SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् लग्गो कोह उवसमजले जो दवानलो, डज्झइ ओलवे, न सहइ गुणरयणाई । दुक्खसयाई ॥८१ ॥ (संस्कृत छाया) लग्नः क्रोधदवानलः दाहयति गुणरत्नानि । उपशम-जले यो मज्जति न सहते दुःख-शतानि ।। इस दुर्लभ मानव शरीर में लगा हुआ यह क्रोध रूपी दवानल ( वन की आग ) गुण रूपी रत्नों को जला डालता है, जो उपशम रूपी जल में स्नान करता है वह क्रोध जनित सैकडों दुःखों को नहीं सहता (भोगता) है।। ८१। ततो मनुष्यलक्षः परिवृतो नृपतिस्तद्वारसमीपमागतः। तत्रस्थ एव तद्गेहाडम्बरं विलोक्य विचिन्तयति स्म-किमेषः स्वर्गः, किमिन्द्रजालं वा, किमिदं सत्यमसत्यं वा १, यथा २ तममात्यालयमण्डपं पश्यति तथा २ राजा स्वमनसि चिन्तयति स्म-किमनेन मन्त्रिणाऽद्य वेशमिन्द्रजालं विकीर्याहं विप्रतारितः ? एवमनेकप्रकारचिन्तासमुद्रनिमनो विचारयति स्म । अथ राजान्ये च लोकास्तं मुहुर्महुरवलोक्यातीव भ्रान्तिपतिताः, यथा शुद्धस्वर्णपरीक्षानभिज्ञा अमूल्यक स्वर्णमपहाय गच्छन्ति । तथा तेऽपि ततः स्वस्थानं प्रतिगन्तुमिच्छुकाः संजाता अग्रे नो गच्छन्ति स्म । अस्मिन्नवसरे शीघ्रमागत्य मन्त्रिणा भूपतिं लोकांश्च स्वकरेणाभिगृह्य २ यथोचितस्थाने सर्वेषामुपवेशनार्थमासनानि दत्तानि । ततो मन्त्रिणा कामघटप्रभावेणैतादृशी दिव्यपक्वान्नरसवती परिवेषिता, यथा राजादयः सर्वेऽपि जनास्तामश्रमेण सुखेन भक्षयामासुः प्रशशंसुश्च । अनन्तर लाखों मनुष्यों के साथ राजा उसके द्वार पर आया। वहीं रहा हुआ ही उसके घर के तड़क भड़क-डीलडौल देखकर विचारने लगा-क्या यह स्वर्ग है ? या इन्द्रजाल है ? या सत्य है यह या झूठ ही झूठ है ? जैसे जैसे उस मंत्रीके घर के मंडप को देखता है वैसे वैसे राजा अपने मनमें विचारने लगा-क्या आज इस मंत्रीने ऐसा इन्द्रजाल फैला करके मुझे ठगा तो नहीं है ? इसतरह अनेक प्रकार के चिन्ता रूपी समुद्र में डूबा हुआ राजा विचार करने लगा-फिर राजा अन्य लोग उसको बार बार देखकर अत्यन्त भ्रम में पड़ गए, जैसे शुद्ध सुवर्ण की पहचान करने में अनभिज्ञ ( अनाड़ी) बेशकीमती सोना को छोड़ कर चले जाते हैं, उसीतरह वे लोग भी अपने अपने स्थान को जाने के लिए उतारू हो गए और आगे नहीं जा सके। इसी अवसर में मंत्रीने शीत्र आकर राजा और उनके लोगों को हाथ पकड For Private And Personal Use Only
SR No.020435
Book TitleKamghat Kathanakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangadhar Mishr
PublisherNagari Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy