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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५० श्री कामघट कथानकम एवं मन्त्रिणा विचारितं, तथापि साहसिकेन परोपकारतत्परेण मन्त्रिणा तद्राज्ञोक्तं द्विवारमपि मानितम् | कुतो जगति विना प्रयोजनं यत्परोपकारकरणमिदमेव सर्वोत्तमत्वम् । कहा भी है अकृतज्ञा कृतोपकारिणः www.kobatirth.org इसतरह मंत्रीने विचार तो किया- फिर भी साहसी और परोपकारी होने से राजा का दूसरी बार कहा हुआ भी मान लिया। क्योंकि बिना प्रयोजन के कोई भी प्रवृत्ति नहीं देखी जाती और प्रवृत्तियों में जो प्रवृत्ति परोपकार के रूप में होती है वह सर्व श्रेष्ठ प्रवृत्ति कही जाती है --- उक्तं च असंख्याताः, स्तोकाः, किये हुए उपकार को नहीं जानने वाले बहुत हैं, और किए हुए (उपकार) को जानने वाले गिनती वाले ( कम ) हैं । उपकार करने वाले बहुत कम हैं और अपने से उपकार करने वाले तो दो ही तीन हैं ॥ १०० ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छायामन्यस्य फलन्ति संख्याताः कृत-वेदिनः । द्वित्राः स्वेनोपकारिणः ॥१००॥ वरं करीरो मरु-मार्ग-वर्त्ती, यः पान्थ-सार्थं कुरुते कृथार्थम् । कल्पद्रुमैः किं कनकाचलस्थैः, परोपकार - प्रतिलंभ-दुःस्थैः ॥ १ ॥ च मारवाड़ के रेतीले मार्ग में रहा हुआ वह करीर ( केरड़ी ) का झाड़ अच्छा है जो पथिकों को साधारण (छाया) रूप में भी कृतार्थ करता है, लेकिन सुमेरु पर्वत पर रहे हुए उन कल्पवृक्षों से क्या ? जो परोपकार करने के डर से दूर जाकर ठहरे हुए हैं ॥ १ ॥ कुर्वन्ति, स्वयं तिष्ठन्ति चापे । नात्महेतोर्महाद्रुमाः ॥ २ ॥ परस्यार्थे, बड़े वृक्षों की छाया दूसरे के लिए होती है और स्वयं उसके ऊपर प्रचण्ड गरमी आपड़ती है, और वे बड़े झाड़ दूसरे के लिए ही फलते भी हैं—अपने लिए नहीं - कभी नहीं ॥ २ ॥ पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः, खादन्ति न स्वादु- फलानि वृक्षाः । पयोमुचः किं विलसन्ति शस्यं, परोपकाराय सतां विभूतयः ॥ ३ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020435
Book TitleKamghat Kathanakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangadhar Mishr
PublisherNagari Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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