________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्री कामघट कथानकम्
१०३
के सुभ? (वीरों) द्वारा पराजित हो गए। फिर पापबुद्धि राजा उन सुभटों के बीच में बांध लिए गए। उसके बाद मंत्री राजाको पूछने लगा-क्या आप मुझे पहचानते हैं ? तब राजा कहने लगा-सूर्य के समान तेजस्वी ( प्रतापी ) आपको कौन नहीं जानता ? फिर मंत्रीने कहा-यह मैं नहीं पूछता हूं, लेकिन मैं कौन हूं, यह पूछता हूं। तब राजाने कहा कि मैं नहीं जानता हूं। फिर मंत्रीने कहा कि सुनिए - हे राजन् ! मैं वही धर्मबुद्धि नाम का आपका मंत्री विदेश से लौट कर धर्मफल दिखलाने के लिए आपके आगे आगया हूं। फिर मंत्रीने हाथ जोड़कर बोला-हे राजन् ! अब तो आप कहें कि धर्म निरन्तर अच्छा फल देने वाला है या नहीं ? धर्म से ही सारी सम्पत्ति की प्राप्ति और मेरी सारी कामनाएँ पूरी हुई। इसतरह दुवारा भी विदेश में जाकर उस मंत्रीने उस राजा को जैन धर्म में पक्का कर दिया, फिर उस राजा ने भी दुःख देने वाले अधर्म को-पाप रूपी फांस को छोड़ कर संसार-सागर से पार करने वाली नौका रूपी जिने श्वर की आज्ञा को ही सहर्ष स्वीकार की। उसी समय में ही मंत्रीने राजाको बन्धन से मुक्त कर दिया और हर्ष के नगाड़े वहां बजवा दिए। अहा ! मंत्री का यह सौजन्य ( भलमनसाई ) कैसा आश्चर्य जनक रहा, जो राजा को धर्मात्मा बनाने के लिए दूसरे देश में चला गया। अनेक तरह के दुःख देखे, लेकिन अन्त में तो उसने राजा को धर्मात्मा बना कर ही छोड़ा। इसतरह के परोपकारी स्वभाव वाले सज्जन इस लोक में विरले ( थोड़े) ही होते हैं ।
उक्तं चकहा भी है- .. .
शैले शैले न माणिक्य, मौक्तिकं न गजे गजे । साधवो नहि सर्वत्र, चन्दनं न वने वने ॥ ८ ॥
प्रत्येक पर्वत पर रत्न नहीं होता, हरेक हाथी में मुक्ता नहीं होती, सभी जगह सज्जन नहीं होते और हरेक जंगल में चन्दन नहीं होता है ।। ८०॥
अन्यदपिऔर भीउपकर्तुं प्रियं वक्तुं, कर्तु स्नेहमकृत्रिमम् । सज्जनानां स्वभावोऽयं, केनेन्दुः शिशिरीकृतः ? ॥ ८१॥
सजनों का यह स्यभाव है कि दूसरे की भलाई करना, मीठा बोलना और अकृत्रिम प्रेम करना, क्योंकि चन्द्रमा को किसने शीतल (आह्वादक ) किया ?॥ ८१ ।।
For Private And Personal Use Only