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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम पापते जात रसातल मानव पापते अन्ध हुवे नर नारी, __ पापते व्याधि रहे अपरंपर पापते भीख भमंत भिखारो। पापते खान रु पान मिले नही पापते होत है देह खुवारी, 'मूरिदया' तजि पाप पराभव पुण्य करो मन शुद्ध षिचारी ॥ १५ ॥ इत्यादिहेतोर्मन्त्री तु धर्मादेव सर्व भव्यं भवतीति मन्यते । यतःइत्यादि कारण से मंत्री तो धर्म से ही सब अच्छा होता है, यह मानता था। क्योंकियन्नागा मदवारिभिन्नकरटास्तिष्ठन्ति निद्रालसा, द्वारे हेमविभूषिताश्च तुरगा द्वेषन्ति यद्दर्पिताः । वीणावेणुमृदंगशंखपटहैः सुप्तश्च यद् बोध्यते, तत्सर्व सुरलोकदेवसदृशं धर्मस्य विस्फूर्जितम् ॥ १६ ॥ निद्रा से अलसाए हुए और मदजल से भीजे हुए दांत वाले (मतवाले) हाथियों के झुण्ड द्वार पर रहते हैं और वेगयुक्त ( तेजस्वी ) घोड़े सुवर्ण आदि अलङ्कारों से युक्त होकर द्वार पर हिनहिनाते हैं और सितार, बांसुरी, पखावज, शंख और नगाड़ों के द्वारा जो सोया हुआ जगाया जाता है, यह सब स्वर्ग में देवता के समान इस लोक में धर्म का ही फल है ।। १६ ।। पुना सजानं मंत्र्याह-राज्यादि सुखं निखिलं धर्मेणैव प्रजायते । यतःफिर राजा को मन्त्री ने कहा-राज्य आदिक सारा सुख धर्म से ही होता हैं क्योंकि: राज्यं सुसंपदो भोगाः, कुले जन्म सुरूपता । पाण्डित्यमायुरारोग्यं, धर्मस्यैतत्फलं विदुः ॥ १७॥ राज्य, अच्छी सम्पत्ति और उसका भोग, उत्तम कुल में जन्म, सुन्दर रूप, पण्डिताई, आयु और नीरोगपना यह सब धर्म का ही फल है ।। १७ ।। मिलति पुत्रकलत्रसुखप्रदः, प्रियसमागमसौख्यपरंपरा । नृपकुले गुरुता विमलं यशो, भवति धर्मतरोः फलमीदृशम् ॥ १८ ॥ सुख देने वाले पुत्र-स्त्री का मिलना, प्रियजनों का समागम और लगातार सुख का होना, राजकुल में बड़ाई और निर्मल यश यह धर्म रूपी वृक्ष का फल है ।। १८ ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020435
Book TitleKamghat Kathanakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangadhar Mishr
PublisherNagari Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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