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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् रागः पूगीफलानाममितगुणवतां नागवल्लीदलानां, सदवृत्त्या चारु शीलं कथमपि कथितं केन कस्योपदेशः ॥२४॥ ईख में मिठास, चम्पा के फूल में उत्कृष्ट सुगन्धि, श्रीखण्ड ( मलय चन्दन ) में शीतलता, भौंरों में पुष्प रस लेने की चतुराई और दलबंदी-एकता, राजहंस में दृध-पानी के अलग अलग करने का विवेक, गुण कारक पान और सुपारी की रंग ( लाल ) और अच्छी वृत्ति से किसी तरह भी सुन्दर शील की रक्षा संसार में यह किसने किसको कहा ? और किसने किसको उपदेश दिया ? अर्थात् उपर्युक्त बातें अपने आप (स्वभाव से ही) हुआ करती हैं ॥२४॥ अपि चऔर भी - शर्करासर्पिषा युक्तः, निम्बबीजः प्रतिष्ठितः । क्षीरघटसहस्रश्च, निंबः कि मधुरायते ? ॥ २५ ॥ नीम के बीज में शक्कर और घी मिला दिया जाय और हजारों दूध भरे घडों से पटाया जाय तो नीम मीठा हो सकता है क्या ? हरगिज नहीं ।। २५ ।। ततो राज्ञोक्तं यद्यहं युद्धवधादिकं पापं करोमि तेन मे हयगजान्तःपुरभाण्डागारादिवृद्धिश्च, पुण्यं कुर्वाणस्यापि ते गृहे मत्सम द्रव्यादिकं नव वर्तते, यत्किमप्यस्ति तदपि समस्तं मयैव समर्पितम् । न च ते पुण्यफलं, अतो धर्मस्य किमपि महात्म्यं नास्ति, मम मते तु पापेनैव भव्यं भवति । यदि त्वं धर्मप्रभावं मन्यसे, तर्हि त्वं धनं विनैकाक्येतादृशे देशान्तरे गत्वा धर्मप्रभावादेव धनमर्जयित्वा त्वरितमागच्छ । यतः इसके बाद राजाने कहा-यदि मैं लड़ाई में बध ( मार-काट आदि) पाप करता हूं तो उससे मेरे घोड़े-हाथी-महल-द्रव्य आदि की वृद्धि है और पुण्य करते हुए भी तेरे घर में मेरे बराबर द्रव्य नहीं है और जो कुछ है भी वह भी सब मेरा ही दिया हुआ है, और तुम्हारे पुण्य का तो फल नहीं है, इस लिए धर्म का कुछ भी माहात्म्य नहीं है, मेरे विचार से तो पाप से ही अच्छा होता है। यदि तुम धर्म के माहात्म्य को मानते हो तो तुम बिना धन के अकेला किसी ऐसे दूसरे देश में जाकर (जहां अपना कोई परिचित न हो) धर्म के प्रभाव से ही धन कमा कर शीघ्र आजाओ। For Private And Personal Use Only
SR No.020435
Book TitleKamghat Kathanakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangadhar Mishr
PublisherNagari Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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