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श्री कामघट कथानकर्म
अधिक क्या ? सभी प्राणियों की सारी मनःकामनाएं पुण्य ( सद्धर्म) से ही पूरी होती हैं; अतः, मिथ्यात्व को और सांसारिक सारे शोक को छोड़ कर हृदय में सन्तोष रख कर सारे मनोवाञ्छित को देने बाले पुण्य ( सद्धमं ) किया करो ।
उक्तञ्च
कहा भी है
रम्येषु
रे चित्त !
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वस्तुषु खेदमुपयासि
कुरुष्व यदि तेषु नहि
पुण्यं पुण्यैर्विना
मनोहरतां
किमत्र
तवाऽस्ति
व्यतानिषं,
भवन्ति
पूर्व संकुचिता बहु- त्रुटि-गता या सयुक्त्या निजया च पूर्वरचितै संगृह्यात्र विवर्द्धिता विजयराजेन्द्रेण नेयं भव्यजनताबोधाप्तये
कामघटस्य
मेरे मन ! चित्त को चुराने वाली सुन्दर चीजों को देख कर ( और उसे नहीं पाकर ) तुम दुःख पाते हो, तो इस में आश्चर्य क्या ? दुःख होना ही चाहिए, मगर यदि उन सुन्दर-सुन्दर चीजों को पाने के लिए. तुम्हारी इच्छा है, तो पुण्य किया करो, क्योंकि, पुण्यों के बिना मुरादें पूरी नहीं होतीं ॥ ४ ॥
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गतेषु,
चित्रम् ?
वाञ्छा,
समीहितार्थाः ॥ ४ ॥
साऽन्यशास्त्रत्रजैः, रासोद्भवैर्वर्णकैः ।
गच्छाधिपे
सत्कथा ॥ ५ ॥
पहले यह "कामघट - कथानक " नाम का ग्रन्थ संकुचित ( संक्षिप्त छोटा ) रूप में था और इस में कई त्रुटियां थीं, उसको गच्छाधिपति श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वर ने पूर्वाचार्य रचित प्रासंगिक समुपयुक्त सुन्दर शब्द- अर्थ - विभूषित अन्य शास्त्रों से और अपनी अच्छी युक्ति से संग्रह ( इकट्ठा ) करके भावुक - जनता के बोध के लिए, विशेष रूप में बढ़ाया ॥ ५ ॥
दीपविजयमुनिनाऽहं विज्ञप्तो
गुलाब विजयेन कामघटकथामिमां
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शिष्ययुगलेन ।
रम्याम् ॥ ६ ॥