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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् हस्ते नरकपालं ते, मदिरा-मांस-भक्षिणि!। भानुः पृच्छति मातङ्गीं, किं तोयं दक्षिणे करे ? ॥ ३८ ॥ भानु भंगिन से पूछता है कि हे मदिरा-मांस-खानेवाली मातंगी! तुम्हारे एक हाथ में मनुष्य का मुंड है और दाहिने हाथ में जल क्यों १ ॥३८ ।। साऽऽहवह बोल उठी:मित्र-द्रोही कृतघ्नश्च, स्तेनो विश्वास-घातकः । कदाचिच्चलितो मार्गे, तेनेयं क्षिप्यते छटा ॥ ३६॥ मित्र का द्रोही, किए हुए को न मानने वाला, चोर और विश्वास घाती, कहीं इस रास्ते से चला हो, इस लिए ये छोटे छीटती हूं ।। ३६ ।। तथा चऔर भीपासा वेसा अग्नि जल, ठग ठक्कुर सोनार । ए दस होय न अप्पणा, दुज्जण सप्प विलार ॥ ४० ॥ पासा (जुआ), वेश्या, अमि, जल, ठग, ठाकुर, सोनार, दुर्जन, सांप और बिलाड़ ए दश अपने नहीं होते अर्थात् इनका विश्वास कभी नहीं करना चाहिए ।। ४० ॥ ___अथ कपटेनेनं चेन्मारयामि तदैतत्सर्वमपि मे स्वाधीनं भवेदिति विचार्य तेन मन्त्रिणा सहाधिका प्रीतिमण्डिता। अब, यदि छल करके इस को मारडालूं तो इसका सब कुछ (धन-स्त्री ) मेरे अधीन हो जायगा,, ऐसा विचार कर उस मंत्री के साथ अधिक प्रीति रच डाली यतः क्योंकि ददाति प्रतिगृह्णाति, गुह्यमाख्याति पृच्छति । भुंक्ते भोजयते चैव, षड्विधं प्रीतिलक्षणम् ॥ ४१ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020435
Book TitleKamghat Kathanakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangadhar Mishr
PublisherNagari Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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