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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् श्रीतीर्थपांथरजसा विरजी भवन्ति, तीर्थेषु संभ्रमणतो न भवे भ्रमन्ति । तीर्थव्ययादिह नराः स्थिरसंपदः स्युः, पूज्या भवन्ति जगदीशमथार्चयन्तः ॥ ५ ॥ प्राणी तीर्थों के मार्ग की धूली से निष्पाप (पवित्र ) होते हैं, तीर्थों में खूब घूमने से संसार में नहीं घुमते अर्थात् जन्म नहीं लेते, तीर्थ में खर्चा करने से स्थिर (अचल) लक्ष्मी ( सम्पत्ति ) प्राप्त होती है और तीर्थश्वर भगवान की पूजा करता हुआ मनुष्य संसार में पूज्य हो जाता है ।। ५६ ।। जाएण वि किं तेण, अहवा किं तेण मणुअजम्मेण । सत्तुंजयो न दिट्ठो, न वंदिओ जेण रिसहजिणो ॥ ६ ॥ { संस्कृत छाया) जातेनापि किं तेन अथवा किं तेन मनुजजन्मना । शत्रुजयो न दृष्टो न बन्दितो येन ऋषभ जिनः ।। उसको जन्म लेने से क्या लाभ ? अथवा मनुष्य जन्म से क्या फायदा ? जिसने शत्रुजय तीर्थराज को नहीं देखा और तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव को बन्दना नहीं की ।। ६० ।। अपि चऔर भीनमस्कारसमो मन्त्रः, शत्रुञ्जयसमो गिरिः । वीतरागसमो देवो, न भूतो न भविष्यति ॥ ६१॥ नमस्कार के समान कोई मंत्र, शत्रुजय के समान कोई पर्वत, वीतराग (जिनेश्वर ) के समान कोई देव न है और न होगा ॥ ६१ ।। एवं स श्रीसंघस्तीर्थस्तवनं विधाय शुद्ध भावनां च विभाव्य तदनन्तरं ततो निवर्तमानी मार्ग एकस्य मार्गस्थग्रामस्य समीपे स्थितः । अस्मिन् समये तेन मन्त्रिणा गच्छता स एव संघी मार्गे विलोकितो, विलोक्य चातीव हटेन तेन जयजिनेन्द्रतिभगवन्नामनिगदनपूर्वकं नमस्कार For Private And Personal Use Only
SR No.020435
Book TitleKamghat Kathanakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangadhar Mishr
PublisherNagari Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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