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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् ३६ भोजन कराउंगा। इसलिए आपके देश (राज्य ) में जितने हित-मुहब्बत वाले हैं उन सबों को लेकर आप मेरे घर पर अवश्य पधारें । अवश्य ही आपके योग्य यथाशक्ति मैं आपको भोजन कराउंगा। यह सुनकर राजा विचार में पड़ गया-अरे यह बनिया-बकाल है, इसकी शक्ति कितनी ? अवश्य यह आज मेरे मित्रों को पानी भी नहीं पिला सकेगा। यह तो चोंटी के घर में गए हुए गजराज पाहुन के जैसा जानना चाहिए। इसलिए यह भोजन क्या कराएगा ? फिर रंज होकर राजाने मंत्री की बात को मिथ्या करने के लिए उसी दिन अपने दूतों को भेजकर अपने सभी मित्रों को बुलवाया। बाद मे राजाने संत्री के घर में उसके भोजन की सामग्री-इन्तजाम देखने के लिए अपना गुप्तदूत भेजा और कहा कि मंत्री के घर में कितनी भोजन की सामग्री है यह जाकर देखो। उस गुप्तदूत ने भी वहां जाकर मंत्री का घर देखा तब कहीं भी एक मुट्ठी भी अन्न की सामग्री नहीं देखी और फिर उसने सप्तभूमि (महल) में सामायिक लेकर नमस्कार मंत्र को जपते हुए मंत्री को देखा-फिर उस चरने पीछे लौट कर वहां का सारा हाल राजा को कह सुनाया। वह सुनकर राजा विचार करने लगा-निश्चय हो यह मंत्री पागल-दुखी होकर दूर देश चला जायगा और पीछे मुझे इन सभी को भोजन देना पड़ेगा इस लिए अब क्या करना चाहिए इसतरह विचार मूढ़ (जकथक) हो गया। इसलिए विचार करके ही काम करना ठीक होता है-कहा भी है यत : क्योंकि सहसा विदधीत न क्रिया-मविवेकः परमापदां पदम् । वृणुते हि विमृश्य कारिणं, गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः ॥ ७८॥ सहसा ( बिना विचारे-एकाएक) कोई काम नहीं करना चाहिए, क्योंकि, अविचार आपत्तियों का स्थान ( घर ) है। शोच-समझकर काम करने वालों को संपत्ति स्वयं वरण करती (अपनती) है, क्योंकि, संपत्ति गुण के लोभी है ॥ ७८ ॥ एतस्मिन्नन्तरे मन्त्री समागतस्सन् विज्ञपयामास---स्वामिन् ! समागम्यतां रसवती शीतला जायते । तनिशम्य भूपेनोक्तं-हे मन्त्रिन ! मयापि सह किन्त्वया हास्यं प्रारब्धम् ? यतस्तवालये स्वल्पापि भोजनसामग्री नास्ति । तदा सचिवेनोक्तम्-हे स्वामिन् ! सकृल्पादाववधार्य विलोक्यतां सर्वा सामग्री प्रस्तुताऽस्ति । तदा धराधवः सपरिकरः प्रचलितो मार्ग च रोपारुणश्चिन्तयति स्म-एष यदि भोजनं न दास्यति तदा विविधविडम्बनया विगोपयिष्यामीति दुर्विचारः कोपवशेन तेन कृतः। For Private And Personal Use Only
SR No.020435
Book TitleKamghat Kathanakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangadhar Mishr
PublisherNagari Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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