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श्री कामघट कथानकम्
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नदियां स्वयं पानी नहीं पीतीं, पेड़ स्वयं फल नहीं खाते, मेघ स्वयं धान नहीं खाते, वास्तव में सजनों ( बड़ों ) की संपत्तियां परोपकार (दूसरे की भलाई ) के लिए ही होती हैं ।। ३ ।।
अपि चऔर भीक्षुद्राः सन्ति सहस्रशः स्व-भरण-व्यापार-बद्धादराः, स्वार्थो यस्य परार्थ एव स पुमानेकः सतामग्रणीः । दुष्पूरोदर-पूरणाय पिबति श्रोतःपतिं वाडवो, जीमूतस्तु निदाघ-संभृत-जगत्सन्ताप-विच्छित्तये ॥ ४ ॥
अपने पेट को भरने के लिए हजारों क्षुद्र (नीच-दरिद्र ) हैं किन्तु परमार्थ (परोपकार ) ही जिनका स्वार्थ है ऐसे सज्जनों का आगेवान कोई एक (कम ) ही है। देखिए वाड़वाग्नि अपनी दुःख से भरने योग्य उदरपूर्ति के लिए समुद्र को पीता है, मगर मेघ गर्मी से परिपूर्ण संसार के संताप की निवृत्ति के लिए ही (समुद्र का जल लेता है ) ॥४॥
तदनु स मन्त्री राज्ञे निजगृहं समय विनयसुन्दरीभार्यायुक्तो देशान्तरं चचाल, गच्छन् कियदिवसैः समुद्रतटे गंभीरपुरनाम नगरं प्राप । तन्नगरासन्नवाटिकायां च देवकुलमासीदिति जिनेश्वरदेवनत्यर्थ श्रीवीतरागप्रासादे गतः । तदवसरे तत्रस्थजनमुखातं न श्रुतं यत्सागरदत्तनामा व्यवहारी पूरितयानपात्रो द्वीपान्तरं प्रति गच्छन् लोकेभ्यो बहुलं दानं ददाति । तनिशम्य स मन्त्र्यपि निजसुन्दरीं तत्रैव मुक्त्वा दानग्रहणार्थी समुद्रतटं गतवान् । तत्र तेन दानार्थिजनानां बहुसमुदायो मिलितो दृष्टः ।
उसके पीछे वह मंत्री राजाको अपना घर समर्पण कर विनय-सुन्दरी नाम की अपनी स्त्री से युक्त होकर दूसरे देश को चला। जाते हुए कुछ दिनों में समुद्र के किनारे गंभीरपुर नाम का नगर मिला। उस ननर के समीप बगीची में एक देव-मन्दिर था, यह जानकर जिनेश्वर देव की वन्दना के लिए भगवान् वीतराग के मन्दिर में गया। उस समय उसने वहां रहे हुए लोगों के मुंह से सुना कि सागरदत्त नाम का व्यापारी जहाज भर कर दूसरे द्वीप में जाता हुआ लोगों को बहुत दान देता है। यह सुनकर वह मंत्री भी अपनी स्त्री को वहीं छोड़कर दान लेने की इच्छा वाला समुद्र के किनारे गया। वहां उसने याचक लोगों की जमघट देखी।
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