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श्री कामघट कथानकम
तथा च• और भी
अपेक्षन्ते न च स्नेह, न पात्रं न दशान्तरम् । सदा लोक-हितासक्ता, रत्न-दीपा इवोत्तमाः ॥ ८२॥
अच्छे लोग (सज्जन) रन और दीप के समान परोपकार में लगे रहते हैं, वे प्रेम की अपेक्षा नहीं रखते न पात्र की अपेक्षा रखते हैं और न दूसरी हालतों ( अवस्थाओं) की ही अपेक्षा रखते हैं । ८२ ।।
... ततस्तयोः परस्परं परममैत्री संजाता, अतएव सम्यक्तया द्वावपि धर्मध्यानमेकमनसौ सन्तौ चक्रतुः । पुनस्तत्रैव नगरे सुखेन तौ राज्यं पालयामासतुः। अथ कियता कालेन केवलज्ञानिनं सन्मुनि वनपालमुखादुपवने समवसृतं श्रुत्वा नृपसचिवादयस्तस्य दर्शनार्थ समागताः। तत्र केवलमुनिनाऽप्येवं संसारार्णवतारिणी विषयकषायमोहाज्ञानतिमिरविदारिणी धर्मदेशना प्रारब्धा ।
फिर मंत्री और राजा दोनों में परस्पर पूरी मैत्री हो गई, इसलिए, वे दोनों अच्छी तरह एक मन होकर धर्मध्यान करने लगे। फिर उसी नगर में वे दोंनो सुख पूर्वक राज्य करने लगे। फिर कुछ दिन के बाद बन पालक के मुख से उपवन में उतरे हुए केवल ज्ञानी मुनि को सुनकर, राजा, मंत्री आदि उनकी बन्दना करने के लिए वहाँ गए। वहां केवल मुनि ने भी संसार-सागर से तारने वाली विषय-कषाय-मोह अज्ञान सपी अन्धकार को नाश करने वाली धर्म-देशना प्रारम्भ कर दी।
. यथाजैसे :त्रैकाल्यं जिन-पूजनं प्रतिदिनं संघस्य सम्माननं, खाध्यायो गुरु-सेवनं च विधिना दानं तथाऽऽवश्यकम् । शक्त्या च व्रत-पालनं वर-सपो ज्ञानस्य पाठस्तया, सैष श्रावक-पुङ्गवस्य कथितो .. धर्मो जिनेन्द्रागमे ॥ ३ ॥
तीनों काल में भगवान जिनेन्द्र की पूजा, प्रति दिन संघ का सम्मान, स्वाध्याय और गुरु की सेवा लथा विधि पूर्वक आवश्यक ( सामायिक-संध्यावन्दन) और दान एवं शक्ति के अनुसार व्रत का पालन, अच्छा तप और झान का पाठ, यह श्रेष्ठ भावक का धर्म जिनागम में कहा गया है ।। ८३ ।।
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