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श्री कामघट कथानकम
यदुक्तंकहा भी हैकोहो पाइं पणासेइ, माणो विणय-नासणो । माया मित्तिं पणासेइ, लोहो सव्व-विणासणो ॥ ३६ ॥
क्रोधः प्रीतिं प्रणाशयति मानो विनय-नाशनः ।
माया मैत्री प्रणाशयति लोभः सर्व-विनाशनः ॥ ३६ ॥ क्रोध (गुस्सा ) प्रेम को विनाश कर देता है, मान विनय को नाश कर देता है, माया (कपट-छल) मित्रता को विनाश कर देती है और लोभ सभी कुछ नाश कर डालता है ।। ३६ ।।
अपि चऔर भीयददुर्गामटवीमटन्ति विकटं कामन्ति देशान्तरं गाहन्ते गहनं समुद्रमतनु-क्लेशां कृषि कुर्वते । सेवन्ते कृपणं पतिं गज-घटा-संघट्ट-दुःसंचरं सर्पन्ति प्रधनं धनान्धितधियस्तल्लोभ-विस्फूर्जितम् ॥ ३७॥
धन के पीछे अंधे होकर जो ( लोग ) दुर्गम जंगल में भटकते हैं, भयंकर दूर विदेश में जाते हैं, गहरे समुद्र में गोते लगाते हैं, बड़ी कड़ी मेहनत से खेती करते हैं, कंजूस स्वामी की सेवा करते हैं और हाथियों के मुंडों की जमघट ( भीड़) से नहीं चलने लायक जो युद्ध स्थान, उस में भी जो दौड़ते हैं, वह सब लोभ का ही माहात्म्य है ।। ३७॥
पुनरेतादृशैः कुत्सितनरैरचलाप्यशुद्धा भवति तद्वृत्त दृष्टान्तेन दर्शयति । और ऐसे बदनीयत लोगों से धरती भी नापाक हो जाती है, यह बात दृष्टान्त के द्वारा दिखलाते हैं
यथा
जैसे
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