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श्री कामघट कथानकम्
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रूप-यौवन-सम्पन्ना, विद्याहीना न शोभन्ते,
अच्छे कुल में उत्पन्न, सौन्दर्य जौर युवा अवस्था से युक्त भी व्यक्ति विद्या से हीन उस तरह नहीं शोभा पाते हैं जैसे किंशुक ( ढाक - पलास ) के फूल खूबसूरत होने पर भी गन्ध रहित होने से शोभा नहीं. पाते ॥ ३० ॥
विशाल-कुल- सम्भवाः । निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥ ३० ॥
वरं दरिद्रोऽपि विचक्षणो नरो, नैवार्थयुक्तोऽपि सुशास्त्र-वर्जितः ।
विचक्षणः कार्पटिकोऽपि शोभते, न चापि मूर्खः कनकैरलंकृतः ॥ ३१ ॥
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बुद्धिमान् दरिद्र भी अच्छा, लेकिन मूर्ख धनी भी अच्छा नहीं, क्योंकि, चतुर कार्पटिक भी शोभा पाता है परन्तु सुवर्ण से अलंकृत भी मूर्ख नहीं शोभता ।। ३१ ।।
अपि च
और भी
विद्या
नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं, विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः । विद्या बन्धु-जनो विदेश गमने विद्या परं दैवतं, विद्या राजसु पूजिता नहि धनं विद्या विहीनः पशुः ॥ ३२ ॥
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विद्या, मनुष्य का बहुत बड़ा रूप है, सुरक्षित गुप्त धन है, विद्या भोग (सुख) देती है और यश-कीर्ति फैलाती है, विद्या गुरुओं का भी गुरु है। परदेश में विद्या सगे-संबन्धियों के समान हो जाती है, विद्या सब से बड़ी देवता है, विद्या राजाओं में पूजी जाती है धन नहीं, विद्या से हीन मनुष्य ( विना सींग पूंछ का ) पशु है ।। ३२ ।।
हर्त्तुर्याति न गोचरं किमपि शं पुष्णाति सर्वात्मना, ह्यर्थिभ्यः प्रतिपाद्यमानमनिशं वृद्धिं परां गच्छति । कल्पान्तेष्वपि न प्रयाति निधनं विद्याख्यमन्तर्धनं, येषां तान्प्रति मानमुज्झत जनाः कस्तैः सह स्पर्धते ॥ ३३ ॥