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श्री कामघट कथानकम् मारय तर्हि सुठुतरं भवेत् । ततस्तयोक्तम्- यदि योग्यं वरमहं लप्स्ये तदा तस्मै त्वां दास्यामि, हे सत्पुरुष ! पूर्वमहमेवं तया निगदिताऽस्मि । अथ सांप्रतं तदागमनवेलाऽस्ति सा च कदाचिन्मां तुभ्यं दद्यात्तदा त्वयाऽस्या राक्षस्याः पार्खादाकाशगामिनी विद्या, सप्रभावा खट्वा, महाय॑दिव्यरत्नग्रन्थी, सप्रभावे श्वेतरक्तकरवीरकविके चैतानि वस्तूनि मार्गणीयानि करमोचनावसरे, इति तदुक्तसंकेतं गृहीत्वा पुनस्तां कृष्णाञ्जनेनोष्ट्रिकां विधाय मन्त्री प्रच्छन्नः स्थितः । इतश्च मनुष्य भक्षयामीति वदन्ती राक्षसी समागता, तया च श्वेताजनेन सोष्ट्रिका कन्या चक्रे, ततस्तया राक्षस्या साकं वातां कुर्वत्या स्वयोग्यो वरो याचितः। तदा राक्षस्योक्तम्-क्कापि तव योग्यं वरं दृष्ट्वा तस्मै त्वां दास्यामि ।
अनन्तर वह मंत्री समुद्र के तट से आगे घूमता हुआ एक परम रमणीय नगर को दूर से देखा । फिर धीरे धीरे नगर में प्रवेश करता हुआ वह अनेक मणि, माणिक्य, रत्न, मूंगा, मोती और सुवर्ण आदि अनेक तरह के बिक्री के माल से परिपूर्ण दुकान की कतारों को और चंदोवा सहित मंदिर की कतारों को देखकर मन में अत्यन्त आश्चर्य से युक्त हुआ। साहसी मंत्रीने अकेला ही नगर के बीच में घूमता हुआ राजमन्दिर के सप्तमूमि ऊपर चला गया। वहां, खाट के ऊपर एक ऊंटनी को और उसी तरह वहां वह काला और उजला अंजन (काजल ) से भरी दो कूपिकाओं को देखा। उसको देखकर अचंभे में पड़ा हुआ विनोद के साथ उजला अंजन से ऊँटनी के आखों में अंजन कर दिया। उस अंजन के प्रभाव से वह परम सुन्दरी नारी हो गई। उस समय ही उस सुन्दरीने उस मंत्री को ( बैठने के लिए) आसन दिया। तब मंत्रीने उसको पूछा-हे चन्द्रमा समान मुख वाली, सुन्दरि, तुम कौन हो? किस की लड़की हो ? तुम्हारी ऐसी दशा क्यों है ? यह नगर क्या है ? और किस कारण यह शून्य है ? यह सुनकर वह कन्या अपनी आखों से आंसू बहाती हुई बोली-हे पुरुष श्रेष्ठ ! तुम यहां से शीघ्र चले जाओ, क्योंकि, यहां एक राक्षसी रहती है, वह यदि तुमको देख लेगी तो खा जायगी। तब मंत्रीने फिर पूछाहे सुन्दरी, वह कौन राक्षसी है ? उसके बारे में सारी बातें साफ साफ बतलाओ। वह बोलने लगीहे पुरुषोत्तम, सुनो-इस नगर का स्वामी भीमसेन नाम का राजा था और मैं उसकी लड़की रत्न सुन्दरी नामकी हुई और वह मेरा पिता तापस का भक्त हुआ। एक समय एक मास का उपवास वाला कोई तपस्वी इस नगर में आया। मेरे पिताने उसे भोजन करने के लिए कहा, तब वह मेरा रूप देखकर व्याकुल हो गया और रात में मेरे पास चोर की तरह आते हुए उसको पहरेदारों ने पकड़ कर बांध दिया फिर प्रातः काल में राजा के पास ले गया और राजाने उस (तपस्सी) को शुली (फांसी) पर लटका दिया, उस कारण आर्तध्यान से वह मरकर राक्षसी हो गई और उसने ही इस नगर को उजड़ कर के पूर्व की शत्रुता से राजा को भी मार डाला, यह देखकर नगर के सारे लोग भी डर कर भग गए, इस कारण यह नगर शून्य ( सूनसान ) हो गया। पूर्व जन्म के महा मोह के ( मेरे प्रति ) कारण से मुझे उसने ऐसा रखा है। काला
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