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श्री कामघट कथानकम
की तरङ्गों की लीला को देखें तो सुन्दर है, मंत्रीने भी इसे स्वीकार कर लिया। अब, अवसर (समयमौका) पाकर लोभ से ग्रसित उस पापी सागरदत्तने मंत्री को समुद्र में गिरा दिया। लेकिन मंत्रीने गिरते ही पंच परमेष्ठी-नमस्कार के स्मरण करने के प्रभाव (माहात्म्य ) से फलक (पट्टी) पकड़ लिया
यतःक्योंकिसंग्राम - सागर . करीन्द्र - भुजङ्ग - सिंहदुर्व्याधि - वहि - रिपु . बन्धन . संभवानि । चौर - ग्रह - भ्रम - निशाचर . शाकिनीनां नश्यन्ति पञ्च . परमेष्ठि - पदैर्भयानि ॥ १३॥
लड़ाई, समुद्र, गजराज, सांप, सिंह, महाव्याधि, अग्नि और शत्रु के बन्धन से उत्पन्न भय तथा चोर, ग्रह, भ्रान्ति, राक्षस और शाकिनियों के भय पंच परमेष्ठी पद के स्मरण मात्र से दूर भाग जाते हैं ।। ४३॥
ततोऽनन्तरं सर्वाण्यपि प्रवहणानि त्वग्रतो गतानि । अथ स दुष्टो मायावी सागरदत्तोऽतीवोच्चस्वरेण पूत्कारं कुर्वन् कूटशोकं च विधाय विलपन्त्या राजपुत्र्याः पार्वे समागत्य मायया विलपन् सन्नुवाच हे भद्रे चन्द्रवदने ! स मन्त्री तु भृशं दयादाक्षिण्यौदार्यगांभीर्यादिसद्गुणकलितोऽद्वितीयः परोपकारभारधुर्य उत्तमपुरुषश्चासीत् । अतएव मे मनस्यपि तद्वियोगजं महद्दःखं भवति । अहमपि त्वदग्रे तद्दःख निवेदयितुमशक्योऽस्मि परं भवितव्यता तु पुण्यशालिनां महापुरुषाणामपि नो दूरीभवति ।
___ उसके बाद सभी जहाज तो आगे चले गए और वह दुष्ट मायावी सागरदत्त खूब जोर से चिल्लाता हुआ बनावटी शोक रचकर रोती हुई राजपुत्री के पास जाकर कपट करके रोता हुआ बोला-हे चन्द्रमा के समान मुख वाली ! वे मंत्री तो बड़े ही दया-दाक्षिण्य, उदारता, गंभीरता आदि अच्छे गुणों से युक्त थे, अद्वितीय ( बेजोड़-एकही) परोपकारी और उत्तम पुरुष थे। इसलिए, मेरे मन में भी उनके वियोग का दुःख है। मैं भी तुम्हारे सामने उस दुःख को कहने में असमर्थ हूं, लेकिन-होनहार पुण्यात्मा महापुरुषों के भी दूर नहीं होता
यतःक्योंकि
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