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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम यच्छन्तीषु मनोहरं निज-वपुर्लक्ष्मी-लव-श्रद्धया, पण्यस्त्रीषु विवेक-कल्प-लतिका-शस्त्रीषु को रज्यते ? ॥ २२ ॥ जो वेश्याएं थोड़ी सो लक्ष्मी (पैसे) के लिए जन्म के अंधे ( पुरुष ) को, कुरूप को, बुढ़ापे से शिथिल (ढीले ) अंग वालों को, गमारों को, नीचों (दलित वर्गों) को और गलित कुष्ठ वालों को अपने सुन्दर शरीर को न्यौछावर करती हैं, उन विवेक रूपी कल्पलता के काटने वाली हँसुआ समान वेश्याओं में कौन (विचारशील ) राग (प्रेम ) करता है ? अर्थात् कोई भी नहीं ।। २२ ।। अथ मे सम्मुखमपि मा पश्य, कथं मद्गृहे विनादेशं समागता ? पुनर्हेगणिके ! मद्वाक्यं शृणु-यदि त्वं केवलस्वर्णमयी भवेस्तथाऽप्यहं त्वां नाभिलषामि, नानुरक्तो भवामि, नास्ति साप्तधातुकेऽस्मिन् ते देहे मे भोगरुचिः, एषा तनुर्दर्गन्धपूर्णा चर्ममण्डिता सद्बुधैर्निन्दिता दशभिः छिट्टैरहर्निशं मलवाहिनी सर्वतोऽशुच्यागारभूता। एवंभूतां तनुं पुरीषाभिलाषुको एवांगीकुर्युनान्ये । अतोऽहं ते विग्रहं मनसापि नाभिलष्यामि, तर्हि कायेन किम् ? पुनर्या स्त्री मद्यपा इवोन्मत्ताऽस्मिन् लोकेऽकार्यक: विलोक्यते सा दर्शनमात्रेणैव सर्वमैहिकं पारत्रिकं च पुण्यं विनाशयति । यत्स्वभाषितं तदपि न सत्यापयतीति सा कथं विश्वासार्हा ? अनेनैव कारणेन महानर्थमूला स्त्रीतनुरिति ज्ञात्वा ज्ञानिनो लोकाः परदारसंगं त्यजन्ति । कुतो विषयाब्धिनिमग्नैः सद्भिरेकवारमपि यत्परदारगमनं विधीयते, तर्हि तैरेकविंशतिवारं सप्तमनरकदुःखमनुभूयत एव । अब, मेरे सामने भी मत देखो, बिना आज्ञा के मेरे घर में क्यों आगई ? फिर हे वारांगने, मेरी बात सुनो-यदि तुम निखालिश सोने की हो जाओ, फिर भी मैं तुम्हें नहीं चाहूंगा और न प्रेम करूंगा, सात धातुओं से बने हुए तुम्हारे इस देह में मेरी भोग की इच्छा नहीं है। यह शरीर दुर्गन्धमय है, चाम से ढका हुआ है, ज्ञानियों ने इसकी निन्दा को है। दश छिद्रों से निरन्तर मल निकलते रहते हैं, सब तरह से यह अपवित्र का भण्डार है। इसतरह के अपवित्र शरीर में पुरीष (पाखाना-टट्टी) की चाहना करने वाले ही अनुराग करते हैं, दूसरे नहीं। इसलिए मैं तुम्हारे शरीर को मन से भी इच्छा नहीं करता हूं, फिर शरीर से क्या ? फिर जो स्त्री शराबी की तरह मतवाली होकर कुकर्म करती हुई दीखती है वह देखने मात्र से ही इस लोक के और परलोक के सारे पुण्य को विनाश कर डालती है। जो अपने आप कहती है उसे भी सत्य करके नहीं दिखलाती वह ( वेश्या ) कैसे विश्वास के योग्य हो सकती है ? इसी कारण से “भारी खतरे को जड़ कामिनी का शरीर है" यह जानकर ज्ञानी लोग दूसरी स्त्री के संग (सहावास ) को छोड़ देते हैं। क्योंकि, विषय रूपी समुद्र में डूबे हुए सज्जनों द्वारा एकबार भी जो पराई For Private And Personal Use Only
SR No.020435
Book TitleKamghat Kathanakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangadhar Mishr
PublisherNagari Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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