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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् ११७ सकाशे राजमन्त्रिणौ सदुपदेशमुपलभ्य वैराग्यरागेण स्वात्मानमभिरज्य स्वस्वसुताय स्वस्वपदवीं समर्प्य दीक्षां गृहीत्वा ज्ञानतपस्तप्त्वा निरतिचारं चारित्रं सम्यक् परिपाल्य केवलज्ञानञ्चासाद्य मोक्षं जग्मतुः। अतएव भो भव्यप्राणिनः ! उभयलोके जयकारि धर्मफलं ज्ञात्वा पापमतिमपनीय तमनिशमेव त्रियोगेनाराधयत । मोक्षमार्गञ्च साधयत, सर्वदा शुद्धं श्रीजिनभाषितं जगजनतारकं दुर्गतिनिवारकं धर्म धारयत । तेन युष्माकमपि राजमन्त्रिणोरिव कर्मभ्यो मोक्षो भविष्यति, पुनर्यो धर्मकर्माणि विधत्ते तस्याऽस्मिन्नपि भवे समस्तं वांछितं भविष्यत्येव । अनन्तर राजा और मंत्री दोनों भी केवली के समीप में लिए हुए बारह व्रतों को अतिचार रहित पालन करते हुए और नीति पूर्वक राज्य करते हुए सुख से बहुत समय व्यतीत किए। फिर किसी समय किसी ज्ञानी गुरु के पास में अच्छा उपदेश पाकर वैराग्य-राग से अपनी आत्मा को अच्छी तरह रंग कर अपने अपने लड़के को अपना अपना पद देकर और स्वयं दीक्षा लेकर ज्ञान तप तपकर अतिचार-रहित चारित्र को अच्छी तरह पालन कर और केवल-ज्ञान को प्राप्त कर मोक्ष को चले गए। इसलिए, हे भव्य प्राणियों ! दोनों लोक में जय करने वाला धर्मफल को जानकर पापवाली बुद्धि को छोड़ कर दिन-रात उस सद्धर्म को ही मन-वचन और काया से आराधना करो। मोक्ष-मार्ग की साधना करो, सर्वदा शुद्ध, जिनेन्द्र से कहा हुआ, संसार से जीव को तारने वाला और दुःखों को हटाने वाले सद्धर्म को धारण करो। इससे आप लोगों को भी राजा-मंत्री की तरह मोक्ष हो जायगा और जो कोई अच्छा धर्म-कर्म करता है, उसको इसी जन्म में सभी अभिलाषा पूरी हो जाती ही है। यतः-- क्योंकि आरोग्यं सौभाग्यं, धनाढ्यता नायकत्वमानन्दाः । कृतपुण्यस्य स्यादिह, सदा जयो वाञ्छितावाप्तिः ॥ ३॥ पुण्य ( धर्म ) करने वालों को आरोग्य, सौभाग्य, धन-दौलत बड़प्पन-नेतृत्व, आनन्द, जय और अभिलाषा की पूर्ति सर्वदा होती है ॥ ३ ॥ किं बहुना ? सर्वेषां प्राणिनां पुण्येनैव सर्वे मनोरथाः पूर्णा भवन्ति, अतो मिथ्यात्वं सांसारिकसर्वखेदञ्च परित्यज्य हृदि सन्तोष निधाय सर्वेष्टदं पुण्यं कुरुत । For Private And Personal Use Only
SR No.020435
Book TitleKamghat Kathanakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangadhar Mishr
PublisherNagari Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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