Book Title: Kamghat Kathanakam
Author(s): Gangadhar Mishr
Publisher: Nagari Sahitya Sangh

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Page 125
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११२ श्री कामघट कथानकम द्वेषादिकर्मशत्रून्विजित्य शाश्वतीं मोक्षश्रीलोलामामोति, एवं द्विविधो धर्मः पूर्वैः सुज्ञानिपुरुषोत्तमैः प्रतिपादितः। पापेन च दुःखमेव भवति, अतोऽधर्म परित्यजत। ये खलु पापरागिणस्तेऽधमां गतिं यास्यन्ति । पुनर्ये पापिनस्त दुःखनिलया भूत्वाऽनन्तकालं भवे भ्रमिष्यन्ति । अतएव ये भन्याः सम्यक् परीक्ष्य धर्ममाश्रयिष्यन्ति ते भवसागरतीरं लब्ध्वा शिवलक्ष्मी वरिष्यन्त्येव यतः प्राणिनां धर्म एव सर्वसुखखनिः, धर्मेण हि सुरसम्पदो भवन्ति । अतो धरायां सारभूतं धर्म ज्ञात्वा यथाविधि त्वरितं तं निषेवध्वम् । - ऐसे सम्यक्त्व (सञ्चा धर्म ) को अंगीकार कर और देव-गुरु-धर्मों को अच्छी तरह सेवा कर आप लोग परम सुख-शान्ति ( मोक्ष ) की साधना करें। विषय-वासना के विकारों को छोड़ कर अणुव्रत आदि बारह व्रतों को स्वीकार करें, क्योंकि यही रास्ता संसार से (जन्म-मरण आदि क्लेश से ) छुटकारा पाने के लिए सीधा रास्ता है। फिर जो प्राणी प्रेम से पंच महाव्रत ( अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ) को अच्छी तरह निभाता है, वह संसार (जन्म-मरण-जनित-दुःख ) को खत्म करके मोक्ष को प्राप्त होता है। और जिस सम्यक्त्व से प्राणी राग-द्वेष आदिक कर्म-शत्रु को जोत कर शाश्वती ( निरन्तर रहनेवाली) मोक्ष-लक्ष्मी को प्राप्त होता है। इसतरह उत्तम ज्ञान वाले पूर्वाचार्यों ने दो प्रकार के धर्म बतलाए हैं। और पाप से दुःख ही होता है, इसलिए, अधर्म को छोड़ दीजिए। जो कोई पाप के रागो हैं, वे नीच गति को जाते हैं और जो पापी हैं वे दुःखों के घर होकर बहुत समय तक संसार में भटकते रहेंगे और जो भव्य (श्रद्धालु धार्मिक) अच्छी तरह परीक्षा करके धर्म की शरण लेंगे, वे संसार-सागर को पार कर मोक्ष-लक्ष्मी को अवश्य बरेंगे, क्योंकि, प्राणियों के सारे सुखों की खान धर्म ही है,धर्म से दैवीसम्पत्तियां होती हैं। इसलिए, पृथिवी में धर्म को सर्वश्रेष्ठ जानकर यथोचित रूप से शीघ्र सम्यक्त्व की सेवा करें। यतःक्योंकिविलम्बो नैव कर्त्तव्यः, आयुर्याति दिने दिने । न करोति यमः शान्ति, धर्मस्य त्वरिता गतिः ॥ ६ ॥ दिन-दिन आयु क्षीण होती जा रही है, अतः सद्धर्म-आराधन में देर नहीं करनी चाहिए, मौत किसी को माफी नहीं देती, धर्म की गति शीघ शीघ होती है अतः धर्माचरण में शीघ्रता करनी चाहिए ।। ६६ ।। पुनरनेकभययुतं भोगादिकं सर्व परित्यज्य निर्भयं परमसारभूतं वैराग्यधर्ममेव भजध्वम् । For Private And Personal Use Only

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