तदा राक्षस्योक्तम्-क्कापि तव योग्यं वरं दृष्ट्वा तस्मै त्वां दास्यामि । अनन्तर वह मंत्री समुद्र के तट से आगे घूमता हुआ एक परम रमणीय नगर को दूर से देखा । फिर धीरे धीरे नगर में प्रवेश करता हुआ वह अनेक मणि, माणिक्य, रत्न, मूंगा, मोती और सुवर्ण आदि अनेक तरह के बिक्री के माल से परिपूर्ण दुकान की कतारों को और चंदोवा सहित मंदिर की कतारों को देखकर मन में अत्यन्त आश्चर्य से युक्त हुआ। साहसी मंत्रीने अकेला ही नगर के बीच में घूमता हुआ राजमन्दिर के सप्तमूमि ऊपर चला गया। वहां, खाट के ऊपर एक ऊंटनी को और उसी तरह वहां वह काला और उजला अंजन (काजल ) से भरी दो कूपिकाओं को देखा। उसको देखकर अचंभे में पड़ा हुआ विनोद के साथ उजला अंजन से ऊँटनी के आखों में अंजन कर दिया। उस अंजन के प्रभाव से वह परम सुन्दरी नारी हो गई। उस समय ही उस सुन्दरीने उस मंत्री को ( बैठने के लिए) आसन दिया। तब मंत्रीने उसको पूछा-हे चन्द्रमा समान मुख वाली, सुन्दरि, तुम कौन हो? किस की लड़की हो ? तुम्हारी ऐसी दशा क्यों है ? यह नगर क्या है ? और किस कारण यह शून्य है ? यह सुनकर वह कन्या अपनी आखों से आंसू बहाती हुई बोली-हे पुरुष श्रेष्ठ ! तुम यहां से शीघ्र चले जाओ, क्योंकि, यहां एक राक्षसी रहती है, वह यदि तुमको देख लेगी तो खा जायगी। तब मंत्रीने फिर पूछाहे सुन्दरी, वह कौन राक्षसी है ? उसके बारे में सारी बातें साफ साफ बतलाओ। वह बोलने लगीहे पुरुषोत्तम, सुनो-इस नगर का स्वामी भीमसेन नाम का राजा था और मैं उसकी लड़की रत्न सुन्दरी नामकी हुई और वह मेरा पिता तापस का भक्त हुआ। एक समय एक मास का उपवास वाला कोई तपस्वी इस नगर में आया। मेरे पिताने उसे भोजन करने के लिए कहा, तब वह मेरा रूप देखकर व्याकुल हो गया और रात में मेरे पास चोर की तरह आते हुए उसको पहरेदारों ने पकड़ कर बांध दिया फिर प्रातः काल में राजा के पास ले गया और राजाने उस (तपस्सी) को शुली (फांसी) पर लटका दिया, उस कारण आर्तध्यान से वह मरकर राक्षसी हो गई और उसने ही इस नगर को उजड़ कर के पूर्व की शत्रुता से राजा को भी मार डाला, यह देखकर नगर के सारे लोग भी डर कर भग गए, इस कारण यह नगर शून्य ( सूनसान ) हो गया। पूर्व जन्म के महा मोह के ( मेरे प्रति ) कारण से मुझे उसने ऐसा रखा है। काला For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम अंजन से ऊँटनी करके रख छोड़ी है और प्रति दिन वह राक्षसी मेरा आदर-सत्कार करने के लिए यहां आती है, इस लिए, तुम छिप जाओ, क्योंकि वह राक्षसी अभी आयगी। फिर एक समय मैंने उस राक्षसी को पूछा-हे मां, मैं बन समान इस महल में भी अकेली क्या करूं ? इसलिए, तुम यदि मुझे मार डालती तो बहुत अच्छा होता। तब उसने कहा-यहि तुम्हारे योग्य बर मिलेगा, तो तुमको उसे दे डालूंगी। हे सत्पुरुष, उसने पहले मुझ से ऐसा कहा है। अब, अभी उसके आने का समय है, और यह शायद मुझे तुझको दे डाले, तो तुम इस राक्षसी के पास से आकाश गामिनी विद्या, प्रभाव वाली खाट, बेशकीमती दिव्य रत्नों की गांठ और प्रभाव वाली उजला-लाल करवीर की कंबिका (चाबुक ) इतनी चीजें कंगन खोलने के समय मांगना। इसतरह उसके कथन के संकेत (इशारा) को ( मन में) रखकर फिर उसको काला अंजन से ऊँटनी बनाकर मंत्री छिपकर बैठ गया। इधर मनुष्य को खाती हूं, ऐसी बोलती हुई वह राक्षसी आ गई और उसने उजला अंजन से ऊँटनी को लड़की बना डाली। फिर उस लड़कीने उस राक्षसी से बातचीत करती हुई अपने योग्य बर ( भावी पति ) की याचना की। तब राक्षसीने कहा-कहीं भी तुम्हारे लायक बर देखकर उसको तुम्हें दे दंगी। __ यदुक्तं-- कहा भी हैमूर्ख-निर्धन-दूरस्थ . - शूर-मोक्षाभिलाषिणाम् । त्रिगुणाधिकवर्षाणां, चापि देया न कन्यका ॥ ५६ ॥ मूर्ख को, दरिद्र को, दूर में रहने वालों को, शूर को, मोक्ष के अभिलाषी को और तीन गुना से अधिक उमर वालों को लड़की नहीं देनी चाहिए ।। ५६ ।। एवं चऔर इसी तरहबधिर-क्लीव-मूकानां, खंजान्ध-जडचेतसाम् । सहसा ' घात-कर्तृणां, नूनं देया न कन्यका ॥ ६० ॥ बहरे को, गूंगे को, नपुंसक को, लंगड़े को, अंधे को और जड़ बुद्धि वाले को और बिना विचारे हिंसक को, लड़की नहीं देनी चाहिए ।। ६० ।। अन्यच्चापिऔर भी For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम कुल - जाति - विहीनानां, पितृ - मातृ - वियोगिनाम् । गेहिनी - पुत्र - युक्तानां, नूनं देया न कन्यका ॥ ६१ ॥ नीच कुल और नीच जाति वालों को, बिना मां-बाप वालों को, स्त्री और पुत्रों से युक्त व्यक्ति को निश्चय करके कन्या नहीं देनी चाहिए ।। ६१ ।। अपरं चऔर भीसदैवोत्पन्न - भोक्तृणा - मालस्य - वश - वर्तिनाम् । बहु - वैराग्य - युक्तानां, नूनं देया न कन्यका ॥ १२ ॥ सदा ही उत्पन्न-भोगी को, आलसी को, अधिक विरागी को हरगिज कन्या नहीं देनी चाहिए ॥६२ ।। अतः सुकुलजात्युत्पन्नसपितृभ्यामुभयलोकशुभेच्छयैतान् गुणान् विलोक्यैव सुता प्रदेया । इसलिए, सुन्दर कुल और जाति से उन्पन्न अच्छे मां-बाप से युक्त दोनों लोक की मंगल ( कल्याण ) कामना से इन (निम्न लिखित ) गुणों को देखकर ही लड़की देनी चाहिए यथाजैसे :कुलं च शीलं च सनाथता च, विद्या च वित्तं च वपुर्वयश्च । वरे गुणाः सप्त विलोकनीया-स्ततःपरं भाग्यवशा हि कन्या ॥ ६३ ॥ __ कुल और आचरण, सनाथता ( माता-पिता-भाई आदि से युक्त), विद्या, धन, शरीर और वय ( उमर ) ये सातों गुण बर में देखना चाहिए-इसके बाद अपना भाग्य से ही लड़की सुख चाली या दुःख वाली होती है ।। ६३ ॥ इति तद्वचो निशम्य कन्यकयोक्तम्-अहं स्वयमेव स्वयोग्यं वरं दर्शयामि, राक्षस्योक्तम्तो धुनेव त्वां तस्मै ददामि। ततः पूर्वसंकेततस्तदैव मन्त्री प्रकटीबभूव, राक्षस्याऽपि तया सह गांधर्व विवाहेन स परिणायितः। करमोचनावसरे च खट्वादिवस्तुचतुष्टयं तेन याचितं, तयाऽपि च तत्सर्व तस्मै समर्पितम् । अथैकदा राक्षसी क्रीडाद्यर्थमन्यत्र जगाम, तदा तया कन्यया मंत्र्यूचे-- For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम हे प्राणवल्लभ ! स्वामिन् ! इदानीमावां स्वस्थानं गच्छावस्तदा वरम् । मन्त्रिणोक्तम्-कथं गम्यते स्त्रपुरादिमार्गाऽपरिज्ञानात् ? ततस्तयोक्तम्-सांप्रतमावाभ्यां रत्ननन्थिद्वयं गृहीत्वा खट्वायां चोपविश्य श्वेतकरवीरकम्व्या साऽऽहन्तव्या। ततः सा चिन्तिते पुरे नेष्यति, यदि च कदाचिद्राक्षसी पृष्ठे समागच्छेत्तदा त्वया सा रक्तकरवीरकंच्या हन्तव्या, ततः सा निष्प्रभावा सती पश्चाद्यास्यति । अथैवं परस्परं विमृश्य चेलतुः, तयोश्चलनान्तरं सा राक्षसी तत्र समागता स्वस्थानं च शून्य दृष्ट्वोवाच-हा ! मुषिताऽस्मीति चिन्तयन्ती सा तयोः पृष्ठे धाविता मिलिता च । मन्त्रिणा रक्तकरवीरकंच्या निहता सती पश्चान्नित्प्रभावा स्वस्थानं जगाम। ततो यत्र गंभीरपुरपत्तने तस्य द्वे प्राक्तने भार्ये आस्तां, तस्मिन्नेव पुरे उद्यानवनमध्ये खट्वाप्रभावान्मंत्री समागात् । तत्रैव रमणीयतरवनमध्ये स्वस्त्री रत्नसुन्दरीं बहिर्मुक्त्वा स मन्त्री निवासस्थानविलोकनार्थ नगरान्तर्गतः । इतस्तन्नगरतस्तत्रैका कपटकलाकलापकुशला वेश्या समागता, तया तामतिचारुरूपां मन्त्रिस्त्रीं दृष्ट्वा चित्ते चिन्तयामास-किमियं स्वर्गाद्रुष्टाऽत्र समागता स्वर्वधूः १ वा मन्त्रसाधनसोद्यमा विद्याधरी ? विषोद्विग्ना यात्रागता. किं वा पातालकन्येयम् ? रतिरिन्द्राणी पार्वती हरिप्रिया वेति ? पुनस्तया ध्यातम्-योषाऽस्मद्गृहे समागच्छेत्तर्हि मम महत्तरं भाग्यं फलेत , पुनरंगणे गजगामिनी जगदानन्ददायिनी चारुकल्पवल्लीवाऽऽरोपिता भवेत् । अतः केनाप्युपायेनैषा ग्राह्य ति विमृश्य तत्पाखें समागत्य सा तां प्रति वदति स्म । इस तरह उसकी बात सुनकर लड़कीने कहा-मैं स्वयं ही अपने योग्य बर को दिखला देती हूं, राक्षसीने कहा-तो अभी तुमको उसे दे दूं। फिर पूर्व-संकेत से उसी समय मंत्री प्रगट हो गया, राक्षसीने भी उस लड़की के साथ गांधर्व विवाह से उस मंत्री का विवाह करा दिया। और कंगन खोलने के समय में खाट आदि (पूर्वोक्त) चार चीजें मंत्रीने राक्षसी से मांगी, राक्षसीने मंत्री को वे चारों चीजें दे दी। फिर एक समय राक्षसी क्रीड़ा आदि करने के लिए दूसरी जगह गई, तब उस लड़कीने मंत्री को कहा-हे प्राणनाथ, स्वामी, इस समय चदि हम दोनों अपने (आपके ) स्थान को चलें तो अच्छा है। मंत्रीने कहा-अपने नगर के मार्ग को नहीं जानने से किसतरहे जाया जाए। तब उस ( लड़की ) ने कहाअभी हम दोनों रत्न की दोनों गठरियों को लेकर और खाटपर बैठकर श्वेत करवीर की चाबुक से खाट को मारेंगे, तब वह जहां जाना है वहां ले जायगा। अगर चेत् कहीं राक्षसी हमारे पीछे आयगी तो तम उसे लाल करवीर की चाबुक से मारना, फिर वह निस्तेज (निर्बल ) होकर पीछे लौट जायगी, इसतरह दोनों आपस में विचार करके चल दिए। दोनों के वहां से चल देने के बाद वह राक्षसी वहां आई, अपने स्थान को सुन-सान देखकर बोली-हाय, मैं चुराई गई, इसतरह विचार करती हुई वह उन दोनों For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org यथाजैसे : : श्री कामघट कथानकम् Ε के पीछे दौड़ पड़ी और उनसे मिल गई। मंत्रीने लाल करवीर की चाबुक से उसे मारा पीछे निस्तेज होकर वह अपने स्थान को लौट गई। फिर जिस गंभीरपुर नगर में उसकी पहली स्त्रियां थीं, उसी नगर के उद्यान वन के बीच में खाट के प्रभाव से मंत्री आगया । वहीं अत्यन्त सुन्दर वन के बीच में अपनी स्त्री रत्नसुन्दरी को बाहर छोड़कर वह मंत्री रहने की जगह देखने के लिए नगर में गया। इधर उस नगर से वह एक कपट कला में प्रवीण वेश्या आई । उसने अत्यन्त सुन्दर रूप उस ( मंत्री की स्त्री ) को देखकर मन में विचार किया । क्या यह स्वर्ग से रूठकर यहां स्वर्ग-बधू ( अप्सरा ) तो नहीं आगई ? या मंत्र साधन करने के लिए विद्याधरी तो नहीं है ? अथवा विष से उद्विग्न ( व्याकुल होकर घबड़ाकर ) नाग लोक की कन्या तो यहां नहीं आगई ? या रति है ? वा इन्द्राणी है ? किंवा शिव की पत्नी पार्वती तो नहीं है ? फिर उसने विचार किया - यदि यह मेरे मकान पर चले तो मेरा बहुत बड़ा भाग्य फले और अंगना हथिनी की जैसी चालवाली लोक को आनन्द देने वाली इस सुन्दरी से सुन्दर कल्पलता की तरह आरोपित हो ( बन ) जाए। इसलिए, किसी भी उपाय से इसको लेना चाहिए, ऐसा शोचकर उसके पास कर वह वेश्या उस ( रत्नसुन्दरी ) को कहने लगी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भद्रे काऽसि सुरांगना ? किमथवा विद्याधरी किन्नरी ? किं वा नागकुमारिका ? बुधसुता किं वा महेशप्रिया ? | पौलोमी किमु ? चक्रवर्ति-दयिता तीर्थाधिपोल्लंघनात्, शापात्कुद्ध-मुनीश्वरस्य वचसा त्वं कानने दृश्यसे ॥ ६४ ॥ हे बच्ची, तुम कौन है ? देवी है, या विद्याधरी है अथवा किन्नरी है ? किंवा पाताल कन्या है या देव कन्या है अथवा महादेव की पत्नी पार्वती है ? या इन्द्राणी है ? किंवा चक्रवर्ती की पत्नी है ? जो किसी क्रोधित मुनीश्वर के वचन से, शाप से, तीर्थाधिप के उल्लंघन से तुम वन में दीख रही हो ॥ ६४ ॥ अथ वत्से ! त्वं सत्यं ब्रूहि कस्य पत्नी ? कुत आगता व ते भर्तेति ? पृष्टा सती सा तदग्रे यथास्थितं निजस्वरूपं जगाद । तदा कपटपाटवोपेतया वेश्यया कथितम् - तर्हि त्वं मद्भ्रातृजायाि कथमत्र स्थिता ? मन्त्री तु मदालयं प्राप्तस्तेनैवाहं तवाह्नानार्थ प्रेषिताऽस्मि, ततस्त्वमेहि मया साकं मे मन्दिरे, ततः सा सरलस्वभावतया तन्मधुरवाक्यप्रपञ्चवञ्चिता तदैव तद्गृहं गता । हे बची, अब, तुम सच सच कहो कि किसकी स्त्री हो और कहां से आई हो और तुम्हारा पति कहां है ? ऐसा पूछने पर वह (रत्नसुन्दरी ) उस (वेश्या) के सामने अपना ठीक परिचय कह दिया । १२ For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६० श्री कामघट कथानकम तब कपट की पण्डिताई से युक्त होकर वेश्याने कहा- कि तुम मेरे भाई की स्त्री हो, यहां क्यों ठहरी हो ? मंत्री तो मेरे घर पर पहुंच गया है, इसी लिए उसने तुम्हें बुलाने के लिए मुझे भेजा है, अत: तुम मेरे साथ मेरे घर को चलो । तब वह सीधा-सादा स्वभाव वाली उस की मीठी बातों के प्रपंच से ठगी हुई उसी समय उसके घर चली गई । यतः क्योंकि तथा च हि www.kobatirth.org मायया मत्स्यः समुद्र-मध्यस्थो सीधा-सादा आदमी माया के द्वारा बड़े पापों से ठगा जाता है, जैसे मछली मल्लाहों के द्वारा ( पकड़ कर ) मारी जाती है ।। ६५ ।। महापापै— वच्यते यतः क्योंकि - सरलो aavatra और भी द्यतकारे वेश्यां च नटे धूर्ते, विशेषतः । मायां कृत्वा निजावास, स्थिताऽस्ति खलु शाश्वती ॥ ६६ ॥ नात्यन्तं सरलैर्भाव्यं, सरलास्तत्र छिद्यन्ते, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जुआरी में, नट में, ठग में, और विशेष करके वेश्या में यह पृथिवी माया करके अपना वास में रही हुई है, नहीं तो कब कि कब गायब हो गई होती ॥ ६६ ॥ अतः सर्वत्र पुरुषैः सरलस्वभावो नैव रक्षणीयः, किन्तु यथाऽवसरं यथास्थानमेव सर्वत्र स्वबुद्धिचातुर्यं करणीयम् । इसलिए, पुरुषों को सभी जगह सरल स्वभाव होकर नहीं रहना चाहिए, किन्तु देश-काल के अनुसार ही सब जगह खूब होशियारी से काम करना चाहिए । जनः । यथा ।। ६५ ।। समुद्र के बीच में रही हुई गवा पश्य कुब्जास्तिष्ठन्ति For Private And Personal Use Only वनस्थलीम् । पादपाः ॥ ६७ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् ६१ अधिक सीधापन अच्छा नहीं, जाकर वनस्थली को देखो,-वहां सीधे झाड़ काटे जाते हैं और टेढ़े-मेंढ़े नहीं काटे जाते हैं ।। ६७ ।। तथा च-- और इसीतरह :दाक्षिण्यं वजने दया परजने शाठ्यं सदा दुर्जने, प्रीतिः साधुजने नयो नृपजने विद्वज्जनेष्वार्जवम् । शौर्य शत्रुजने क्षमा गुरुजने नारीजने धूर्तता, ये चैवं पुरुषाः कलासु कुशलास्तेष्वेव लोक-स्थितिः ॥ ६८ ॥ अपने कुटुम्बवर्ग में चतुराई, दूसरे लोगों में दया, दुष्टों के प्रति शठता, सज्जनों में प्रेम, राजाओं में नीति, विद्वान् वर्गों में सरलता, शत्रुओं में वीरता, गुरुजनों में क्षमा और स्त्री वर्गों में चालाकी, ये बातें जिन पुरुषों में पाई जाती हैं वे ही कला-कुशल हैं और उन्हीं में लोगों की स्थिति है ।। ६८ ॥ अथ नानादेशान्तरायातलोकेर्लीलाविलासकलाकुशलः कामिनीनयनानन्ददायकैरभिभृतं मनोज्ञतोरणैः पञ्चशतैर्वातायनैर्युतं धन्याभिः शतपंचभिर्वरकन्याभिः पूरितमेवंविधं महासौधममरागारसन्निभं गीतनृत्यादिध्वनिगुञ्जितं रत्नसुन्दर्येक्षत, तया गणिकया च सा निजावाससप्तमभूमौ स्थापिता । अथ सा वेश्यां प्रति पृच्छति स्म-क्व मे भर्ती ? सा प्राह-~-बहवोऽत्र ते भर्तारः समायास्यन्ति । ये राजानो राजपुत्राः मण्डलाधिपाः सुश्रेष्ठिनः सार्थवाहाश्च ते त्वकिकरा भविष्यन्ति । छत्रचामरवादित्रसुखासनहयगजान् तवाज्ञावशवर्तिनो राजान आनयिष्यन्ति । मनोज्ञतरा नवनवास्तेऽत्र सत्कामभोगा भविष्यन्ति, हे मृगेक्षणे! किंबहुना ? तव पदाम्बुजे नवनवा नराः सदैव पतिष्यन्ति, त्वया नेत्रविभागेन दृष्टाः सुरासुरसेविता मुनयोऽपि वशवर्तिनो भविष्यन्ति । हे सुभगे ! कि बहूक्तेन ? नरत्वेऽपि मनसा चिन्तितं सर्व देववत्ते भविष्यति, इत्याद्युक्त्वा तया सर्वोऽपि स्वकुलाचारः प्रदर्शितः। तदा मन्त्रिपन्या चिन्तितम्-ऊ एतत्तु गणिकालयं, हा ! मयाथास्मिन् वेश्यागृहे पति विना सर्वोत्तमं भूषणरूपं स्वशीलं कथं रक्षणीयम् ? ___इसके बाद अनेक दूसरे देशों से आए हुए, लीला, विलास (नाटक-खेल कौतुक ) कला में कुशल और कामिनियों के नयनों को आनन्द देने वाले लोगों से भरपूर, पांच सौ सुन्दर तोरण और झरोखों से युक्त और अच्छी पांच सौ कन्याओं से पूर्ण, देव-भवन के समान, गान और नाच भादि के शब्दों से For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ श्री कामघट कथानकम [जित एक बड़ा महल को रत्नसुन्दरीने देखा। फिर उस वेश्याने रत्नसुन्दरी को अपने आवास की सातमी भूमि में रख छोड़ी। अनन्तर रत्नसुन्दरीने वेश्या को पूछा-मेरा पति कहां है ? वेश्या बोलीयहां बहुतेरे तुम्हारे पति आजायेंगे। जो राजा हैं, राजकुमार हैं, मण्डलाधीश हैं, बड़े सेठ हैं और व्यापारी हैं, वे तुम्हारे सेवक ( नौकर ) हो जाएंगे। तुम्हारे आज्ञाओं के अधीन होकर राजा लोग छत्र, चामर, बाजे, बिस्तर, हाथी और घोड़े लावेंगे। नित-नये अत्यन्त सुन्दर तुम्हारी इच्छा के अनुसार भोगविलास की चीजें हो जाएंगे। हे सुन्दरी, अधिक क्या ? तुम्हारे चरण कमल पर नये-नये लोग सर्वदा ही गिरेंगे। तुम्हारे नयन-कटाक्ष से देखे गये सुर-असुर से सेवित मुनि लोग भी तुम्हारे वश में हो जाएंगे। हे सुन्दरि, अधिक कहने से क्या ? मनुष्य होने पर तुम अपने मन में जो कुछ विचारोगी वह सब तुमको देवता की तरह हो जायगा, इत्यादि कहकर उस वेश्याने अपना कुल का सारा आचरण बतला दिया। तब मंत्री की स्त्रीने विचार किया-अरे, यह तो वेश्या का घर है, हाय, अब मुझे इस वेश्या के घर में पति के बिना सब से उत्तम अलंकार रूप अपना शील को किस तरह रक्षा करना चाहिए ? तदुक्तं सत्फलंशील का फल कहा है किशीलं नाम नृणां कुलोन्नतिकरं शीलं परं भूषणं, शीलं ह्यप्रतिपाति-वित्तमनघं शीलं सुगत्यावहम् । शीलं दुर्गति-नाशनं सुविपुलं शीलं यशः पावनं, शीलं निवृति-हेत्वनन्त-सुखदं शीलन्तु कल्पद्रुमः ॥ ६६ ॥ शील मनुष्यों के कुल की उन्नति करने वाला है, शील उत्कृष्ट अलंकार है, शील निश्चय करके संरक्षण करने वाला धन है, शील निष्पाप है—अच्छी गति को देने वाला है, शील दुःख-दरिद्रता को नाश करने वाला है, शील महान् पवित्र यश है, शील छुटकारा ( मोक्ष ) का कारण है-अनन्त सुख देने वाला है और शील कल्पवृक्ष है ।। ६६ ॥ शील सर्वगुणौघ-मस्तक-मणिः शील विपद्रक्षणं, शील भूषणमुज्ज्वल मुनिजनः शील समासेवितम् । दुर्वाराधिकदुःख-वह्नि-शमने प्राबृट-पयोदाधिकं, शील सर्वसुखैककारणमतः कस्याऽस्ति नो सम्मतम् ? ॥ ७० ॥ For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम ६३ शील सारे गुणों के समुदाय रूपी मस्तक में मणि समान है, शील विपत्ति से रक्षा करने वाला है, शील सुन्दर आभूषण है, शील को मुनि लोग अच्छी तरह धारण करते हैं। कठिन से हटाने लायक जो अधिक दुःख रूपी अग्नि उसको शमन करने में वर्षा काल के मेघ से भी अधिक शक्तिशाली शील है, शील सब सुखों का एक कारण है, इसलिए, शील को धारण करना किसका अभिमत नहीं ? अर्थात् सबों की राय है।॥ ७० ॥ अपि च और भी :व्याघ्र-व्याल-जलानलादि-विपदस्तेषां व्रजन्ति क्षयं, कल्याणानि समुल्लसंति विबुधाः सान्निध्यमध्यासते । कीर्तिः स्फूर्तिमियति यात्युपचयं धर्मः प्रणश्यत्यघं, स्वनिर्वाण-सुखानि संनिदधते ये शीलमाविभ्रते ॥ ७१ ॥ जो लोग शील को धारण करते हैं, उनके बाघ, सर्प, जल, अग्नि आदि की विपत्तियां नाश हो जाती हैं, कल्याण होते हैं और देवता पास में आते हैं, कीर्ति फैलती है और धर्म बढ़ता है, पाप विनाश होता हैं, स्वर्ग और मोक्ष के सुख सामने आते हैं ॥ ७१ ॥ - अथ तया स्वशीलभंगभयात्कश्चिदपवरकं प्रविश्य कपाटे दत्ते, तच्छीलप्रभावाच्च ते कथमपि नैव समुद्घटिते । अथ प्राक्परिणीता मन्त्रिपत्नी सा विनयसुन्दर्यपि श्रीदत्तकुम्भकारगृहस्थिता, केनापि कामिना राजपुत्रेण हास्यादिना पराभूता सती, स्वशीलरक्षायै साध्वी तथैव कपाटे पिधाय स्थिताऽऽसोत् । इतोऽयं व्यतिकरो राजलोकसकाशाद्राज्ञा ज्ञातः, ततः स्वनगरानर्थभीतेन राज्ञा पटहोद्घोषणा कारिता-यः कश्चिदेतत्कपाटत्रयमुद्घाटयिष्यति, स्त्रीत्रयं च वादयिष्यति, तस्य राजा स्वराज्याच राजकन्यां च दास्यति । इतः स मन्त्री निजनिवासार्थ स्थानं विलोक्य भोजनं च गृहीत्वा यावत्तत्रोपवने समागतस्तावत्तत्र तेन निजस्वी रत्नसुन्दरी नावलोकिता। तदेतस्ततस्तद्वने विलोकिताऽपि परं क्वापि सा न लब्धेति विह्वलः सन् स नगरमध्ये परिवभ्राम। इतस्तेन सा पटहोद्घोषणा श्रुता मनसि सर्व स्वव्यतिकरं च विज्ञाय पटहं स्पृष्ट्वा बहुजनपरिवृतो मन्त्री कुम्भकारगृहे समागतः। तत्र च द्वारपा। समागत्य तेन श्रीपुरनगरनिर्गमनकालादारभ्य गंभीरपुरप्राप्तिविनयसुन्दरीदेवकुलमोचनावधिः सर्वोऽपि वृत्तान्तो निगदितः। तन्निशम्य शीघ्र विनय For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६.४ श्री कामघट कथानकम सुन्दर्या कपाटे समुद्घाटिते, तयोपलक्षितश्च मन्त्री । ततः श्रीयुगादिदेवप्रासादे समागत्य प्रवहण - चलनकालादारभ्य समुद्रान्तः पतनं यावत्तेन संबन्धः प्रोक्तः । तदा सौभाग्यसुन्दर्याऽपि स्वपतिमुपलक्ष्य कपाटे समुद्घाटिते । ततो मन्त्री गणिकाया गृहे समागत्य सफलकप्राप्ति - समुद्रतरणादारभ्य तद्गंभीरपुरप्राप्ति निवासस्थान विलोकन भोजनग्रहणनिमित्त' नगरमध्यागमनं यावद् वृत्तान्तमुक्तवान् । तदा तया तृतीयया रलसुन्दर्याऽपि तथैव मन्त्रिमुपलक्ष्य कपाटे समुद्घाटिते । ततस्तास्तिस्रोऽपि भार्याः स्वस्ववृत्तान्तं मन्त्रिणे कथयामासुः । ततः प्रमुदितेन राज्ञाऽपि निजराज्यार्द्ध स्वकन्यां शीलसुन्दरीञ्च मन्त्रिणे दच्या साश्चर्य पृष्टम् – भवानब्धौ कथं निपतित इति १ मया तु तवातिचातुर्यं विलोक्यते, अतोऽहमेवं संभावयामि केनचिदन्येन कपटिदुष्टेन निपातितो भविष्यतीति । अथ त्वं स्वं यथाभूतं वृत्तं मया निगद, तन्निशम्याहं तद्योग्यं दण्डं दास्यामि, येनाग्रे कोऽप्यन्यो दुष्टात्मैवंविधमकार्यं न कुर्यात् । तादृशानि राज्ञो वचनान्याकर्ण्य करुणापरो मन्त्री किंचिन्मौनमवलंब्योक्तवान्, हे राजन्नहं स्वात्मनोऽसावधानत्वेनैव निपतितः । यत उक्तं महतां कोऽप्यशुभं कुर्यात्तथाऽपि ते तु तस्य शुभमेव कुर्वन्ति । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घूसकर सके । अनन्तर इसके बाद उसने अपना शील ( इज्जत ) खराब होने के डर से किसी अन्दर के मकान में किवाड़ लगा दिए और उसके चरित्र के माहात्म्य से वे किवाड़ किसी तरह भी नहीं उघड़ पहले व्याही हुई मंत्री की स्त्री वह विनयसुन्दरी भी श्रीदत्तकुंभार के घर में रही हुई किसी कामी राजकुमार के द्वारा हँसी-मजाक आदि से परेशान होकर अपना शील ( इज्जत ) रक्षा के लिए वह पतिव्रता उसी तरह कपाट लगाकर बैठ गई । इधर यह समाचार राजाने अपने दूतों के द्वारा सुना, तब अपना नगर में अनर्थ होने के डर से ढ़िढोला पिटवाया कि—जो कोई इन तीनों किवाड़ों को खोलेगा और तीनों स्त्रियों को बोलावेगा, उसको राजा अपना आधा राज्य और अपनी लड़की देगा। इधर वह मंत्री अपने रहने के लिए जगह को देखकर और भोजन लेकर जबतक उस बगीचा में गया तबतक उसने वहां अपनी स्त्री रत्नसुन्दरी नहीं देखी । उस समय उस वन में इधर उधर ढूढ़ने पर भी जब वह कहीं नहीं मिली, तब व्याकुल होकर वह नगर में घूमने लगा । इधर उसने पटह की उद्घोषणा ( ढिढोरा ) सुनी और मन में सब अपनी ही बात समझकर पटछ को छू कर बहुत लोगों के साथ होकर मंत्री कुंभार के घर में आगया । वहां दरवाजे के पास आकर मंत्रीने श्रीपुरनगर से निकलने के समय से लेकर गंभीरपुर में पहुँचना विनयसुन्दरी का देवकुल में छोड़ने तक सभी समाचार कह सुनाया। यह सुनकर बिनयसुन्दरीने शीघ्र कपाट खोल दिया और उसने मंत्री को पहचान लिया। वहां से श्री ऋषभ देव के मन्दिर में आकर नाव के चलने के समय से लेकर समुद्र के बीच गिरने तक का समाचार उसने कह सुनाया । For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम तब सौभाग्यसुन्दरी भी किवाड़ों को खोल डाली। फिर वहां से मंत्री वेश्या के घर पर आकर फलक (पट्टी) लेकर समुद्र पार होने से आरम्भ कर उसे गंभीरपुर में पहुंचना, रहने की जगह को ढूँढ़ना और भोजन लेने के लिए नगर के बीच आने तक हाल कह सनाया। तब उस तीसरी रत्तसन्दरीने भी मंत्री को पहचान कर किवाड़ उघाड़ डाला। फिर उन तीनों स्त्रियोंमे अपना अपना हाल कह सुनाया। फिर राजाने भी खुश होकर अपना आधा राज्य और अपनी शीलसुन्दरी नाम की लड़की मंत्री को देकर आश्चर्य के साथ पूछा-आप समुद्र में किसतरह गिर गए ? मैं तो आप में बड़ी चतुराई देखता हूं। इसलिए, मैं ऐसी उमीद करता हूं कि किसी छली दुष्टने आपको गिरा दिया होगा। अब, आप अपना सञ्चा हाल कह सुनाइए, जिसको सुन-समझकर मैं उस दण्डनीय व्यक्ति को दण्ड ( सजा ) दूंगा, जिससे आगे कोई दूसरा भी दुष्टात्मा इसतरह का खराब काम नहीं करेगा। राजा की ऐसी बातें सुनकर दयालु मंत्री कुछ चुप होकर बोला-हे राजन् ! मैं अपनी असावधानी (लापरवाही ) से गिर गया। क्योंकि, बड़ों को कोई बुराई भी करता है तो वे उसकी अच्छाई ही करते हैं। यतः कहा भी हैसुजनो न याति विकृति, परहित-निरतो विनाश-कालेऽपि । छेदेऽपि चन्दन-तरुः, सुरभयति मुखं कुठारस्य ॥ ७२ ॥ दूसरों की भलाई करने वाला सजन अपने विनाश काल में भी बिगड़ते नहीं, क्योंकि चन्दन का झाड़ अपने काटने वाले कुल्हाड़ी के मुख (धार ) को सुगन्धित ( खुशबूदार ) कर देता है ।। ७२ ॥ ततो राज्ञाऽत्याग्रहेणाभिहितम्-यद् भूतं वृत्तं तत्सर्व त्वया वक्तव्यमेव भविष्यतीत्यादि वह्वाग्रहिक राज्ञो वचनं निशम्य मनसि तु कथमस्य भावो नासीत्तथाऽप्यतीवाग्रहतो मन्त्रिणा किंचिन्मात्रमेव सागरदत्तश्रेष्ठिवृत्त राज्ञे निवेदितम्, परं राज्ञा तु स्वल्पोक्तेनैव बुद्धिकौशल्यात्सर्व ज्ञातम् । तदनु तदिभ्यानाचारानीत्यादिकार्यतो भृशं क्रोधातुरेण राज्ञा तत्क्षण एव श्रेष्ठिनमाहूयोक्तम्- रे दुष्ट ! परधनस्त्रीलोलुपेन सता त्वयैवंविधानि घोरपातकानि क्रियन्ते । एवं बहुधा निन्दादिभर्सनादिधिकारवाग्भिनिर्भय॑ तत्सकाशान्मंत्रिधनं मंत्रिणे प्रदापितम् । ततोऽन्यायकारिणे तस्मै चौरदंडं दातुं लग्नस्तदा दयालुनाऽमात्येन नृपतिपादयोर्लगिचोक्तम्-हे राजन्नेष मे महोपकारी, एतत्प्रभावेणैवात्र भवत्पार्वे समेत्य यद्भवदीयांगजा मया परिणीताऽयं सर्वोऽप्यस्यैव प्रभावः । इत्याद्युक्त्वा स जीवन्मोचितः, कुतो महतामिमान्येव लक्षणानि । For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् फिर राजाने अत्यन्त आग्रह पूर्वक कहा-जो कुछ पहले हो गया है, वह आपको कहना ही पड़ेगा, इत्यादि अधिक आग्रह से युक्त राजा की बात सुनकर मन में कहने की इच्छा न होने पर भी राजा के अत्यन्त आग्रह से मंत्रीने सागरदत्त सेठ की थोड़ी सी बात कह सुनाई, परन्तु राजाने तो थोड़ा कहने से ही अपनी बुद्धि की कुशलता से सारा हाल समझ लिया। उसके पीछे उस धनी के साथ अनाचार और अनीति आदि कार्य से बहुत क्रोधित होकर राजाने उसी समय सेठ को बुलवा कर बोला-रे नीच, पराई स्त्री और धन का लोभी होकर तुम इसतरह भारी पाप करते हो। इसतरह अनेक प्रकार से निन्दा, भर्त्सना, धिक्कार आदि बातों से उसे फटकार कर उसके पास से मंत्री का धन मंत्री को दिलाया। फिर उस अन्यायकारी को राजा चोर का दण्ड देने लगा, तब दयालु मंत्रीने राजा के पांवों में पड़कर बोलाहे राजन् , यह मेरा महान् उपकारी है। इसके प्रसाद से ही यहां आपके पास आकर जो आपकी लड़की से मैंने विवाह किया, यह सब इसका ही प्रसाद है। इत्यादि कहकर मंत्रीने सेठ सागरदत्त को जिन्दा छोड़वा दिया। क्योंकि, बड़ों के ये ही लक्षण हैं। तदुक्तं चकहा, भी हैचेतः सार्द्रतरं वचः सुमधुरं दृष्टिः प्रसन्नोज्वला, शक्तिः क्षान्ति-युता मतिः श्रित-नया श्रीर्दीन-दैन्यापहा । रूपं शोल-युतं श्रुतं गत-मदं स्वामित्वमुत्सेकतानिर्मुक्तं प्रकटान्यहो ! नव सुधा-कुण्डान्यमून्युत्तमे ॥ ७३ ॥ अहा ! उत्तम पुरुष में नौ अमृत के कुण्ड प्रत्यक्ष हैं, दया से पिघला हुआ हृदय, सुन्दर वचन, प्रसन्नता युक्त दृष्टि, क्षमता (सहनशीलता) युक्त शक्ति, नीतियुक्त बुद्धि, दुःखी-दरिद्रों के दैन्य निवारण के लिए लक्ष्मी, सदाचार युक्त रूप, घमण्ड रहित शास्त्र-ज्ञान, अभिमान रहित स्वामीपना ।। ७३ ॥ अनेन कारणेन प्रत्युत सत्कारसम्मानदानपुरस्सरं मन्त्री त सागरदत्तष्ठिनं स्वस्थाने प्रेषयामास । अथ मन्त्री ताभिश्चतसृभिर्जायाभिः सह दोगुन्दुकदेववद्विषयसुखान्युपभंजानस्तत्र कियन्ति दिनानि सुखेनास्थात् । अथैकदा पाश्चात्यरात्रौ स धर्मबुद्धिमन्त्री नित्यधर्मकर्मसाधनाय जागरितः सन् सुभावेन तद्विधाय पश्चान्मनसि विचारयामास । अथ श्वशुरालये संतिष्ठमानस्य मे बहूनि दिनानि व्यतीयुः । अतःपरमत्र निवासो मे गर्हणीयो हास्यहेतुलॊकविरुद्धापमाननिलयश्चातएवायुक्तोऽस्ति । For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् ६७ ___इस कारण से, बल्कि, आदर-सत्कार पूर्वक कुछ देकर मंत्री उस सागरदत्त सेठ को अपने स्थान में भेज दिया। अनन्तर मंत्री उन चारों स्त्रियों के साथ 'दोगुन्दुक' देवता की तरह विषय-सुख ( भोगविलास ) को भोगते हुए वहां कितने दिनोंतक सुखपूर्वक रहा। अब, एक समय रात के पिछले पहर में (ब्राह्ममुहूर्त में ) वह धर्मबुद्धि नित्य के धर्म-कर्म करने के लिए जाग कर शौच आदि क्रिया करके पीछे मन में विचारने लगा-अब, ससुर के घर में रहते हुए मुझे बहुत दिन बीत चुके। इसके आगे यहां मेरा रहना अच्छा नहीं है, उपहास का कारण है और मान की जगह उलटा अपमान का घर है, इसलिए, यहां रहना ठीक नहीं है। यतःक्योंकिश्वशुर - गृह - निवासः स्वर्ग-तुल्यो नराणां, यदि वसति विवेकी पंच षड् वासराणि । दधि - गुड - घृत - लोभान्मासयुग्मं वसेच्चेत्, स भवति खर-तुल्यो मानवो मान-हीनः ॥ ७४ ॥ मनुष्यों को श्वसुर के घर ( ससुराल) में रहना स्वर्ग का समान है, मगर थोड़े ही दिनोंतक, इसलिए, यदि कोई बुद्धिमान ससुराल में रहता है तो पांच या छः दिनोंतक ही रहता है, अगर दही, गुड़, घी-दूध शकर आदि के लालच से दो मास वहां रह जाय तो वह व्यक्ति मान से रहित होकर गधे के समान हो आता है॥४॥ तथा च -- और भीहविविना रविर्यातो, विना पीठेन केसरः । कदन्नात्पुण्डरीकाख्यो, गल-हस्तेन घोघरः ॥ ७५ ॥ हवन के बिना रवि नामक व्यक्ति चला गया, पीढ़ा के बिना केसर चला गया, कदन्न ( मोटा अन्न) खाने से पुण्डरीक चला गया और गरदनियां देने से घोघर' चला गया ॥७॥ यहां कथानक इस प्रकार है कि-एक व्यक्ति के चार जमाई थे, चारों के क्रमशः रबि, केसर, पुण्डरीक और घोघर नाम थे। चारों का अलग अलग यह खास नियम था-रषि बाबू बिना हवन किए For Private And Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम नहीं जीमते थे, केसर बाबू को भोजन करने के लिए बढ़ियां पीढ़ा ( काठ का आसन ) चाहिए, पुण्डरीक बाबू को बिलकुल महीन खुशबूदार दाने भोजन के लिए चाहिए और चौथा घोघर पेटू और धृष्ट था, उसे किसी तरह पेट भरना चाहिए। ये चारों के चारों एक ही दिन अपने ससुर के घर पर आगये। पांच-सात दिनों तक तो ससुरशाले आदिने उनका उचित सत्कार किया, उनके नियमित हवन, पीठ आदि दान पूर्वक सुन्दर खान-पान का व्यवहार किया। कुछ अधिक दिन होने पर भी इन जमाईयों के नहीं जाने पर ससुराल वाले ऊब गए और ऊब कर एक दिन रबि बाबू को हवन करने की सामग्री नहीं दी, अतः समझदार रबि बाबू कुछ रुष्टता लिए हुए उसी दिन अपने घर चले गए। दूसरे दिन केसर बाबू को बिना पीढ़ा को ही भोजन दिया गया, अतः नाराज होकर बेचारे केसर बाबू भी अपने मकान उसी दिन चले गए। तीसरे दिन पुण्डरीक बाबू को मोटा अधजला खाना दिया गया, अतः वे भी अपना सा मुंह लेकर उसी दिन वहां से चलते बने, फिर चौथे दिन घोघर बाबू जब इन तीनों की हालत देखकर भी नहीं जा रहे थे, तो ससुराल वालों ने समझ लिया कि यह महा धृष्ट है, अतः उनको गरदनियां (गले में हाथ ) देकर वहां से भगा दिया। ___ इत्यादि विचार्य पुनर्मत्प्रतिज्ञाऽपि सम्यक् पूर्णाऽजन्यतो मया प्रातः श्वशुरादेशं समभिगा स्वदेशं प्रति गन्तव्यमेव । ततो निशानन्तरं प्रातःकाले मन्त्री स्वविचारानुकूलमखिलं विधाय ततोऽर्द्धराज्यसंपत्ति स्त्रीचतुष्टयं चादाय हयगजरथपत्त्यादिभिर्वारिधिपूर इव पापबुद्धिनामानं राजानं पराभवितुं श्रीपुरं नगरं प्रति चलितः। मार्गे समागच्छन् राजसमूहैरुपहारपूर्वकं वन्द्यमानः पूज्यमानश्चानुक्रमेण श्रीपुरनगरसमीपे समागतवान् । एवं तमागच्छन्तं विज्ञाय पूर्लोका व्याकुलाः समजायन्त, राजाऽपि परचक्रमागतं विदित्वा प्राकारं सजीकृत्यान्तः स्थितः । अथ मन्त्रिणा सन्ध्याकाले पापबुद्धिराजस्यान्तिके दूतः प्रेषितः स कीदृशः । इत्यादि विचार कर फिर मेरी प्रतिज्ञा भी पूरी हुई, इसलिए, मुझे सुबह में स्वसुर की आज्ञा लेकर अपने देश को जाना हो चाहिए। फिर रात बीतने के बाद सुबह में मंत्री अपने विचार के अनुसार सारा काम करके वहां से आधे राज्य की सम्पत्ति और चारों स्त्रियों को लेकर हाथी-घोड़े-रथ-सिपाही आदि से समुद्र की बढ़ाव ( बाढ़-ज्वार भाठा ) की तरह पापबुद्धि नाम के राजा को हराने के लिए श्रीपुर नगर को चला। मार्ग में आते हुए उसको अनेक राजाने भेंट देकर बन्दना की और पूजा की, इसतरह क्रमशः मंत्री श्रीपुर नगर के समीप आगया। इसतरह उसको आते हुए जानकर नगर के लोग व्याकुल हो गए। राजा भी दूसरे की सेना को आई हुई जानकर किला को मरम्मत कर किला के अन्दर बैठ गया। तब मंत्रीने संध्या काल में पापबुद्धि राजा के पास अपना एक दूत भेजा-वह दूत कैसा था For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम यथाजैसे:मेधावी वाकपटुः प्राज्ञः, परचित्तोपलक्षकः । धीरो यथोक्तवादी च, एष दूतो विधीयते ॥ ७६ ॥ बुद्धिमान, बोलने में चतुर, विद्वान्, दूसरे के हृदय की बातों को पहचानने वाला, धीर और यथार्थवादी, ऐसा ही दूत होना चाहिए ।। ७६ ।। सोऽप्यागत्यातवाण्या तमेवं जगाद-अये राजन् ! महाप्रतापवान्मेऽधिपतिस्तदन न कोऽपि शक्तिशाली स्थातुं शक्तोऽतः प्रतिदिनं तस्य तेजोऽधिकत्वं यातीति जाने न कयापि जनन्यैतत्समोऽन्यो जगति प्रस्तः। यस्तस्योक्तं नांगीकरोति तस्य हिमानीव वनखण्डं समस्तं राज्यादिकं दहति । क ईदृग्योद्धाऽस्ति यस्तस्य प्रतापं सहेत ! येन मत्स्वामिनोऽग्र गर्वः कृतस्तस्य सर्वोऽपि गवस्तेन प्रभञ्जितः। कः कृष्णभुजंगं सिंहञ्चाऽऽलिंग्य स्वमूढतां दर्शयेत् ? अतएव त्वया तत्र गत्वा तेन साकं सन्धिरेव विधेयः । अन्यथा योडन्यम्, इत्थमेव स्वामिना समादिष्टोऽस्मि च तत्वत्समीपेऽहं वच्मि । एतद्यदि ते प्रमाणं तर्हि रणभूमौ गन्तव्यमेव, अन्यथा तृणं दन्ताय निवेश्य पुराबहिर्निर्गन्तव्यम् । एवं दूतोक्तमाकर्ण्य कृतभ्रुकुटिललाटो रक्तीकृतनेत्रः श्रीपुराधीशः पापबुद्धिनृपो जगाद-क्षत्रियोऽहमस्मि मरणं त्वेकवारमस्त्येवेति कथमहं सर्व प्राक्तनं यशो विनाशं नयामि ? अतो हे दृतेश ! यथानौ शलभः स्वयमेव निपत्य विनश्यति, तथा ते स्वामिनाऽप्ययं स्वयमेव मृतिपटहो वादितः। तस्मात्कथमेष कुशलपूर्वकं स्वगृहं समेष्यति ? अरे ! गच्छ शीघ्र स्वस्वामिने निवेदय--यदि ते राजा रणार्थमुद्यतो रणभूमौ समागमनेच्छुः, पुनः सूर्योदयत एव रणकरणमर्यादा तेन ते स्वामिना स्थापिताऽस्ति, तहि तस्य यबलवाहनं तत्सर्व संगृह्य तेन त्वरितं समागन्तव्यं नात्र विलम्बः करणीयः। मया चैतानि गोपुराणि निशाकाले नगररक्षार्थ पिहितानि, प्रातरुद्घाट्य रणतूर्यवादनपूर्वकं तेन समं सम्यग् योत्स्ये । इत्थं पापबुद्धिराजवाक्यं निशम्य शीघ्रमेवागत्य दूतेन स सर्वोऽप्युदन्तो निजराजानं प्रति निगदितः। अथ पापबुद्धी राजा प्रातश्चतुरंगिणीं सेना:सजीकृत्य स्वपुरावहिनिर्गतः, परं मार्गेऽपशकुनं जातं तथापि मदोन्मत्तस्स न तद्गणयामास, यतो गवशेन कुपुरुषो जनैस्यियोग्यं वृथा कार्य किं न करोति ? For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०० श्री कामघट कथानकम वह दूत भी आकर अद्भुत वाणी के द्वारा उस राजाको ऐसा कहा-हे राजन् ! मेरे मालिक बड़े प्रतापी हैं, उनके आगे कोई भी बलशाली टिक नहीं सकता, इसलिए प्रति दिन उनका तेज बढ़ता जाता है, मैं यह जानता हूं कि किसी भी माताने इनके समान दूसरा लड़का संसार में पैदा नहीं किया। जो उनकी आज्ञा को नहीं अंगीकार करता है उसका सारा राज्य इसतरह जल जाता है जैसे भारी ओले (बरफ) बन को जला देते हैं। कौन ऐसा वीर है जो उनके प्रताप को सह सके ? जिसने मेरे स्वामी के आगे गर्व किया उसका सारा गर्व मेरे स्वामीने चकना-चूर कर दिया। इसलिए आप वहां जाकर उनसे सन्धि ही कर लें, नहीं तो लड़ना पड़ेगा, स्वामीने ऐसी ही हुक्म दी है और वही आपके पास बोलने को आया हूं। यह यदि आपको मंजूर है तो लड़ाई के मैदान में जाना ही है, नामंजूर हो तो दांतों के तले तिनका रख कर नगर से बाहर हो जाना चाहिए। इसतरह दूत की बात को सुनकर कमान चढ़ाकर लाल लाल आखें करके श्रीपुर का स्वामी पापबुद्धि राजा बोला-मैं क्षत्रिय हं, मरना तो एकबार है ही, इसलिए पहले के सारे यश को विनाश कैसे करूं इसलिए हे दतवर। जैसे अग्नि में फतिंगा अपने आप ही गिर कर विनाश हो जाता है, उसी तरह तुम्हारे स्वामीने भी यह मरने का ढिढ़ोरा खुद ही पिटवा दिया है। इस लिए वह किसतरह कुशल पूर्वक अपने घर को जासकता है ? अरे ! तुम जाओ और अपने मालिक को शीघ्र कह दो-यदि तुम्हारा राजा युद्ध करने के लिए तैयार होकर संग्राम भूमि में आने की इच्छा करता है तो फिर सूर्योदय समय से ही युद्ध करने की बात तुम्हारे स्वामीने ठान दी, इसलिए उसके जितने दलबल हो, वह सब लेकर उसे तुरत आजाना चाहिए, इसमें देर नहीं करनी चाहिए। मैंने ये नगर के दरवाजे संध्या काल में नगर की रक्षा के लिए बन्द करवा दिए थे, सुबह में दरवाजे खोलकर युद्ध के बाजे-गाजे के साथ तुम्हारे स्वामी के साथ अच्छी तरह लडूंगा। इसतरह पापबुद्धि राजा की बात सुनकर दूतने शीघ्र आकर वह सारा हाल अपने राजा को सुना दिया। फिर पापबुद्धि राजा सुबह में चतुरंगिणी सेना तैयार कर अपने नगर से बाहर निकला, किन्तु मार्ग में अपशकुन हो गया फिर भी गर्व से मत वाला वह उसे नहीं गिना, क्योंकि घमण्ड के अधीन होकर खराब आदमी लोगों के द्वारा मजाक उड़ाने लायक बेकार काम क्यामही करते ? यतः-- क्योंकिउरिक्षप्य टिटिभः पाद-मास्ते भङ्ग-भयाद्भुवः । स्वचित्त-कल्पितो गर्वः, क्वाङ्गिनां नोपयुज्यते ? ॥ ७७ ॥ पृथिवी के टूक टूक हो जाने के भय से टिटही ( एक पक्षी) अपने पांव को ऊपर करके ही रहता है। प्राणियों के अपने मन में आरोपण किया हुआ गर्व कहां ठीक नहीं है? ।। ७७ ।। For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् तथा चऔर भीविष-भार-सहस्रण, वासुकिनैव गर्जति । वृश्चिकस्तृणमात्रेणा–प्यूर्व वहति कंटकम् ॥ ७८ ॥ हजार गुना विष की बोझ से भी वासुकि ( सर्पराज ) गर्जना नहीं करता, किन्तु बिच्छू जरा सा विष को धारण करने से भी अपने ऊपर कांटा रखता है ॥ ७८ ॥ ___ ततो यत्र मन्त्रिसैन्यमवस्थितं तत्र सोऽपि गतोऽविलम्बेनैव, यतोऽहंकार्येवं नैव विचारयति । फिर जहां मंत्री की सेना ठहरी थी, वहां वह भी शीघ्र ही चला गया, क्योंकि, अहंकारी ऐसा विचार नहीं करता है यथाजैसेबलिभ्यो बलिनः सन्ति, वादिभ्यः सन्ति वादिनः । धनिभ्यो धनिनः सन्ति, तस्मादपं त्यजेद् बुधः ॥ ७ ॥ इस संसार में बली से भी बली हैं, विद्वान् से भी विद्वान् हैं तथा धनी से भी धनी हैं, इसलिए, बुद्धिमान को चाहिए कि वह अपने बड़प्पन का गर्व छोड़ दे ।। ७६ ॥ ___ अथ मध्ये रणस्तम्भमारोप्य भटाः प्रतिभटा अन्योन्यमभिमुखीबभूवः, रणतौर्यत्रिकं च वादितम् । तदनन्तरं महाशूरताभिमानेन ते उभये युद्धमारेभिरे। तद्यथा-हस्तिभिर्हस्तिनः, वाजिभिर्वाजिनः, पत्तिभिः पत्तयो, रथिमि रथिनो, नालगोलिभिर्नालगोलिनः संघडितास्तेनोच्छलिता रजोराजिरादित्यं निस्तेजसं चकार । हस्तिनश्च तत्र वारिवाहा इव जगज्जः, विद्युत्पादा इव कृपाणप्रहारा जाताः, शिलीमुखाश्च जलधारा इवाऽवषन् , जलप्रवाह इव रक्तप्रवाहः प्रससार, तत्र रणसंमुखे ये कातरास्ते सर्वेऽपि निस्तेजसः सन्तो वर्षाकाल इन्द्रयवा इव पर्यशुष्यन् , रक्तपातेन सकर्दमा मही च संजाता। रजःपूरेणाऽम्बरं प्रच्छादितम्, तदा किमयं वर्षाकाल आगत इति लोकाः संशयं चक्रुः १ ये सुभटास्ते सिंहनादं कुर्वन्ति स्म, तेनान्यजनकृतः शब्दो न श्रूयते स्म । For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०२ श्री कामघट कथानकम या निर्मायका अप्सरसस्ता सर्वा अपि नाथममिलषन्त्यो विमान आसीनास्तत्र समाजग्मुः, यतो रणे मृतानां स्वर्गोत्पत्तिरित्युक्तत्वात् । रोषाऽतिशयेनैवं युद्धमानास्ते पापबुद्धिसुभटा मतिसागरसुभटैरन्ते त्वरितमेव पराजिताः। ततः पापबुद्धी राजा च तत्सुभटगणमध्य एव बद्धः। अथ मन्त्री राजानं प्रति पृच्छति स्म-किं भवान्मामुपलक्षयति ? तदा राजा कथयति स्म-भास्करमिव तेजस्विनं भवन्तं को न जानाति १, ततः पुनमन्त्री कथयति स्म-एतदहं नो पृच्छामि किन्तु कोऽस्म्यहमिति पृच्छामि, तदा राजा नाहं जानामीति प्रत्युवाच। ततः सचिवेनोक्तम् , श्रयताम्-हे राजन् ! सोऽहं धर्मबुद्धिनामा भवन्मंत्री विदेशात्परावृत्य धर्मफलप्रदर्शनार्थ भवदग्रे समागतोऽस्मि । पुनमन्त्री साञ्जलिरूचे हे राजन् ! कथय धर्मो नितरं सत्फलदायकोऽस्ति नवेति ? दृश्यताम्-धर्मत एव निखिललक्ष्मीलाभः सर्वा आशा च मे परिपूर्णा जाता । एवं द्वितीयवारमपि विदेशे गत्वा धर्मफलं प्रदर्य तेन मंत्रिणा स राजा जैनधर्मे दृढीकृतस्ततस्तेन नृपेणापि दुर्गतिदायकमधर्म पापपाशकमपनीय भवान्धितरणतारणतरिरूपा जिनाज्ञा सहर्षमंगीकृता, तत्क्षण एव मन्त्रिणा बन्धनान्मुक्तो राजा हर्षतौर्यत्रिकं तत्र सम्यगवीवदत् । अहो ! कथंभूतमिदमाश्चर्यजनकं मंत्रिणः सौजन्यम्, यद्राज्ञो धर्मिकरणाय देशान्तरं गतः । नानाविधानि दुःखानि च समवलोकितानि, परमवसाने तु तेन राजानं धर्मिणं विधायैव मुक्तः। एवंभूतस्वभाववन्तः परोपकारिणः सजना अस्मिन् लोके विरला एव भवन्ति । अनन्तर बीच में रण का खंभा गाड़ कर दोनों पक्ष के योधा परस्पर आमने सामने हो गए और युद्ध के बाजे बजवा दिए। उसके बाद वे दोनों सेनाएँ महान बल के घमण्ड से युद्ध शुरु करने लगीजैसे-हाथी हाथियों के साथ, घोड़े घोड़ों के साथ, पैदल पैदलों के साथ, रथसवार रथसवारों के साथ, नाल-गोली वाले नाल-गोली वालों के साथ भिड़ गए। उससे उड़ती हुई धूली की ढेर से सूर्य ढक गया। वहां हाथी वादल की तरह गरजते थे, बिजली गिरने की तरह तलवार की धारें गिरने लगी और वाणों की वर्षा जल धारा की तरह बरसने लगीं। मरना की तरह रक्त का बहाव फैल गया। वहां रण में जो कायर थे, वे सब ऐसे थर्रा ( सहम ) गए जैसे वर्षाकाल में इन्द्र जौ सूख जाते हैं। अधिक खून गिरने से पृथिवी पंकिल (कीचड़ वाली) हो गई। धूलियों के बढ़ाव से आकाश ढक गया, उस समय क्या यह वर्षा काल आगया ? लोग इसतरह शक करने लगे। जो अच्छे लड़वैये थे वे शेर की तरह गर्जना करते थे, उस घोर शब्द से दूसरे का शब्द सुनाई नहीं देता था। बिना पति वाली स्वर्ग की अप्सराएं अपने अपने पति को चाहती हुई विमान पर बैठी हुई वहां आगई, क्योंकि युद्ध में मरने वालों को स्वर में उत्पत्ति होती है, ऐसा शास्त्रों में कहा हुआ है। अत्यन्त क्रोध से युद्ध करते हुए पापबुद्धि के सुभट लोग धर्मबुद्धि For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् १०३ के सुभ? (वीरों) द्वारा पराजित हो गए। फिर पापबुद्धि राजा उन सुभटों के बीच में बांध लिए गए। उसके बाद मंत्री राजाको पूछने लगा-क्या आप मुझे पहचानते हैं ? तब राजा कहने लगा-सूर्य के समान तेजस्वी ( प्रतापी ) आपको कौन नहीं जानता ? फिर मंत्रीने कहा-यह मैं नहीं पूछता हूं, लेकिन मैं कौन हूं, यह पूछता हूं। तब राजाने कहा कि मैं नहीं जानता हूं। फिर मंत्रीने कहा कि सुनिए - हे राजन् ! मैं वही धर्मबुद्धि नाम का आपका मंत्री विदेश से लौट कर धर्मफल दिखलाने के लिए आपके आगे आगया हूं। फिर मंत्रीने हाथ जोड़कर बोला-हे राजन् ! अब तो आप कहें कि धर्म निरन्तर अच्छा फल देने वाला है या नहीं ? धर्म से ही सारी सम्पत्ति की प्राप्ति और मेरी सारी कामनाएँ पूरी हुई। इसतरह दुवारा भी विदेश में जाकर उस मंत्रीने उस राजा को जैन धर्म में पक्का कर दिया, फिर उस राजा ने भी दुःख देने वाले अधर्म को-पाप रूपी फांस को छोड़ कर संसार-सागर से पार करने वाली नौका रूपी जिने श्वर की आज्ञा को ही सहर्ष स्वीकार की। उसी समय में ही मंत्रीने राजाको बन्धन से मुक्त कर दिया और हर्ष के नगाड़े वहां बजवा दिए। अहा ! मंत्री का यह सौजन्य ( भलमनसाई ) कैसा आश्चर्य जनक रहा, जो राजा को धर्मात्मा बनाने के लिए दूसरे देश में चला गया। अनेक तरह के दुःख देखे, लेकिन अन्त में तो उसने राजा को धर्मात्मा बना कर ही छोड़ा। इसतरह के परोपकारी स्वभाव वाले सज्जन इस लोक में विरले ( थोड़े) ही होते हैं । उक्तं चकहा भी है- .. . शैले शैले न माणिक्य, मौक्तिकं न गजे गजे । साधवो नहि सर्वत्र, चन्दनं न वने वने ॥ ८ ॥ प्रत्येक पर्वत पर रत्न नहीं होता, हरेक हाथी में मुक्ता नहीं होती, सभी जगह सज्जन नहीं होते और हरेक जंगल में चन्दन नहीं होता है ।। ८०॥ अन्यदपिऔर भीउपकर्तुं प्रियं वक्तुं, कर्तु स्नेहमकृत्रिमम् । सज्जनानां स्वभावोऽयं, केनेन्दुः शिशिरीकृतः ? ॥ ८१॥ सजनों का यह स्यभाव है कि दूसरे की भलाई करना, मीठा बोलना और अकृत्रिम प्रेम करना, क्योंकि चन्द्रमा को किसने शीतल (आह्वादक ) किया ?॥ ८१ ।। For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०४ श्री कामघट कथानकम तथा च• और भी अपेक्षन्ते न च स्नेह, न पात्रं न दशान्तरम् । सदा लोक-हितासक्ता, रत्न-दीपा इवोत्तमाः ॥ ८२॥ अच्छे लोग (सज्जन) रन और दीप के समान परोपकार में लगे रहते हैं, वे प्रेम की अपेक्षा नहीं रखते न पात्र की अपेक्षा रखते हैं और न दूसरी हालतों ( अवस्थाओं) की ही अपेक्षा रखते हैं । ८२ ।। ... ततस्तयोः परस्परं परममैत्री संजाता, अतएव सम्यक्तया द्वावपि धर्मध्यानमेकमनसौ सन्तौ चक्रतुः । पुनस्तत्रैव नगरे सुखेन तौ राज्यं पालयामासतुः। अथ कियता कालेन केवलज्ञानिनं सन्मुनि वनपालमुखादुपवने समवसृतं श्रुत्वा नृपसचिवादयस्तस्य दर्शनार्थ समागताः। तत्र केवलमुनिनाऽप्येवं संसारार्णवतारिणी विषयकषायमोहाज्ञानतिमिरविदारिणी धर्मदेशना प्रारब्धा । फिर मंत्री और राजा दोनों में परस्पर पूरी मैत्री हो गई, इसलिए, वे दोनों अच्छी तरह एक मन होकर धर्मध्यान करने लगे। फिर उसी नगर में वे दोंनो सुख पूर्वक राज्य करने लगे। फिर कुछ दिन के बाद बन पालक के मुख से उपवन में उतरे हुए केवल ज्ञानी मुनि को सुनकर, राजा, मंत्री आदि उनकी बन्दना करने के लिए वहाँ गए। वहां केवल मुनि ने भी संसार-सागर से तारने वाली विषय-कषाय-मोह अज्ञान सपी अन्धकार को नाश करने वाली धर्म-देशना प्रारम्भ कर दी। . यथाजैसे :त्रैकाल्यं जिन-पूजनं प्रतिदिनं संघस्य सम्माननं, खाध्यायो गुरु-सेवनं च विधिना दानं तथाऽऽवश्यकम् । शक्त्या च व्रत-पालनं वर-सपो ज्ञानस्य पाठस्तया, सैष श्रावक-पुङ्गवस्य कथितो .. धर्मो जिनेन्द्रागमे ॥ ३ ॥ तीनों काल में भगवान जिनेन्द्र की पूजा, प्रति दिन संघ का सम्मान, स्वाध्याय और गुरु की सेवा लथा विधि पूर्वक आवश्यक ( सामायिक-संध्यावन्दन) और दान एवं शक्ति के अनुसार व्रत का पालन, अच्छा तप और झान का पाठ, यह श्रेष्ठ भावक का धर्म जिनागम में कहा गया है ।। ८३ ।। For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भी कामघट कथानकम १०५ अपि चऔर भीयावत्स्वस्थमिदं कलेवर-गृहं यावच्च दूरे जरा, यावच्चेन्द्रिय-शक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः । आत्म-श्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान् , प्रोद्दीप्ते भवने च कूप-खननं प्रत्युद्यमः कीदृशः ? ॥८४ ॥ जबतक यह शरीर स्वस्थ है और जबतक बुढ़ापा दूर है, एवं जबतक ठीक ठीक इन्द्रियों की शक्ति है और जबतक आयु क्षय नहीं हुई है, तभी तक विद्वान् बुद्धिमान् को आत्म-कल्याण में महान् प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि, घर में आग लगजाने पर उस समय में कुआं खोदने का उद्योग कैसा ? ॥ ८४ ॥ पुनहें भव्याः ? कालोऽयमनादिकालतोऽनन्तप्राणिनो भक्षयन्नपि कदाचित्सौहित्यमलभमानोऽद्यपर्यन्तमपि संसारे प्रतिक्षणं प्राणिनामायुष्यं हरति । और फिर, हे भव्यलोको! यह काल अनादि काल से अनन्त-प्राणियों को भक्षण करता हुआ कभी भी सुतृप्ति को नहीं प्राप्त होता हुआ आजतक भी संसार में प्रतिक्षण प्राणियों की आयु हरता है। यतःक्योंकिआयुर्वर्षशतं नृणां परिमितं रात्रौ तदद्धं गतं, तस्यार्द्धस्य कदाचिदर्धमधिकं वृद्धत्व-वाल्ये गतम् । शेष व्याधि-वियोग-शोक-मदनासेवादिभिर्नीयते, देहे वारि-तरङ्ग-चंचलतरे धर्म कुतः प्राणिनाम् ? ॥ ८५ ॥ मनुष्य की आयु सौ वर्ष की साधारणतः मानी गई है, आधी रातों में ही बीत जाती, उस आधे की आधी कभी कम-ज्यादा बचपन और बुढ़ापा में बीतती है और वाकी चौथाई या कुछ कम-ज्यादा आयु रोग, वियोग, शोक और विषय-वासना-सुख आदि में बीतती है और यह शरीर जल की तरङ्ग की तरह चञ्चल ( अस्थिर ) है, फिर प्राणियों का धर्म कहां से हो १॥ ८५ ।। १४ For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामंघट कथानकम तस्य कालस्याऽग्रे तीर्थकरचक्रवर्तिवलदेववासुदेवप्रतिवासुदेवादिसर्वशक्तिमद्देवानामपि बलं न प्रचलति । उस काल के आगे तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव आदि सर्व शक्तिमान् देवताओं का भी बल नहीं चलता है। यत: क्योंकिनो विद्या न च भेषजं न च पिता नो बान्धवा नो सुताः, नाभीष्टा कुलदेवता न जननी स्नेहानुबन्धान्विताः । नार्था न स्वजनो न वा परिजनः शारीरिकं नो बलं, नो शक्ताः श्वशुरः स्वसा सुरवराः सन्धातुमायुध्रुवम् ॥ ८६ ॥ न विद्या, न औषध और न माता-पिता, न भाई-बन्धु, न लड़के लड़की, न अपने अभीष्ट कुल देवता और न मित्रवर्ग, न धन, न अपना नौकर चाकर और न पड़ोसी, न शरीर का बल न श्वसुर, न बहिन और न बड़े देव अथात् कोई भी आयु को जोड़ ( बढ़ा ) नहीं सकते ।। ८६ ।। __ अतोऽयं महतो महानुभावानपि प्राणिनो भक्षयति । पुनस्तदनऽन्येषां पामरप्राणिनां का गणना ? इसलिए, यह विकराल काल महापुरुषों के महान् प्राणों को भी भक्षण कर डालता है, फिर दूसरे पामर प्राणियों की कथा ही क्या ? तदुक्तं चकहा भी हैये पाताल-निवासिनोऽसुरगणा ये स्वैरिणो व्यन्तराः, ये ज्योतिष्क्व-विमानवासि-विबुधास्तारान्तचन्द्रादयः । सौधर्मादि-सुरालये सुरगणा ये चापि वैमानिकास्ते सर्वेऽपि कृतान्त-वासमवशाः गच्छन्ति किं शोच्यते ? ॥७॥ For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् १०७ जो पाताल-निवासी असुर-गण हैं, जो स्वेच्छाचारी व्यंतर है, जो ज्योतिष्क विमान वासी देव हैं, तथा ताराओं से लेकर चन्द्रमा तक, एवं सौधर्म आदि देव लोक में जो वैमानिक देव-गण हैं, वे सब भी विवश होकर यमराज के घर में जाते हैं ( मृत्यु को प्राप्त होते हैं ) फिर शोच (मरना है तो डरना) क्या ? ॥ ८७॥ अपि चऔर भीदिव्य-ज्ञान-युता जगत्-त्रय-नुताः शौर्यान्विताः सत्कृताः, देवेन्द्राः सुर-बृन्द-वन्य-चरणाः सद्विक्रमाश्चक्रिणः । वैकुण्ठा बलशालिनो हलधरा ये रावणाद्याः परे, ते कीनाश-मुखं विशन्त्यशरणा यद्वा न लंध्यो विधिः ॥८८॥ दिव्यज्ञान से युक्त, तीनों लोक से नमस्कृत, बड़े वीर, सत्कार पाए हुए, देवों के समुदाय से बन्दित चरण इन्द्र और अच्छे पराक्रम वाले चक्रवर्ती, अप्रतिहत बलशाली बलदेव और जो दूसरे रावणादिक प्रतिवासुदेव हो गए हैं, वे सब भी यमराज (मृत्यु) के मुख में अशरण (असहाय ) होकर घुसते हैं, अथवा ( वास्तव में ) भावी को कोई लांघ नहीं सकता ।। ८८ ।। ___ अस्मिन्काले समागते सर्वोत्तमा अपि निजसम्पदोऽत्रैवाऽवतिष्ठन्ते, पुनरेकाक्येव जीवः सर्वमपहाय परलोकमार्गे गच्छति । मृत्यु के समय आने पर सर्व-श्रेष्ठ भी अपनी धन-दौलत यहीं रह जाती है, फिर जीव सब छोड़ कर अकेला ही परलोक में जाता है। तदुक्तञ्चकहा भी है किएतानि तानि नव - यौवन - गर्वितानि, मिष्टान्न . पान . शयनासन - लालितानि । हारार्द्ध . हार - मणि - नूपुर - मण्डितानि, भूमौ लुठन्तिकिल तानि कलेवराणि ॥ ८ ॥ For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०८ श्री कामघट कथानकम जिन सजीव शरीरों ने एक दिन चढ़ती जबानी की उमंगों में गीले होकर मिष्टान्न खाए, मीठा, सुगन्ध और शीतल जल पान किए, मुलायम बिस्तरों पर सोए और सुन्दर चिकने आसनों पर बैठे तथा खुब मौज उड़ाए, बड़े और छोटे सुवर्ण के हारों और मणियों से तथा नूपुर (पविजेव ) से अपने को सुशोभित किए, हाय ! प्राण-पखेरू उड़ने पर आज वे हो शरीर भूमि पर लोट रहे हैं ।। ८६ ।। अपि चऔर भीचेतोहरा युवतयः स्वजनोऽनुकूलः, सदबान्धवाः प्रणय-गर्भ-गिरश्च भृत्याः । गर्जन्ति दन्ति-निवहास्तरलास्तुरंगाः, सम्मीलने नयनयोनहि किञ्चिदस्ति ॥१०॥ चित्त को चुराने वाली युवतियां, अनुकुल आचरण करने वाले अपने परिवार के लोग, अच्छे सगेसंबन्धी, प्रेम-पूर्वक मीठे बोलने वाले नौकर-चाकर, गरजते हुए हाथियों के झुण्ड और खूब वेग (चाल) वाले घोड़े, ये सब आँखें मुंद जाने ( मरने ) पर कुछ नहीं हैं ।। ६० ॥ पुनरप्यस्मिन्संसारे कतिपयेऽज्ञाः सुखं मत्वा संतिष्ठन्ते, परं शोकचिन्तादुःखादिदोषपरिपूर्णेऽत्र संसारे किं किमपि सुखमस्ति ? फिर भी इस संसार में कितने मूर्ख सुख मानकर रहते हैं, लेकिन शोक, चिन्ता, दुःख आदि दोषों से पूर्ण इस संसार में क्या कुछ भी सुख है ? यतःक्योंकि दुःखं स्त्री-कुक्षि-मध्ये प्रथममिहभवे गर्भवासे नराणां, वालत्वे चापि दुःखं मल-लुलित-वपुः स्त्रीपयःपानमिश्रम् । तारुण्ये चाऽपि दुःखं भवति विरहजं वृद्धभावोऽप्यसारः, संसारे रे मनुष्या वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किञ्चित् ॥ ११ ॥ For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६ भी कामघट कथानकम् पहले इस जन्म में माता की कुक्षि में गर्भ में रहने से दुःख होता है, फिर बचपन में पेशाब-टट्टी से लिपटाया हुआ शरीर और माता के दूध पीने का दुःख रहता है, फिर जबानी में स्त्री-वियोग-जनित दुःख होता है और बुढ़ापा में तो कुछ सार ही नहीं है, इसलिए, हे लोगो! बोलो तो सही कि-संसार में जरा सा भी सुख है ? ।। ६१ ॥ अन्यदपिऔर भीनिद्रव्यो धन-चिन्तया धनपतिस्तद्रक्षणे चाकुलो, निःस्त्रीकस्तदुपाय-संगत-मतिः स्त्रीमानपत्येच्छया। प्राप्तस्तान्यखिलान्यपीह सततं रोगैः पराभूयते, जीवः कोऽपि कथंचनाऽपि नियतं प्रायः सदा दुःखितः ॥ १२ ॥ निर्धन धन की चिन्ता से और धनी उसकी रक्षा में व्याकुल रहता है, बिना स्त्री का स्त्री-प्राप्ति के लिए और स्त्रीवाला सन्तान के लिए प्रायः बेचैन रहता है, कदाचित् इन चीजों को मिलने पर भी प्राणी सर्वदा रोगों से पीड़ित रहता है, वास्तव में कोई भी जीव किसी तरह भी निश्चय करके प्रायः सदा दुःखी ही रहता है ।। १२॥ तथा चऔर भीदारिद्रयाकुलचेतसां सुत-सुता-भार्यादि-चिन्ताजुषां, नित्यं दुर्भर-देह-पोषण-कृते सत्रिंदिवं खिद्यताम् । राजाज्ञा-प्रतिपालनोद्यतधियां, विश्राम-मुक्तात्मनां, सर्वोपद्रव-शंकिनामघभृतां धिग्देहिनां जीवनम् ॥ ३॥ गरीबी से व्याकुल-चित्त वाले, लड़का-लड़की-सी आदि की चिन्ताओं से युक्त और प्रति दिन हैरानी से देह को पालन-पोषण के लिए दिन-रात खेद पाने वाले, राजा की आज्ञा को पालन करने में सतर्क रहने वाले, आराम से रहित जीषों के, सभी तरह उपद्रव की शंका करने वाले पापी प्राणियों के जीवन को धिक्कार है ।।६३॥ For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११० श्री कामघट कथानकम पुनरत्र वृद्धावस्थायां स्वार्थ विना स्ववल्लभास्तनयादयोऽप्यवज्ञां कुर्वन्ति, तदपि महत्कष्टमेव जनो भजति । फिर, यहां बुढ़ापा में अपना मतलब के बिना अपनी स्त्री और लड़के आदि भी अनादर करते हैं, वह भी महान् कष्ट ही है, जिसे लोग भोगते हैं। उक्तञ्चकहा भी हैगात्रं संकुचितं गतिर्विगलिता दन्ताश्च नाशं गताः, दृष्टिभ्रंश्यति वर्द्धते बधिरता वक्त्रं च लालायते । वाक्यं नैव करोति बान्धवजनः पत्नी न शुश्रूषते, धिक् कष्टं जरयाऽभिभूतपुरुषं पुत्रोऽप्यवज्ञायते ॥ ६४ ॥ शरीर सिकुड़ गया, चलने-फिरने की शक्ति भी बहुत कमजोर पड़ गई, दांत टूट गए, आंखों की रोशनी कम हो गई, बहरापन बढ़ने लगा और मुंह से लार टपका पड़ती हैं, सगे-संबन्धी कहे हुए नहीं करते और स्त्री भी सेवा नहीं करती, ऐसे बुढ़ापा से पीड़ित पुरुषों को धिक्कार है ! हाय ! और इस से अधिक कष्ट क्या है कि उसे प्रायः पुत्र भी अनादर करता है ।। ६४ ।। ततो भो भन्यप्राणिनः ! यूयं भवभ्रमणहेतुं मिथ्यात्वभ्रमं परित्यजत । इसलिए, हे भव्य प्राणियो ! तुम लोग संसार में जन्म-मरण लेने का कारण मिथ्यात्व-संदेह को छोड़ दो। यतःक्योंकिमिथ्यात्वं परमो रोगो, मिथ्यात्वं परमं विषम् । .. मिथ्यात्वं परमं शत्रु-मिथ्यात्वं परमं तमः ॥ ६५ ॥ मिथ्यात्व महान रोग है, मिथ्यात्व महान् विष है, मिथ्यात्व भारी वुश्मन है और मिथ्यात्व धोर अन्धकार है ।। ६५॥ अन्यच्च :और भी: For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १११ श्री कामघद कथानकम् जन्मन्येकत्र दुःखाय, रोगः सर्पो रिपुर्विषम् । अपि जन्मसहस्रेषु, मिथ्यात्वमचिकित्सितम् ॥६६॥ रोग, सर्प, शत्रु और विष ये एक जन्म में ही दुःख दायक हैं, लेकिन इजार जन्मों में भी मिथ्यात्व ( असत्य धर्म ) अचिकित्सित ( लाइलाज ) है ॥६६॥ अतः सर्वसंपद्धतुकं स्वर्गापवर्गभवनैककारणमिहापि सर्वसौख्यप्रदायकमेवंविधं सम्यक्त्वं भजत । इसलिए, सब संपत्ति का कारण, स्वर्ग और मोक्ष होने का एक कारण, यहां भी सभी सुखों को देने वाले सम्यक्त्व की सेवा करो। यतःक्योंकिमूलं बोधि-द्रुमस्यैतद् द्वारं पुण्य-पुरस्य च । पीठं निर्वाण-हर्म्यस्य, निधानं सर्वसंपदाम् ॥ ७ ॥ यह ( सम्यक्त्व ) ज्ञानरूपी झाड़ की जड़ है, पुण्य-नगर में जाने के लिए दरवाजा है, मोक्षरूपी महल में बैठने के लिए पीढ़ा है और सारी सम्पत्तियों का खजाना है ।।६७॥ तथा चऔर भीगुणानामेक आधारो, रत्नानामिव सागरः । पात्रं चारित्र-वित्तस्य, सम्यक्त्वं श्लाघ्यते न कैः ? ॥ ६ ॥ जैसे सभी रत्नों का आधार समुद्र है वैसे सम्यक्त्व सारे गुणों का आधार है और चारित्र रूपी धन का पात्र है, अतः सम्यक्त्व की तारीफ कौन नहीं करता ॥१८॥ एवंभृतं सम्यक्त्वमङ्गीकृत्य देवगुरुधर्मान् सम्यक सुपेन्य च शिवसुखं भवन्तः साधयन्तु । विषयविकारानपनीयाणुत्रतादीन् द्वादशव्रतानङ्गीकुरुत यत एष एव मुक्तेः शुद्धपथः । पुनर्यः प्राणी प्रेम्णा पंचमहाव्रतं परिपालयति, स तु भवान्तं विधायोत्तमा मोक्षगतिं प्राप्नोति । येन प्राणी राग For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११२ श्री कामघट कथानकम द्वेषादिकर्मशत्रून्विजित्य शाश्वतीं मोक्षश्रीलोलामामोति, एवं द्विविधो धर्मः पूर्वैः सुज्ञानिपुरुषोत्तमैः प्रतिपादितः। पापेन च दुःखमेव भवति, अतोऽधर्म परित्यजत। ये खलु पापरागिणस्तेऽधमां गतिं यास्यन्ति । पुनर्ये पापिनस्त दुःखनिलया भूत्वाऽनन्तकालं भवे भ्रमिष्यन्ति । अतएव ये भन्याः सम्यक् परीक्ष्य धर्ममाश्रयिष्यन्ति ते भवसागरतीरं लब्ध्वा शिवलक्ष्मी वरिष्यन्त्येव यतः प्राणिनां धर्म एव सर्वसुखखनिः, धर्मेण हि सुरसम्पदो भवन्ति । अतो धरायां सारभूतं धर्म ज्ञात्वा यथाविधि त्वरितं तं निषेवध्वम् । - ऐसे सम्यक्त्व (सञ्चा धर्म ) को अंगीकार कर और देव-गुरु-धर्मों को अच्छी तरह सेवा कर आप लोग परम सुख-शान्ति ( मोक्ष ) की साधना करें। विषय-वासना के विकारों को छोड़ कर अणुव्रत आदि बारह व्रतों को स्वीकार करें, क्योंकि यही रास्ता संसार से (जन्म-मरण आदि क्लेश से ) छुटकारा पाने के लिए सीधा रास्ता है। फिर जो प्राणी प्रेम से पंच महाव्रत ( अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ) को अच्छी तरह निभाता है, वह संसार (जन्म-मरण-जनित-दुःख ) को खत्म करके मोक्ष को प्राप्त होता है। और जिस सम्यक्त्व से प्राणी राग-द्वेष आदिक कर्म-शत्रु को जोत कर शाश्वती ( निरन्तर रहनेवाली) मोक्ष-लक्ष्मी को प्राप्त होता है। इसतरह उत्तम ज्ञान वाले पूर्वाचार्यों ने दो प्रकार के धर्म बतलाए हैं। और पाप से दुःख ही होता है, इसलिए, अधर्म को छोड़ दीजिए। जो कोई पाप के रागो हैं, वे नीच गति को जाते हैं और जो पापी हैं वे दुःखों के घर होकर बहुत समय तक संसार में भटकते रहेंगे और जो भव्य (श्रद्धालु धार्मिक) अच्छी तरह परीक्षा करके धर्म की शरण लेंगे, वे संसार-सागर को पार कर मोक्ष-लक्ष्मी को अवश्य बरेंगे, क्योंकि, प्राणियों के सारे सुखों की खान धर्म ही है,धर्म से दैवीसम्पत्तियां होती हैं। इसलिए, पृथिवी में धर्म को सर्वश्रेष्ठ जानकर यथोचित रूप से शीघ्र सम्यक्त्व की सेवा करें। यतःक्योंकिविलम्बो नैव कर्त्तव्यः, आयुर्याति दिने दिने । न करोति यमः शान्ति, धर्मस्य त्वरिता गतिः ॥ ६ ॥ दिन-दिन आयु क्षीण होती जा रही है, अतः सद्धर्म-आराधन में देर नहीं करनी चाहिए, मौत किसी को माफी नहीं देती, धर्म की गति शीघ शीघ होती है अतः धर्माचरण में शीघ्रता करनी चाहिए ।। ६६ ।। पुनरनेकभययुतं भोगादिकं सर्व परित्यज्य निर्भयं परमसारभूतं वैराग्यधर्ममेव भजध्वम् । For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् ११३ और अनेक भय से युक्त भोग आदि सब को छोड़ कर निर्भय होकर सर्वश्रेष्ठ वैराग्य धर्म को ही सेवन किया करें। यतः क्योंकिभोगे रोगभयं सुखे क्षयभयं वित्तेऽग्निभूभृद्भयं, माने म्लानिभयं जये रिपुभयं वंशे कुयोषिद्भयम् । दास्ये स्वामिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं, सर्व नाम भयं भवेदिह नृणां वैराग्यमेवाभयम् ॥ २० ॥ भोग में रोग का, सुख में क्षय का, धन में राजा और अग्नि का, मान में प्लानि का, जय में शत्रु का, वंश में खराब स्त्री का, सेवा में स्वामी का, गुण में खल का, शरीर में मृत्यु का भय है,-यानी मनुष्यों को इस संसार में सभी कुछ में भय ही है, परन्तु, एक वैराग्य ही अभय है ॥ २०० ॥ भो भन्याः ! बहूक्तेन किम् ? परभवे सुखोपलब्धये धर्मसंबलं गृह्णन्तु, यतोऽत्रापि संवलं विना कोऽपि नरः कदापि पन्थानं नो गच्छति, तर्हि दीर्घादृष्टपरलोकमार्गस्यात्रैव संबलं किन्न गृहीतव्यम् ? यतो ग्रामान्तरं गच्छतः कुत्रापि पाथेयं मिलति, परत्र गन्तुस्तु नैव । हे भव्य लोको ! अधिक कहने से क्या ? दूसरे जन्म में सुख-प्राप्ति के लिए धर्म-रूप संबल ( रास्ताखर्चा-बटखर्चा ) ग्रहण करो, क्योंकि, यहां भी कोई भी व्यक्ति बिना रास्ता-खर्चा के कभी भी मुसाफिरी नहीं करता तो फिर बहुत-लम्बे और अदृष्ट परलोक के मुसाफिरी का खर्चा ( सत्य धर्म ) यहीं क्यों नहीं ले लेते, क्योंकि, और दूसरे ग्राम में जाने वालों को रास्ता में कहीं ( बस्ती में ) कुछ खर्चा मिल भी जाता है, परन्तु परलोक में जाने वालों को तो नहीं मिलता है। यतः क्योंकिग्रामान्तरे सर्वोऽपि लोक विहित-संबलकः इह रूढिरिति प्रयाति, प्रसिद्धा । For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११४ मूढस्तु पाथेयमात्रमपि श्री कामघट कथानकम दीर्घ - परलोक - पथ - प्रयाणे, नैव च लात्यधन्यः ॥ १॥ प्रायः सभी लोग दूसरे दूर गांव में जब जाते हैं, तब, कुछ न कुछ रास्ता का खर्चा अवश्य लेकर जाते हैं, यह बात लोक में प्रसिद्ध है, किन्तु बहुत-से महा मूर्ख अभागे परलोक गमन रूपी लम्बी मुसाफिरी के लिए थोड़ा भी रास्ता-खर्चा ( सद्धर्म-सम्यक्त्व-सम्यक् धर्म ) नहीं ग्रहण करते ॥१॥ - ततो राज्ञा पृष्टम्-हे भगवन् ! मया पूर्वभवे किं कर्म कृतम् ! येन मे धर्मोऽत्र नाभीष्टो जातः, अनेन च सचिवेन कीदृशं कर्म कृतम् ? येनेदृशी महती समृद्धिः पदे पदे प्राप्ता । ततः केवली पाह-हे राजन् ! युवयोः पूर्वभवसंवन्धिनिखिलवृत्तान्तो मया निगद्यते, अतः सावधानत्वेन शृणुताम्-युवा पूर्वभवे सुन्दरपुरन्दरनामानौ भ्रातरावेवाभवताम् । सुन्दरस्तु मिथ्यात्वमोहितत्वादज्ञानकष्टकर्ता तापसो जातस्तत्र वनस्पतिच्छेदनभेदनजलक्रीडादिदुष्कर्मणा पुनर्भृशं मिथ्यामतिसंगं प्राप्याज्ञानतपसा च सर्वाणीन्द्रियाणि वशीचकार । अङ्गारधानिकां शुष्कगोमयं वनफलपुष्पाणि मृत्तिका विभूति च प्रत्यहमुपयुज्य जटाधरोऽवधूतोऽभूत् । ऊध्येबाहुस्तथैवाधोमुखो भूत्वाऽज्ञानतपसा पंचानीन् साधयति स्म । मौनमेव सदा रक्षति स्म, पुनर्भवान् केशांश्च वधेयति स्म, कन्दमूलानि संभक्ष्य २ कायं कृशीकरोति स्म। षट्कायजीवान् विराधयति स्म, दया तु न कदाऽपि हृदये धारयति स्म. शौचधर्ममहर्निशं समाद्रियते स्म । एवं मिथ्यात्वानुवन्धिनी पापक्रियां समाचरन्नायुषः क्षये मृत्वाऽज्ञानतपसोऽनुभावादयं त्वं पापबुद्धिनामा राजाऽभूः। पुनः पुरन्दरस्तु जैनसाधुसंगत्या तदुपदेशानुसारेण जिनप्रासादं कारयितुं प्रारंभं कृतवान, अर्द्धनिष्पन्ने च जिनप्रासादे तेनैवंविधः संशयः कृतो यन्मया सहस्रशो द्रव्यव्ययं कृत्वा प्रासादं कारयितुं प्रारन्धमस्ति, परमेतन्निर्मापणेन मे किमपि फलं भविष्यति नवेति संशयकरणानन्तरं पुनस्तेन चिन्तितम्–हा ! मया व्यलीकं ध्यातम् , यतो:देवनिमित्रं कृतं कार्य कदाऽपि निष्फलं न यातीति मे प्रासादनिर्माणफलं भविष्यत्येवेति विचिन्त्य तेन नैर्मल्यपूर्णभावेन तं जिनप्रासादं समाप्य ततः कस्यचिद् ज्ञानवतः सद्गुरोःसनिधौ महोत्सवपूर्वकं बहुद्रव्यन्ययेन सांजनशलाका प्रतिष्ठां विधाय जिनबिम्बानि स्थापितानि । तथैवान्यमपि श्रीजैनधर्मोन्नतिजिनप्रासादबिम्बप्रतिष्ठातीर्थयात्रागुरुभक्तिसाधर्मिकवात्सल्यपौषधशालानेकदीनदानादिबहुविध धर्म कृत्वा, ततोऽन्ते निजायुषःक्षये स पुरन्दरजीवस्तु सुखसमा For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् ११५ धिना मृत्वा ते समृद्धिमान् धर्मबुद्धिनामा मन्त्री जातः, एवं येन यादृशानि कर्माणि कृतानि तेन तादृशान्येवात्र फलानि प्राप्तानि । अथ जिनदीक्षां गृहीत्वा सत्तपस्तप्त्वा केवलज्ञानमासाद्य, हे राजन् ! अस्मिन्नेव भवे युवां मोक्षं गमिष्यथः । अतो रोगशोकादिदौर्भाग्याणां हर्ता भवदुःखविनाशकः परमानन्ददायकश्चैवंविधो धर्मः सहर्ष मोक्षार्थि प्राणिभिः सदैव कर्तव्यः 1 केवलमुनि की ऐसी धर्म देशना सुनने के बाद सभा के सब लोग केवलीमुनि को बन्दना कर और यथाशक्ति नियम-तों को स्वीकार कर अपने अपने स्थान को चले गए । उसके बाद राजाने पूछा --हे भगवन् ! मैंने पूर्व जन्म में कैसा कर्म किया है ? जिस से मुझे धर्म में रुचि नहीं हुई और इस मंत्रीने कैसा कर्म किया है, जिससे इसको पद-पद में ऐसी सम्पत्ति मिली। तब केवली महाराज कहने लगे - हे राजन् ! तुम दोनों के पूर्वजन्म की सारी बातें मैं कहता हूँ, सावधान र सुनो —- तुम दोनों पूर्वजन्म में सुन्दर और पुरन्दर नाम के दो सगे भाई हुए । लेकिन 'सुन्दर मिथ्यात्व से मोहित होकर अज्ञानता से अपने शरीर को कष्ट देने वाला तापस हो गया, वहां वनस्पतिओं को काटनेछाटने और जल-क्रीड़ा आदि दुष्कर्म से फिर अधिक मिथ्या बुद्धि को प्राप्त करके अज्ञान तपस्या के बल से सभी इन्द्रियों को वश कर लिया। सूखे गोइठे, आग की धुनी, बन के फल-फूल, मिट्टी और बिभूत भस्म ) को प्रति दिन उपयोग में लाकर जटाधारी अवधूत ( बाबा ) बन गया। दोनों हाथ ऊपर और मुंह को नीचा कर अज्ञानता - जनित तपस्या के द्वारा पश्चामि ( चारों ओर चार और एक बीच में जलती हुई) को साधने लगा । हमेशा मौन रहने लगा, नाखून और बालों को बढ़ाने लगा । कन्द-मूल खा-खा कर शरीर को पतला करने लगा। छः काय जीवों को विराधना करने लगा, दया हृदय में कभी नहीं रखने लगा, स्नान आदि बाह्य शुद्धि को खूब करने लगा, इसतरह मिथ्यात्व में बांधने बाली पाप-क्रियाओं को आचरण करता हुआ अंत में मरकर अज्ञान-तपस्या के बदौलत यह तुम पापबुद्धि नाम का राजा हुए। और फिर पुरन्दर जैन साधुओं की संगति से उनके उपदेश के अनुसार जिन-मन्दिर करवाना शुरु किया, मन्दिर के आधा तैयार होजाने पर इसने ऐसी शंका की कि मैंने जो हजारों रुपये खर्च करके जिनमन्दिर बनवाना आरम्भ किया है, उसके