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श्री कामघट कथानकम अथ द्वितीयदिवसे बुभुक्षितो मन्त्री दण्डं प्रति बक्ति स्म-भो दण्ड ! सर्वतोऽप्यशुभाऽसह्यवेदनाकारी क्षुधा मां बाधते ।
अब दूसरे दिन भूखा मंत्री दण्ड को कहने लगा-हे दंड ! सब से भी खराब, नहीं सहन करने योग्य वेदना वाली क्षुधा ( भूख ) मुझे सता रही है।
उक्त चकहा भी हैक्षुधे ! रण्डे ! ब्रवीषि त्वं, माततर्भगिन्यये ! । बहिष्कृतं हतं लोके, स्वस्थानं ह्यानयस्यहो ! ॥ ७२ ॥
अरी राड़ ! भूख ! हे माई, हे भाई और हे बहन, तू ही बोलती है, लोक में समाज से बाहर किये गए ओर दूर हटाए गए को तू ही अपने स्थान में लाती है, आश्चर्य है ।। ७२ ।।
अपि चऔर भीगीतं नाद-विनोद-पिण्डत-गुणाः श्रीखंड-कांताधराः, अश्व-स्यन्दन-नाग-भोग-भवनं कर्पूर-कस्तूरिके । रामा-रंग-विनोद-काव्य-करणं कामाभिलाषाऽपि च, सर्वे ते हि पतन्ति कन्दर-दरे ह्यन्नं विना सर्वथा ॥ ७३ ॥
मन हरण करने वाले अच्छे आबाज (स्वर ) से युक्त गाना, पण्डितों के गुण, श्रीखण्ड ( चन्दन ), रमणी का अधर-ओष्ठ, घोड़े, रथ, हाथी, भोग-विलास और महल, कर्पूर, कस्तूरी, विलासिनी-सुन्दरियों के साथ क्रीड़ा, (खेल-कौतुक ), काव्य का आनन्द, और काम की अभिलाषा ये सब अन्न के बिना कंदर दरी (पहाड़ के गढ ) में जा गिरते हैं ।। ७३ ॥
अतो मह्य भोजनं देहि दण्डेनोक्तम्-ममैतन्न सामर्थ्य, यदि त्वं वदेस्तहि भोजनदं कामघटमानयामीत्युक्ते मन्त्री मौन एव स्थितः । ततो दण्डः स्वयमेव कामघटमानेतुं पक्षिवदाकाशे समुड्डीय संघमध्ये गतः । पार्श्वस्थान् सुभटानाहत्य तेषां खड्गखेटकादीन् तिरस्कृत्य
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