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श्री कामघट कथानकम्
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और अनेक भय से युक्त भोग आदि सब को छोड़ कर निर्भय होकर सर्वश्रेष्ठ वैराग्य धर्म को ही सेवन किया करें।
यतः
क्योंकिभोगे रोगभयं सुखे क्षयभयं वित्तेऽग्निभूभृद्भयं, माने म्लानिभयं जये रिपुभयं वंशे कुयोषिद्भयम् । दास्ये स्वामिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं, सर्व नाम भयं भवेदिह नृणां वैराग्यमेवाभयम् ॥ २० ॥
भोग में रोग का, सुख में क्षय का, धन में राजा और अग्नि का, मान में प्लानि का, जय में शत्रु का, वंश में खराब स्त्री का, सेवा में स्वामी का, गुण में खल का, शरीर में मृत्यु का भय है,-यानी मनुष्यों को इस संसार में सभी कुछ में भय ही है, परन्तु, एक वैराग्य ही अभय है ॥ २०० ॥
भो भन्याः ! बहूक्तेन किम् ? परभवे सुखोपलब्धये धर्मसंबलं गृह्णन्तु, यतोऽत्रापि संवलं विना कोऽपि नरः कदापि पन्थानं नो गच्छति, तर्हि दीर्घादृष्टपरलोकमार्गस्यात्रैव संबलं किन्न गृहीतव्यम् ? यतो ग्रामान्तरं गच्छतः कुत्रापि पाथेयं मिलति, परत्र गन्तुस्तु नैव ।
हे भव्य लोको ! अधिक कहने से क्या ? दूसरे जन्म में सुख-प्राप्ति के लिए धर्म-रूप संबल ( रास्ताखर्चा-बटखर्चा ) ग्रहण करो, क्योंकि, यहां भी कोई भी व्यक्ति बिना रास्ता-खर्चा के कभी भी मुसाफिरी नहीं करता तो फिर बहुत-लम्बे और अदृष्ट परलोक के मुसाफिरी का खर्चा ( सत्य धर्म ) यहीं क्यों नहीं ले लेते, क्योंकि, और दूसरे ग्राम में जाने वालों को रास्ता में कहीं ( बस्ती में ) कुछ खर्चा मिल भी जाता है, परन्तु परलोक में जाने वालों को तो नहीं मिलता है।
यतः
क्योंकिग्रामान्तरे सर्वोऽपि लोक
विहित-संबलकः इह रूढिरिति
प्रयाति, प्रसिद्धा ।
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