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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् वावत्तरिकलाकुसला, पंडियपुरिसा अपंडिया चेव । सव्वकलाणं पवरा, जे धम्मकलं न जाणंति ॥८॥ (संस्कृत छाया-) द्वासप्तति-कला कुशलाः पण्डित-पुरुषा अपण्डिताश्चैव । सर्व-कलानां प्रवराः ये धर्मकलां न जानन्ति ॥ ८॥ . बहत्तर कलाओं में चतुर, सब कलाओं में प्रवीण पण्डित पुरुष भी यदि धर्मकला को नहीं जानते हैं तो वे अपण्डित (मूर्ख) ही हैं ।। ८ ।। अपि चऔर भीसीखेहो अलेख लेख कविता गीतनाद- छन्द, ज्योतिषके सीखे रहते मगरूरमें । सीखेहो सौदागिरी सराफी बजाजी लाख, रुपियनके फेरफार बहेजात पूरमें ॥ सीखेहो जंत्र मंत्र तंत्र बातां भातां बहु ज, जगत कहत जाको हाजर हजूर ! में । कहे मुणि 'राजेन्द्रसरि' जिननाम बोलवो, नहीं सीख्यो ताको सब सीख्यो गयो धूरमें ॥ ६ ॥ एवं धर्मसम्बन्धीनि वचनान्यकर्ण्य महाहर्षेण व्यवहारिणोक्तम्-तहि त्वं मम न्यापारसम्बंधि लेखादिकम कुरु, तेनापि तदंगीकृतं, ततो व्यवहारिणाऽपि स लेखादिकार्ये स्थापितः। एवं स तत्र सुखेन कालं गमयति स्म । इसतरह धर्म की बातें सुनकर खुश होकर व्यापारीने कहा-तो तुम मेरा व्यापार संबन्धी लिखने आदि का काम करो-मंत्रीने भी मंजूर कर लिया। फिर सेठने भी मंत्री को लिखने आदि के कार्य में नियुक्त कर दिया, इसतरह वह मंत्री सुख से समय बिताने लगा। For Private And Personal Use Only
SR No.020435
Book TitleKamghat Kathanakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangadhar Mishr
PublisherNagari Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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