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श्री कामघट कथाननाम
चिन्तामणिः कामकुम्भः, सुरभिः सुरपादपः । कनकं रजतं तिष्ठेत्, नैव पापिनिकेतने ॥ ४६॥ चिन्तामणि, कामघट, कामधेनु, कल्पवृक्ष, सोना और चांदी पापीके घरमें कभी नहीं रहते ॥ ४६ ।।
तदा निशाचरेणोक्तम्--अहं सम्यक् प्रयत्नेनैनं स्थापयिष्यामि, इत्युक्ते मन्त्रिणा दंडप्रभावं स्वोपयोगिनं ज्ञात्वा पुनश्चिन्तितं स्त्रमनसि-- यद्यहमस्य प्रार्थनाभंग विधास्य तर्हि मे सर्वतो नीचपदत्वमापत्स्यते। यतः
__ तब राक्षने कहा-मैं अच्छीतरह यत्नपूर्वक इस ( कामघट ) को रखेगा। इसतरह राक्षस के कहने पर मंत्रीने दण्ड के माहात्म्य को अपने लिए उपयोगी जानकर फिर मनमें विचार किया यदि मैं इसका प्रार्थना भंग करता हूँ तो मैं सभी तरह नीच पद को प्राप्त हो जाउंगा। क्योंकि -
तण लहुयं तुस लहुयं, तणतुसमझ वि पत्थणालयं । ताहं चिय कुण लयं, पत्थणभंगो कओ जेण ॥ ५० ॥ ( संस्कृत छाया)
तृणं लघुकं तुषो लघुकः तृणतुषमध्येऽपि प्रार्थना लध्वी ।
तस्माच्चैव को लधुः प्रार्थना-भंगः कृतो येन ॥ ५० ॥ तृण (तिन का) लघु (क्षुद्र-छोटा ) है, तुष (भूसा-अन्न के ऊपर का छिलका) क्षुद्र है और तृणतथा तुस से भी प्रार्थना छोटी है-क्षुद्र है। और उससे भी लघु कौन है जिसने प्रार्थना का भंग किया ? अर्थात् किसी की प्रार्थना (मांगना-भिक्षा) का भंग करना सब से अधिक क्षुद्रता है-नीचता है या हलकापन है या अत्यन्त लघुता है, कहा भी है
"रहिमन वे नर मरचुके जे कछु मांगन जांहि ।
उनते पहले वे मुए जिन मुख निकसत नाहि" ॥ ५० ॥ इति विचिन्त्य स तं घटं तस्मै समर्पयित्वा तद्दत्त दंडं गृहीत्वा चाय चचाल । अथ तस्य मन्त्रिणो गच्छतो द्वितीयदिवसे बुभुक्षा लग्ना, तदा तेन दंडो लपितः हे दंड ! त्वं मे भोजनं दास्यसि नवा ? तेनोक्तम्-भोजनदाने मे सामर्थ्यं नास्ति । अथैवं क्षुत्पीडायामाहारनिषेधवार्ता
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