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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् निर्लोभोऽनुचरः स्वबन्धु-सुमुनि-प्रायोपयोग्यं धनं, पुण्यानामुदयेन सन्ततमिदं कस्याऽपि संपद्यते ॥ ७५ ॥ प्यारी स्त्री, विनीत पुत्र, गुणी भाई, स्नेह करने वाला बान्धव, चतुर मित्र, खुशदिल स्वामी, लोभ रहित सेवक, अपने कुटुम्ब-परिवार और साधु-संत के योग्य धन, ये सब पुण्य के उदय से ही किसी को होते है ।। ७५॥ तथा चऔर उसीतरहयत्कल्याणकरोऽवतारसमयः खनाश्च जन्मोत्सवो, यद्रत्नादिक - वृष्टिरिन्द्र - जनिता यद्रूप-राज्य-श्रियः । यद्दानं व्रतसंपदुज्ज्वलतरा यत्केवलश्रीनवा, यद्रम्यातिशया जिने तदखिलं धर्मस्य विस्फूर्जितम् ॥ ७६ ॥ जिनेश्वर भगवान् में जो कल्याण कारी अवतार का समय हुआ, चौदह स्वप्न हुए, जन्म का महोत्सव हुआ, इन्द्र के द्वारा जो रत्न आदि की वर्षा हुई और जो रूप तथा राज्य की शोभा हुई, जो दान हुए तथा उज्ज्वल व्रतों की संपत्ति हुई और जो नई केवल ज्ञान की संपत्ति हुई तथा जो सुन्दर अतिशय हुए वह सब धर्म का ही माहात्म्य है ।। ७६ ॥ स मन्येवं धर्ममहिमानं विमृशन् परदेशादल्पदिनैरेव स्वगृहमाजगाम । अथ स राजा मन्त्र्यागमनं विज्ञाय तस्मिन्नेव दिवसे तस्य धर्माधर्मपरीक्षाकरणाथ बीजपूरकद्वयमानाय्यैकस्य बीजपूरकस्य मध्ये सपादलक्षमूल्यं रत्नं क्षिप्त्वैकस्य जनस्य हस्ते विक्रयार्थ समर्पितवान् , तस्मै चोक्तम् --शाकचतुस्पथे शाकविक्रयकारिणे त्वयैतत्समर्पणीयम् । यावत्पर्यन्तमेतत्कोऽपि न गृह्णीयात्तावत्त्वया तव प्रच्छन्नवृत्त्या स्थयम् । यदा कोऽपि गृह्णीयात्तदा तस्याऽभिधानं मदन वाच्यं, तेन जनेन समस्तं तथैव स्वीकृतम् । __ वह मंत्री इसतरह धर्म की महिमा को विचार करता हुआ परदेश से थोड़े ही दिनों में अपने घर में आगया। अनन्तर वह राजा मंत्री का आना जानकर उसी दिन में उसके धर्म-अधर्म की परीक्षा करने के लिए दो बीजपूरक (अमरुद ) मंगवा कर एक के बीच में सवा लाख मूल्य का एक रत्न डालकर बेचने For Private And Personal Use Only
SR No.020435
Book TitleKamghat Kathanakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangadhar Mishr
PublisherNagari Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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