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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम तब सौभाग्यसुन्दरी भी किवाड़ों को खोल डाली। फिर वहां से मंत्री वेश्या के घर पर आकर फलक (पट्टी) लेकर समुद्र पार होने से आरम्भ कर उसे गंभीरपुर में पहुंचना, रहने की जगह को ढूँढ़ना और भोजन लेने के लिए नगर के बीच आने तक हाल कह सनाया। तब उस तीसरी रत्तसन्दरीने भी मंत्री को पहचान कर किवाड़ उघाड़ डाला। फिर उन तीनों स्त्रियोंमे अपना अपना हाल कह सुनाया। फिर राजाने भी खुश होकर अपना आधा राज्य और अपनी शीलसुन्दरी नाम की लड़की मंत्री को देकर आश्चर्य के साथ पूछा-आप समुद्र में किसतरह गिर गए ? मैं तो आप में बड़ी चतुराई देखता हूं। इसलिए, मैं ऐसी उमीद करता हूं कि किसी छली दुष्टने आपको गिरा दिया होगा। अब, आप अपना सञ्चा हाल कह सुनाइए, जिसको सुन-समझकर मैं उस दण्डनीय व्यक्ति को दण्ड ( सजा ) दूंगा, जिससे आगे कोई दूसरा भी दुष्टात्मा इसतरह का खराब काम नहीं करेगा। राजा की ऐसी बातें सुनकर दयालु मंत्री कुछ चुप होकर बोला-हे राजन् ! मैं अपनी असावधानी (लापरवाही ) से गिर गया। क्योंकि, बड़ों को कोई बुराई भी करता है तो वे उसकी अच्छाई ही करते हैं। यतः कहा भी हैसुजनो न याति विकृति, परहित-निरतो विनाश-कालेऽपि । छेदेऽपि चन्दन-तरुः, सुरभयति मुखं कुठारस्य ॥ ७२ ॥ दूसरों की भलाई करने वाला सजन अपने विनाश काल में भी बिगड़ते नहीं, क्योंकि चन्दन का झाड़ अपने काटने वाले कुल्हाड़ी के मुख (धार ) को सुगन्धित ( खुशबूदार ) कर देता है ।। ७२ ॥ ततो राज्ञाऽत्याग्रहेणाभिहितम्-यद् भूतं वृत्तं तत्सर्व त्वया वक्तव्यमेव भविष्यतीत्यादि वह्वाग्रहिक राज्ञो वचनं निशम्य मनसि तु कथमस्य भावो नासीत्तथाऽप्यतीवाग्रहतो मन्त्रिणा किंचिन्मात्रमेव सागरदत्तश्रेष्ठिवृत्त राज्ञे निवेदितम्, परं राज्ञा तु स्वल्पोक्तेनैव बुद्धिकौशल्यात्सर्व ज्ञातम् । तदनु तदिभ्यानाचारानीत्यादिकार्यतो भृशं क्रोधातुरेण राज्ञा तत्क्षण एव श्रेष्ठिनमाहूयोक्तम्- रे दुष्ट ! परधनस्त्रीलोलुपेन सता त्वयैवंविधानि घोरपातकानि क्रियन्ते । एवं बहुधा निन्दादिभर्सनादिधिकारवाग्भिनिर्भय॑ तत्सकाशान्मंत्रिधनं मंत्रिणे प्रदापितम् । ततोऽन्यायकारिणे तस्मै चौरदंडं दातुं लग्नस्तदा दयालुनाऽमात्येन नृपतिपादयोर्लगिचोक्तम्-हे राजन्नेष मे महोपकारी, एतत्प्रभावेणैवात्र भवत्पार्वे समेत्य यद्भवदीयांगजा मया परिणीताऽयं सर्वोऽप्यस्यैव प्रभावः । इत्याद्युक्त्वा स जीवन्मोचितः, कुतो महतामिमान्येव लक्षणानि । For Private And Personal Use Only
SR No.020435
Book TitleKamghat Kathanakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangadhar Mishr
PublisherNagari Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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