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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०८ श्री कामघट कथानकम जिन सजीव शरीरों ने एक दिन चढ़ती जबानी की उमंगों में गीले होकर मिष्टान्न खाए, मीठा, सुगन्ध और शीतल जल पान किए, मुलायम बिस्तरों पर सोए और सुन्दर चिकने आसनों पर बैठे तथा खुब मौज उड़ाए, बड़े और छोटे सुवर्ण के हारों और मणियों से तथा नूपुर (पविजेव ) से अपने को सुशोभित किए, हाय ! प्राण-पखेरू उड़ने पर आज वे हो शरीर भूमि पर लोट रहे हैं ।। ८६ ।। अपि चऔर भीचेतोहरा युवतयः स्वजनोऽनुकूलः, सदबान्धवाः प्रणय-गर्भ-गिरश्च भृत्याः । गर्जन्ति दन्ति-निवहास्तरलास्तुरंगाः, सम्मीलने नयनयोनहि किञ्चिदस्ति ॥१०॥ चित्त को चुराने वाली युवतियां, अनुकुल आचरण करने वाले अपने परिवार के लोग, अच्छे सगेसंबन्धी, प्रेम-पूर्वक मीठे बोलने वाले नौकर-चाकर, गरजते हुए हाथियों के झुण्ड और खूब वेग (चाल) वाले घोड़े, ये सब आँखें मुंद जाने ( मरने ) पर कुछ नहीं हैं ।। ६० ॥ पुनरप्यस्मिन्संसारे कतिपयेऽज्ञाः सुखं मत्वा संतिष्ठन्ते, परं शोकचिन्तादुःखादिदोषपरिपूर्णेऽत्र संसारे किं किमपि सुखमस्ति ? फिर भी इस संसार में कितने मूर्ख सुख मानकर रहते हैं, लेकिन शोक, चिन्ता, दुःख आदि दोषों से पूर्ण इस संसार में क्या कुछ भी सुख है ? यतःक्योंकि दुःखं स्त्री-कुक्षि-मध्ये प्रथममिहभवे गर्भवासे नराणां, वालत्वे चापि दुःखं मल-लुलित-वपुः स्त्रीपयःपानमिश्रम् । तारुण्ये चाऽपि दुःखं भवति विरहजं वृद्धभावोऽप्यसारः, संसारे रे मनुष्या वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किञ्चित् ॥ ११ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020435
Book TitleKamghat Kathanakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangadhar Mishr
PublisherNagari Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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