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श्रीकानघट कथानकम
उसके बाद अपनी शील-रक्षा के लिए उसने कहा-अभी मुझे शोक है, इसलिए, नगर में जाने के बाद विचार करूंगी, इसतरह की उसकी बात से सागरदत्त सुखी हो गया। इधर सागरदत्त सेठ का जहाज तेज वायु से प्रेरित होकर गम्भीरपुर नगर में पहुंच गया। तबतक सौभाग्य सुन्दरी अपनी शीलरक्षा के लिए जहाज से उतर कर समीप में रहे हुए श्री ऋषभदेव भगवान के मन्दिर में जाकर उनको विधिपूर्वक बन्दना करके और किवाड़ लगाकर रह गई और उसने कहा कि यदि मेरा शील का ( कुछ भी ) माहात्म्य है तो मेरे पति के बिना ( किसी दूसरे से ) ये दोनों कपाट नहीं उघड़े। फिर सागरदत्त भी उसके शील का प्रभाव से उसको वहीं भूल कर अपना घर चला गया। इधर धर्मबुद्धि मंत्रीने "नव-स्मरण" के माहात्म्य से फलक (पट्टी) को पकड़ कर धीरे धीरे समुद्र के किनारे आगया। क्योंकि, 'नवस्मरण" का फल शास्त्र में भी ऐसा ही कहा है
यथा :जैसे :जिणाससणस्स सारो, चउदसपुव्वाण जो समुद्धारो । जस्स मणे नमुक्कारो, संसारो तस्स किं कुणइ ? ॥ ५३॥
( संस्कृत छाया)
जिनशासनस्य सारः चतुर्दशपूर्वाणां यः समुद्धारः ।
यस्य मनसि नमस्कारः संसारः तस्य किं करोति ॥ ५३ ।। पंच परमेष्ठी नमस्कार जिनशासन का सार है, चौदह पूर्वो का समुद्धार है, वह नमस्कार ( मंत्र ) जिसके मन में है, उसको संसार क्या कर सकता है।५३ ।।
नमस्कार मंत्र यह है
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहणं।
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