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श्री कामघट कथानकम्
तुम्हारा सम्पत्तिशाली मंत्री हुआ। इसीतरह जिसने यहां जैसा कर्म किया है, उसे वैसे ही फल मिलते हैं। अब, हे राजन् ! जिन-दीक्षा लेकर, अच्छी तपस्या के द्वारा केवलज्ञान को प्राप्त कर इसी जन्म में तुम दोनों मोक्ष को जाओगे। इसलिए, रोग-शोक आदि बद-नशीबी को दूर करने वाला संसार के दुःखों का विनाश करनेवाला परम-आनन्द-दायक वास्तविक-धर्म को मोक्ष के अभिलाषी प्राणियों को सर्वदा हर्षपूर्वक करना चाहिए।
यतः
क्योंकिदोपो हन्ति तमःस्तोम, रसो सुधाबिन्दुर्विषावेगं, धर्मः
रोगमहाभरम् । पापभरं तथा ॥२॥
दीप भारी अँधेरे को नष्ट कर डालता है, रस ( महामृत्युंजय-मकरध्वज आदि ) बड़े बड़े रोगों को नेस्तनाबूद कर देता है, जहर की बेजोड़ असर को अमृत की बूंद गायब कर देती है, उसी तरह पाप की ढेर को धर्म विनाश कर ढालता है ।। २॥
सर्वाणि परमप्रभुतास्पदानि स्वर्गस्थानं शिवं सौभाग्यं चैतत्सर्व भो भूपाल ! प्राणिना धर्मप्रसादेनैव लभ्यते । इत्थं केवलिनोपदिष्टं भक्वैराग्यजनकं स्वपूर्वभवं द्वावपि राजमन्त्रिणौ श्रुत्वा सुश्रावकद्वादशव्रतान्यंगीकृत्य तं केवलिनं सम्यक् शिरसाभिनम्य परावृत्तौ, तदनु भन्याङ्गिनामुपकाराय स्वपदाम्बुजन्यास तलमलंका केवल्यप्यन्यत्र विजहार ।
हे राजन् ! सभी बड़े बड़े शक्तियों के स्थान, स्वर्ग, मोक्ष और खूब अच्छा भाग्य-नशीब, ये सब लोगोंको धर्म के प्रसाद से प्राप्त होते हैं । इसतरह केवली मुनि के द्वारा कहे हुए संसार से वैराग्य करने वाले अपने पूर्व-जन्म को राजा और मंत्री दोनों सुनकर अच्छे श्रावक के योग्य बारह व्रतों को स्वीकार कर उस केवली महाराज को अच्छी तरह मस्तक नवा कर लौट आए। उसके पीछे भव्य प्राणियों के उपकार के लिए अपने चरण कमलों को रखने से भूतल सुशोभित करने के लिए केवली भी दूसरी जगह विहार करने लगे।
अथ राजा प्रधानश्च द्वावपि केवलिसमीपे गृहीतान् द्वादशव्रतान् निरतिचारं पालयन्तौ न्यायपूर्वकं राज्यं च कुर्वन्तौ.सुखेन बहुकालं गमयतः स्म । अथान्यदा कस्यचिद् ज्ञानिगुरोः
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