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श्री कामघट कथानकम्
मञ्जूषां च भक्त्वा बहून् सुभटानिजित्य तेन संघपतिनातियत्नेन रक्षितं कामघटं गृहीत्वा पश्चात्चरितमागतः। ततो हर्षेण तेन घटेन मन्त्रिणे भोजनं दत्तम् । अथ मन्त्री वस्तुत्रयं लात्वा स्वनगरं न्यवर्तिष्ट । पथि चलन् विचारयति स्म मे धर्मप्रभावतः सर्वाशा धर्मप्रतिज्ञा च सम्पूर्णा जाता । पुनस्संसारे यावन्ति सद्वस्तूनि प्राप्यन्ते तत्समस्तं सद्धर्ममाहात्म्येनैव ।
इस लिए मुझे भोजन दो, दण्डने कहा-यह मेरी शक्ति नहों, यदि तुम कहो तो भोजन देने वाले कामघट को ला दूं, ऐसा कहने पर मंत्री चुप रह गया। तब दण्ड स्वयं ही कामघट लाने के लिए पक्षी के जैसा आकाश में उड़कर संघ के बीच में चला गया। संघ के पास में रहे हुए योद्धाओं को मार पीटकर उनकी तलवार वरछी आदि को तिरस्कार कर पेटी को तोड़कर बहुत वीरों को जीतकर उस संघपति से यत्नपूर्वक रखे हुए कामघट को लेकर शीघ्र चला आया। फिर हर्ष से उस कामघट ने मंत्री को भोजन दिया। फिर मंत्री उन तीनों वस्तुओं को लेकर अपने नगर को लौटा। रास्ता में चलता हुआ विचार करने लगा-धर्म के प्रभाव से ही मेरी सारी आशाएँ और प्रतिज्ञा पूरी हुई और इस संसार में जितनी अच्छी वस्तुएँ मिलती हैं वे सब धर्म के माहात्म्य से ही मिलती हैं।
तदुक्तं च-- कहा भी हैजैनो धर्मः प्रकट-विभवः सङ्गतिः साधु-लोके, विद्वद्गोष्ठी वचन-पटुता कौशलं सर्व-शास्त्रे । साध्वी लक्ष्मीश्चरण-कमलोपासना सदगुरूणां, शुद्धं शीलं मतिरमलिना प्राप्यते भाग्यवद्भिः ॥ ७४ ॥
जैनधर्म, ऐश्वर्य, साधुओं की संगति, विद्वानों की सभा, वचन की चतुराई, सभी शास्त्रों में कुशलता, स्थिर लक्ष्मी, सद् गुरुओं के चरण कमलों की उपासना, शुद्ध शील ( सदाचरण ) और निर्मल बुद्धि ये भाग्यवान् (धर्मात्मा) ही को प्राप्त होते हैं ।। ७४ ।।
पत्नी प्रेमवती सुतः सविनयो भ्राता गुणालंकृतः, स्निग्धो बन्धु-जनः सखातिचतुरो नित्यं प्रसन्नः प्रभुः ।
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