तैयार होजाने पर मुझे कुछ भी फल मिलेगा या नहीं, इस तरह शक-सन्देह करता हुआ उसने फिर ऐसा विचार किया कि - हाय, मैंने झूठी धारणा की, क्योंकि, देवता के निमित्त किया हुआ काम कभी निःफल नहीं होता, इसलिए, मुझे मन्दिर बनवाने का फल मिलेगा ही, ऐसा विचार कर उसने निर्मल भाव से उस जिन मन्दिर को पूरा कर फिर किसी ज्ञानी सद्गुरु के पास में महान उत्सव के साथ बहुत-द्रव्य खर्चा कर अंजन शलाका के साथ प्रतिष्ठा करवा कर जिन-मूर्तियां स्थापित करवाई । उसी तरह अन्य भी जिनधर्म की उन्नति में, जिनमन्दिर, बिम्बप्रतिष्ठा में, तीर्थ-यात्रा में, गुरु-भक्ति में, सामी-बच्छल में, पोषधशाला में, दुनियों को दान में इत्यादि अनेक धार्मिक कार्य कर फिर अन्य में अपनी आयु की समाप्ति में वह पुरन्दर का जीव सुख -समाधि पूर्वक मरकर For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् तुम्हारा सम्पत्तिशाली मंत्री हुआ। इसीतरह जिसने यहां जैसा कर्म किया है, उसे वैसे ही फल मिलते हैं। अब, हे राजन् ! जिन-दीक्षा लेकर, अच्छी तपस्या के द्वारा केवलज्ञान को प्राप्त कर इसी जन्म में तुम दोनों मोक्ष को जाओगे। इसलिए, रोग-शोक आदि बद-नशीबी को दूर करने वाला संसार के दुःखों का विनाश करनेवाला परम-आनन्द-दायक वास्तविक-धर्म को मोक्ष के अभिलाषी प्राणियों को सर्वदा हर्षपूर्वक करना चाहिए। यतः क्योंकिदोपो हन्ति तमःस्तोम, रसो सुधाबिन्दुर्विषावेगं, धर्मः रोगमहाभरम् । पापभरं तथा ॥२॥ दीप भारी अँधेरे को नष्ट कर डालता है, रस ( महामृत्युंजय-मकरध्वज आदि ) बड़े बड़े रोगों को नेस्तनाबूद कर देता है, जहर की बेजोड़ असर को अमृत की बूंद गायब कर देती है, उसी तरह पाप की ढेर को धर्म विनाश कर ढालता है ।। २॥ सर्वाणि परमप्रभुतास्पदानि स्वर्गस्थानं शिवं सौभाग्यं चैतत्सर्व भो भूपाल ! प्राणिना धर्मप्रसादेनैव लभ्यते । इत्थं केवलिनोपदिष्टं भक्वैराग्यजनकं स्वपूर्वभवं द्वावपि राजमन्त्रिणौ श्रुत्वा सुश्रावकद्वादशव्रतान्यंगीकृत्य तं केवलिनं सम्यक् शिरसाभिनम्य परावृत्तौ, तदनु भन्याङ्गिनामुपकाराय स्वपदाम्बुजन्यास तलमलंका केवल्यप्यन्यत्र विजहार । हे राजन् ! सभी बड़े बड़े शक्तियों के स्थान, स्वर्ग, मोक्ष और खूब अच्छा भाग्य-नशीब, ये सब लोगोंको धर्म के प्रसाद से प्राप्त होते हैं । इसतरह केवली मुनि के द्वारा कहे हुए संसार से वैराग्य करने वाले अपने पूर्व-जन्म को राजा और मंत्री दोनों सुनकर अच्छे श्रावक के योग्य बारह व्रतों को स्वीकार कर उस केवली महाराज को अच्छी तरह मस्तक नवा कर लौट आए। उसके पीछे भव्य प्राणियों के उपकार के लिए अपने चरण कमलों को रखने से भूतल सुशोभित करने के लिए केवली भी दूसरी जगह विहार करने लगे। अथ राजा प्रधानश्च द्वावपि केवलिसमीपे गृहीतान् द्वादशव्रतान् निरतिचारं पालयन्तौ न्यायपूर्वकं राज्यं च कुर्वन्तौ.सुखेन बहुकालं गमयतः स्म । अथान्यदा कस्यचिद् ज्ञानिगुरोः For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् ११७ सकाशे राजमन्त्रिणौ सदुपदेशमुपलभ्य वैराग्यरागेण स्वात्मानमभिरज्य स्वस्वसुताय स्वस्वपदवीं समर्प्य दीक्षां गृहीत्वा ज्ञानतपस्तप्त्वा निरतिचारं चारित्रं सम्यक् परिपाल्य केवलज्ञानञ्चासाद्य मोक्षं जग्मतुः। अतएव भो भव्यप्राणिनः ! उभयलोके जयकारि धर्मफलं ज्ञात्वा पापमतिमपनीय तमनिशमेव त्रियोगेनाराधयत । मोक्षमार्गञ्च साधयत, सर्वदा शुद्धं श्रीजिनभाषितं जगजनतारकं दुर्गतिनिवारकं धर्म धारयत । तेन युष्माकमपि राजमन्त्रिणोरिव कर्मभ्यो मोक्षो भविष्यति, पुनर्यो धर्मकर्माणि विधत्ते तस्याऽस्मिन्नपि भवे समस्तं वांछितं भविष्यत्येव । अनन्तर राजा और मंत्री दोनों भी केवली के समीप में लिए हुए बारह व्रतों को अतिचार रहित पालन करते हुए और नीति पूर्वक राज्य करते हुए सुख से बहुत समय व्यतीत किए। फिर किसी समय किसी ज्ञानी गुरु के पास में अच्छा उपदेश पाकर वैराग्य-राग से अपनी आत्मा को अच्छी तरह रंग कर अपने अपने लड़के को अपना अपना पद देकर और स्वयं दीक्षा लेकर ज्ञान तप तपकर अतिचार-रहित चारित्र को अच्छी तरह पालन कर और केवल-ज्ञान को प्राप्त कर मोक्ष को चले गए। इसलिए, हे भव्य प्राणियों ! दोनों लोक में जय करने वाला धर्मफल को जानकर पापवाली बुद्धि को छोड़ कर दिन-रात उस सद्धर्म को ही मन-वचन और काया से आराधना करो। मोक्ष-मार्ग की साधना करो, सर्वदा शुद्ध, जिनेन्द्र से कहा हुआ, संसार से जीव को तारने वाला और दुःखों को हटाने वाले सद्धर्म को धारण करो। इससे आप लोगों को भी राजा-मंत्री की तरह मोक्ष हो जायगा और जो कोई अच्छा धर्म-कर्म करता है, उसको इसी जन्म में सभी अभिलाषा पूरी हो जाती ही है। यतः-- क्योंकि आरोग्यं सौभाग्यं, धनाढ्यता नायकत्वमानन्दाः । कृतपुण्यस्य स्यादिह, सदा जयो वाञ्छितावाप्तिः ॥ ३॥ पुण्य ( धर्म ) करने वालों को आरोग्य, सौभाग्य, धन-दौलत बड़प्पन-नेतृत्व, आनन्द, जय और अभिलाषा की पूर्ति सर्वदा होती है ॥ ३ ॥ किं बहुना ? सर्वेषां प्राणिनां पुण्येनैव सर्वे मनोरथाः पूर्णा भवन्ति, अतो मिथ्यात्वं सांसारिकसर्वखेदञ्च परित्यज्य हृदि सन्तोष निधाय सर्वेष्टदं पुण्यं कुरुत । For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ११८ श्री कामघट कथानकर्म अधिक क्या ? सभी प्राणियों की सारी मनःकामनाएं पुण्य ( सद्धर्म) से ही पूरी होती हैं; अतः, मिथ्यात्व को और सांसारिक सारे शोक को छोड़ कर हृदय में सन्तोष रख कर सारे मनोवाञ्छित को देने बाले पुण्य ( सद्धमं ) किया करो । उक्तञ्च कहा भी है रम्येषु रे चित्त ! www.kobatirth.org वस्तुषु खेदमुपयासि कुरुष्व यदि तेषु नहि पुण्यं पुण्यैर्विना मनोहरतां किमत्र तवाऽस्ति व्यतानिषं, भवन्ति पूर्व संकुचिता बहु- त्रुटि-गता या सयुक्त्या निजया च पूर्वरचितै संगृह्यात्र विवर्द्धिता विजयराजेन्द्रेण नेयं भव्यजनताबोधाप्तये कामघटस्य मेरे मन ! चित्त को चुराने वाली सुन्दर चीजों को देख कर ( और उसे नहीं पाकर ) तुम दुःख पाते हो, तो इस में आश्चर्य क्या ? दुःख होना ही चाहिए, मगर यदि उन सुन्दर-सुन्दर चीजों को पाने के लिए. तुम्हारी इच्छा है, तो पुण्य किया करो, क्योंकि, पुण्यों के बिना मुरादें पूरी नहीं होतीं ॥ ४ ॥ 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गतेषु, चित्रम् ? वाञ्छा, समीहितार्थाः ॥ ४ ॥ साऽन्यशास्त्रत्रजैः, रासोद्भवैर्वर्णकैः । गच्छाधिपे सत्कथा ॥ ५ ॥ पहले यह "कामघट - कथानक " नाम का ग्रन्थ संकुचित ( संक्षिप्त छोटा ) रूप में था और इस में कई त्रुटियां थीं, उसको गच्छाधिपति श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वर ने पूर्वाचार्य रचित प्रासंगिक समुपयुक्त सुन्दर शब्द- अर्थ - विभूषित अन्य शास्त्रों से और अपनी अच्छी युक्ति से संग्रह ( इकट्ठा ) करके भावुक - जनता के बोध के लिए, विशेष रूप में बढ़ाया ॥ ५ ॥ दीपविजयमुनिनाऽहं विज्ञप्तो गुलाब विजयेन कामघटकथामिमां For Private And Personal Use Only शिष्ययुगलेन । रम्याम् ॥ ६ ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भी कामघट कथानकम् ११६ मुनि दीप विजय तथा मुनि गुलाब विजय, इन दोनों शिष्यों के विशेष आग्रह से मैं ( श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वर ) ने इस सुन्दर “कामघट कथानक” को विस्तार किया ॥ ६ ॥ ।। इति पापधर्मपरीक्षायां पापबुद्धी राजा धर्मबुद्धिश्च मन्त्री तत्सम्बन्धिनीयं कामघटकथा समाप्ता ॥ इसतरह पाप-पुण्य की परीक्षा में पापबुद्धि राजा और धर्मबुद्धि मंत्री के सम्बन्ध में यह कामघट कथानक" समाप्त हुआ। समाप्त ATRE सर्वे भवन्तु सर्वे भद्राणि सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । पश्यन्तु सदाचारं चरन्तु च ॥ For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सीता का पति प्रेम । क्या आप आदर्श दाम्पत्य जगत के लिये सर्वश्रेष्ठ उपादेय और दो विभिन्न गुण कम स्वभावादिसम्पन्न आत्माओं का अन्तःकरण से अनुराग राग में रंजित कर पारस्परिक हस्त-मिलन करके आजन्म के लिये मैत्राचार का पालन करनेवाली, दाम्पत्य जीवन में अडिग भाव से दृढ़तापूर्वक कर्तव्य पथ पर बढ़ती हुई दो सौभाग्य-शील-शाली आदर्श आत्माओं के सम्मेलन करना चाहते हैं ? क्या आप शुद्ध और सात्विक दाम्पत्य प्रेम का रसास्वादन और आनन्दानुभव करना चाहते हैं ? आप मानव हृदय की कोमलता, सरसता और कारुण्यपरता की सरिता (नदी) में गोता लगा कर संयोग और वियोग की अट्टालिका पर चढ़ कर सुख और दुःख में “समता" का आनन्दानुभव करना चाहते हैं क्या ? तो आर्य संस्कृति, सभ्यता और वेश भूषा का प्रतीक, भारतीय शिक्षा दीक्षा का निदर्शक, मानव और मानव समाज की शारीरिक, मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक विकास पर अग्रसर करने वाला, मानव-जीवन-संग्राम में “दाम्पत्य-जीवन" की सर्व श्रेष्ठता का आदर्श प्रदर्शन करने वाला, नारी संसार में भारतीय-हिन्दू-महिलाओं, ललनाओं द्वारा तहलका मचा देने वाला, कर्तव्य पथ का ज्ञान करा देने वाला, अर्वाचीन कालीन “दाम्पत्य जीवन" की शुष्कता को सरसता में ओत-प्रोत करने का मार्ग प्रदर्शन करने वाला "भारत-गौरव-ग्रन्थमाला" में प्रकाशित होने वाले श्रीयुत इन्द्रचन्द्र नाहटा द्वारा लिखित 'सीता का पति प्रेम" को अवश्य ही अवलोकन ( अध्ययन ) कीजिये। २, चर्च लेन, कलकत्ता। मार्गशीर्ष पूर्णिमा, १० डिसेम्बर, १९५४ । निवेदकनागरी साहित्य संघ । For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कलकत्ता OS For Private And Personal use only