Book Title: Kamghat Kathanakam
Author(s): Gangadhar Mishr
Publisher: Nagari Sahitya Sangh

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Page 128
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम् ११५ धिना मृत्वा ते समृद्धिमान् धर्मबुद्धिनामा मन्त्री जातः, एवं येन यादृशानि कर्माणि कृतानि तेन तादृशान्येवात्र फलानि प्राप्तानि । अथ जिनदीक्षां गृहीत्वा सत्तपस्तप्त्वा केवलज्ञानमासाद्य, हे राजन् ! अस्मिन्नेव भवे युवां मोक्षं गमिष्यथः । अतो रोगशोकादिदौर्भाग्याणां हर्ता भवदुःखविनाशकः परमानन्ददायकश्चैवंविधो धर्मः सहर्ष मोक्षार्थि प्राणिभिः सदैव कर्तव्यः 1 केवलमुनि की ऐसी धर्म देशना सुनने के बाद सभा के सब लोग केवलीमुनि को बन्दना कर और यथाशक्ति नियम-तों को स्वीकार कर अपने अपने स्थान को चले गए । उसके बाद राजाने पूछा --हे भगवन् ! मैंने पूर्व जन्म में कैसा कर्म किया है ? जिस से मुझे धर्म में रुचि नहीं हुई और इस मंत्रीने कैसा कर्म किया है, जिससे इसको पद-पद में ऐसी सम्पत्ति मिली। तब केवली महाराज कहने लगे - हे राजन् ! तुम दोनों के पूर्वजन्म की सारी बातें मैं कहता हूँ, सावधान र सुनो —- तुम दोनों पूर्वजन्म में सुन्दर और पुरन्दर नाम के दो सगे भाई हुए । लेकिन 'सुन्दर मिथ्यात्व से मोहित होकर अज्ञानता से अपने शरीर को कष्ट देने वाला तापस हो गया, वहां वनस्पतिओं को काटनेछाटने और जल-क्रीड़ा आदि दुष्कर्म से फिर अधिक मिथ्या बुद्धि को प्राप्त करके अज्ञान तपस्या के बल से सभी इन्द्रियों को वश कर लिया। सूखे गोइठे, आग की धुनी, बन के फल-फूल, मिट्टी और बिभूत भस्म ) को प्रति दिन उपयोग में लाकर जटाधारी अवधूत ( बाबा ) बन गया। दोनों हाथ ऊपर और मुंह को नीचा कर अज्ञानता - जनित तपस्या के द्वारा पश्चामि ( चारों ओर चार और एक बीच में जलती हुई) को साधने लगा । हमेशा मौन रहने लगा, नाखून और बालों को बढ़ाने लगा । कन्द-मूल खा-खा कर शरीर को पतला करने लगा। छः काय जीवों को विराधना करने लगा, दया हृदय में कभी नहीं रखने लगा, स्नान आदि बाह्य शुद्धि को खूब करने लगा, इसतरह मिथ्यात्व में बांधने बाली पाप-क्रियाओं को आचरण करता हुआ अंत में मरकर अज्ञान-तपस्या के बदौलत यह तुम पापबुद्धि नाम का राजा हुए। और फिर पुरन्दर जैन साधुओं की संगति से उनके उपदेश के अनुसार जिन-मन्दिर करवाना शुरु किया, मन्दिर के आधा तैयार होजाने पर इसने ऐसी शंका की कि मैंने जो हजारों रुपये खर्च करके जिनमन्दिर बनवाना आरम्भ किया है, उसके तैयार होजाने पर मुझे कुछ भी फल मिलेगा या नहीं, इस तरह शक-सन्देह करता हुआ उसने फिर ऐसा विचार किया कि - हाय, मैंने झूठी धारणा की, क्योंकि, देवता के निमित्त किया हुआ काम कभी निःफल नहीं होता, इसलिए, मुझे मन्दिर बनवाने का फल मिलेगा ही, ऐसा विचार कर उसने निर्मल भाव से उस जिन मन्दिर को पूरा कर फिर किसी ज्ञानी सद्गुरु के पास में महान उत्सव के साथ बहुत-द्रव्य खर्चा कर अंजन शलाका के साथ प्रतिष्ठा करवा कर जिन-मूर्तियां स्थापित करवाई । उसी तरह अन्य भी जिनधर्म की उन्नति में, जिनमन्दिर, बिम्बप्रतिष्ठा में, तीर्थ-यात्रा में, गुरु-भक्ति में, सामी-बच्छल में, पोषधशाला में, दुनियों को दान में इत्यादि अनेक धार्मिक कार्य कर फिर अन्य में अपनी आयु की समाप्ति में वह पुरन्दर का जीव सुख -समाधि पूर्वक मरकर For Private And Personal Use Only

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