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श्री कामघट कथानक
विद्या को कोई चुरा नहीं सकता और सभी तरह विद्या कोई भी कल्याण करती है, विद्या ( रूपी धन) याचकों (छात्रों ) को देने से प्रति दिन बढ़ती ही है, कल्पान्त ( सर्व नष्ट ) में भी विद्या नष्ट नहीं होती, विद्या अन्दर का धन है, अतः हे लोगो, जिन के पास विद्या है उनसे मान को त्याग दो, क्योंकि उनके साथ कौन स्पर्धा - ( चढ़ा उतरी- प्रतियोगिता ) कर सकता है ॥ ३३ ॥
किञ्च—
और भी
पण्डितेषु गुणाः तस्मान्मूर्खसहस्रपु,
प्राज्ञो
पण्डितों में प्रायः सभी गुण रहते हैं और मूर्खों में केवल अवगुण रहते हैं, इसलिए हजारों मूर्खो से एक पण्डित अच्छा है ॥ ३४ ॥
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यतः -
क्योंकि
सर्वे,
पूगीफलानि
स्थानभ्रष्टाः
अथ तत्कौशल्यचमत्कृतेन राज्ञा तस्मै मन्त्रिणे सौभाग्यसुन्दर्यभिधानं स्वकन्यारत्नं निजं चार्द्धराज्यं दत्तम् । तथैवाने कहयगजरत्नमणिमाणिक्य स्वर्णादिभृतानि द्वात्रिंशत्प्रवहणान्यर्पितानि ! कुत एतानि वस्तूनि यत्र गच्छन्ति तत्र शोभामेव प्राप्नुवन्ति ।
हैं ।। ३५ ।।
अनन्तर उसकी चतुरता से आश्चर्य से आनन्दित होकर राजाने उस मंत्री को अपनी सौभाग्य सुन्दरी नाम की कन्या और आधा राज्य दे दिया, उसी तरह अनेक घोड़े हाथी, सोने-जवाहिरात से भरे बत्तीस जहाज दिए । क्योंकि, ए चीजें जहां जाती हैं वहां शोभा कोही प्राप्त होती हैं
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मूर्खे
पत्राणि,
दोषास्तु केवलाः । विशिष्यते ॥ ३४ ॥
एको
राजहंसास्तुरंगमाः ।
सत्पुरुषा गजाः ॥ ३५ ॥
सुशोभन्ते,
सिंहाः
सुपारी, पत्ते, राजहंस, घोड़े, सिंह, सत्पुरुष और हाथी ये दूसरी जगह अधिक शोभा पाते
अथैवंविधां तस्य समृद्धिं दृष्ट्वा स सागरदत्तश्रेष्ठी निजहृदि प्रज्वलितुं लग्नः | ततः स श्रेष्ठी निजशेषक्रयाणकानि विक्रीय तत्रस्थैर्नानाविधैरपरैः क्रयाणकैः प्रवहणान्यापूर्य पश्चान्मन
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