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प्रकाशक का निवेदन ।
अल्प काल के पहले ( सम्भवतः विक्रम सम्बत २००६) की बात है। जैन श्वेताम्बर सम्प्रदाय के खरतर गच्छाचार्य श्री जिन विजयेन्द्र सूरि जी कलकत्ते में चातुर्मास पर्यन्त अपने निवास काल में जिस समय नैमित्तिक रूप से दैनिक जैन शास्त्र-सूत्र-ग्रन्थों के वाचन में ज्ञानामृत की धारा प्रवाहित कर रहे थे उस समय मैं भी आपके सरल, हृदयग्राही और विद्वत्तापूर्ण सम्भाषण श्रवण करता रहा। आपके प्रभावोत्पादक उपदेशामृत पान से मेरे अन्तर्जगत् में हलचल मची, जिसके परिणाम स्वरूप उत्पीड़ित और कुंठित हुई ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ जागृत और विकसित हुईं।
किन्तु कार्य सम्पादन के मार्ग में अर्थाभाव ही खटकता रहा । मेरे व्यक्तिगत नाना प्रकारेण कठिन और गुरुतर परिस्थितियों ( समस्याओं ) में व्यस्त रहने से विलम्ब का होना अनिवार्य था। धनी मानी और योग्य कार्य कर्ताओं का सदा असहयोग ही मिलता रहा। केवल चिकने चुपड़े कोरे मिष्ट-भाषण के अतिरिक्त सक्रिय कार्य करने में तो सभी लोग सदा हतोत्साह ही दिखलाते रहे। अस्तु ।
अतः आगे बढ़ने की भीतर से मुझे प्रेरणा मिली। जिसके फल स्वरूप हिन्दी भाषा भाषी पाठकों की सेवा में इस "कामघट कथानकम" को लेकर उपस्थित हुआ हूं। पुस्तक की उपयोगिता और अनुपयोगिता का निर्णय करने का अधिकारी मैं नहीं, किन्तु विद्वान और गुणज्ञ पाठक ही है।
मेरा यह प्रयास जन कल्याणकारी और सुयोग्य अनुभवी पाठकों को रुचिकर प्रतीत होकर उत्साह पूर्ण सक्रिय सहयोग प्राप्त हुआ तो अपना परिश्रम सफल समझ कर भविष्य में और भी अधिक तीव्र गति से अग्रसर होने, दौड़ने की भावना रखता हूं।
यह बड़ी प्रसन्नता की बात है, हर्ष का विषय है कि नागपुर विश्वविद्यालय के वतमान वाइस चांसलर और मध्य प्रदेश की धारा सभा (विधान परिषद ) के अध्यक्ष साहित्य ममज्ञ, शिक्षा शास्त्री लेफ्टिनेन्ट कर्नल पंडित कुंजीलाल जी दुबे बी० ए० एल० एल० बी० का सहयोग मिल सका है। आपने प्रस्तुत ग्रन्थ की भूमिका में अपने विचारों को अलंकृत करके निःसन्देह हमारे प्रयास को प्रोत्साहन प्रदान करने की कृपा की है। अतः मैं विद्वान दुबे जी का भृणी हूं, अत्यन्त आभारी हूं।
प्रस्तुत ग्रन्थ संस्कृत भाषा में है। जिसको सुबोध और सरल हिन्दी भाषा में अनुवाद करके पंडित श्री गंगाधर जी मिश्रने प्रशंसनीय सहयोग दिया है अतएव वे भी धन्यवाद के पात्र हैं।
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