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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६० श्री कामघट कथानकम तब कपट की पण्डिताई से युक्त होकर वेश्याने कहा- कि तुम मेरे भाई की स्त्री हो, यहां क्यों ठहरी हो ? मंत्री तो मेरे घर पर पहुंच गया है, इसी लिए उसने तुम्हें बुलाने के लिए मुझे भेजा है, अत: तुम मेरे साथ मेरे घर को चलो । तब वह सीधा-सादा स्वभाव वाली उस की मीठी बातों के प्रपंच से ठगी हुई उसी समय उसके घर चली गई । यतः क्योंकि तथा च हि www.kobatirth.org मायया मत्स्यः समुद्र-मध्यस्थो सीधा-सादा आदमी माया के द्वारा बड़े पापों से ठगा जाता है, जैसे मछली मल्लाहों के द्वारा ( पकड़ कर ) मारी जाती है ।। ६५ ।। महापापै— वच्यते यतः क्योंकि - सरलो aavatra और भी द्यतकारे वेश्यां च नटे धूर्ते, विशेषतः । मायां कृत्वा निजावास, स्थिताऽस्ति खलु शाश्वती ॥ ६६ ॥ नात्यन्तं सरलैर्भाव्यं, सरलास्तत्र छिद्यन्ते, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जुआरी में, नट में, ठग में, और विशेष करके वेश्या में यह पृथिवी माया करके अपना वास में रही हुई है, नहीं तो कब कि कब गायब हो गई होती ॥ ६६ ॥ अतः सर्वत्र पुरुषैः सरलस्वभावो नैव रक्षणीयः, किन्तु यथाऽवसरं यथास्थानमेव सर्वत्र स्वबुद्धिचातुर्यं करणीयम् । इसलिए, पुरुषों को सभी जगह सरल स्वभाव होकर नहीं रहना चाहिए, किन्तु देश-काल के अनुसार ही सब जगह खूब होशियारी से काम करना चाहिए । जनः । यथा ।। ६५ ।। समुद्र के बीच में रही हुई गवा पश्य कुब्जास्तिष्ठन्ति For Private And Personal Use Only वनस्थलीम् । पादपाः ॥ ६७ ॥
SR No.020435
Book TitleKamghat Kathanakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangadhar Mishr
PublisherNagari Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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