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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १४ श्री कामघट कथानकम् अतस्त्वां सर्वथा नैव चामि भक्षयिष्यामेव । इत्याकर्ण्य पुनर्मन्त्री कथयति स्म —– - हे माल ! एतावत्प्रसादं कुरु, साम्प्रतं मे महत्कार्यमस्ति तदथमग्रे जिगमिषामि, तत्कृत्वा प्रत्यागच्छन्नहं तव क्षुधोपशमं करिष्यामि, अतो विवेकिन् ! मां मुंच मुंच । पलादः कथयति स्म - हे मानव ! कृष्णशिरसो मायाविनो नरस्य तव को विश्वासः ? ततः कथं मरणायात्रैव त्वं मत्पार्श्वे समागच्छेः । मंत्रिणोक्तम् — यद्यहं नागच्छामि, तहमानि पातकानि मे भवन्तु । तानि यथापरनरसंगं विधाय या स्त्री गर्भशातनं करोति तस्या यत्पातकं तन्मां स्पृशतु, एवमेव व्रतान्यंगीकृत्य पुनस्तद्भञ्जकस्य, यः पितराववगणयति गुरुं चापहनुते तस्य, विश्वासमुत्पाद्य तद्विश्वासघातकस्य धर्मस्थाने पापपरायणस्य बनदाहकस्य, अष्टादशपापस्थानाचरितुः भ्रातृस्वसृमुनीनां घातकस्य, सप्तव्यसन से विनोऽनृतव्यवहारपरायणस्य तथा बालधेनुस्त्रीविप्राणां निहन्तुः, स्वगोत्रस्त्रियं यः सेवते तस्य, षट्पदी लिक्षादिक्षुद्रजन्तूनां हिंसकस्य, धर्मनिषेधकस्य, धर्मी भूत्वा धौत्येंन जगद्वञ्चकस्य, कृतघ्नस्य, अन्येषां प्राणिनां कुमार्गयोजकस्य, गुरुदेवज्ञानद्रव्याणां भक्षकस्य पूजनीय - गुर्वादीनां पराभवकर्त्तुश्चेत्यादीनां यानि जगति महान्ति पातकानि तानि सर्वाणि चेदहं नायामि तर्हि मां स्पृशन्तुं । एवमुक्तरूपां मंत्रिवाचं श्रुत्वा विश्वस्तेन तेनापि तस्य मन्त्रिणः पुण्यप्रभावाद् गमनाज्ञा दत्ता, ततः समासाद्याज्ञां सहर्षोऽग्रे मन्त्री प्रतस्थे । अथ मार्गे गच्छता तेन कस्याञ्चि-: नगरासन्नवनवाटिकायां श्री ऋषभदेवस्वामिप्रासादो दृष्टः । तत्र गत्वातिभावनापूर्विकां विध्युपेतां जिनेश्वरपूजां विधायातिहृष्टस्सन् स्वहृदयोद्भूतसद्भावेन वीतरागगुणवर्णन स्तुतिं पठति स्म । तद्यथा - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस लिए मैं तुमको किसी तरह नहीं छोड़ सकता, खाऊँगा ही । यह सुनकर फिर मंत्री कहने लगा - हे मामा, इतनी दया तो करो, अभी मुझे बड़ा जरूरी काम है, उसके लिए कुछ दूर आगे जा चाहता हूं, उस कार्य को करके लौटता हुआ मैं तुम्हारी भूख अवश्य मिटाऊँगा । इस लिए हे विवेकी, मुझे अभी छोड़ दो छोड़ दो। फिर, मांसाहारी (राक्षस) कहने लगा- हे मानव काले शिर वाले मायावी मनुष्य तुम्हारा विश्वास क्या ? सो तुम मरने के लिए मेरे पास यहीं क्यों आओगे ? मंत्रीने कहा— यदि मैं लौट कर आपके पास नहीं आऊं, तो मुझे ये पाप हों । वे ये हैं, जैसे दूसरे पुरुष संग करके जो स्त्री गर्भ गिराती है, उसको जो पाप लगते हों वे पाप मुके हो। इसीतरह व्रती को व्रत भंग करने से जो पाप होता है, माता-पिता और गुरु का निरादर करने से जो पाप लगता है, विश्वासघाती को जो पाप लगता है, तीथ आदि में पाप करने से जो पाप होता है, वन के जलाने वाले को, अठारह. For Private And Personal Use Only
SR No.020435
Book TitleKamghat Kathanakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangadhar Mishr
PublisherNagari Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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