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श्री कामघट कथानकम् न पश्यति हि जात्यन्थः क्षुधान्धो नैव पश्यति । न पश्यति मदोन्मत्तो ह्यर्थी दोषं न पश्यति ॥ ४६॥
जन्म का अन्धा नहीं देखता, भूख से अन्धा नहीं देखता, मद से मतवाला नहीं देखता और अर्थी (धनी या याचक) दोष को नहीं देखता है ।। ४६ ।।
तथा च-- और इसीतरहदिवा पश्यति नो घूकः काको नक्तं न पश्यति । अपूर्वः कोऽपि कामान्धो दिवानक्त न पश्यति ॥ ५० ॥
दिन में उल्लू नहीं देखता, रात में कौआ नहीं देखता और कोई अजबनिराला काम ( वासना ) में अंधा दिन और रात में नहीं देखता है ।। १० ।।
अन्यच्चऔर भीकिमु कुवलय-नेत्राः सन्ति नो नाकि-नार्यस्त्रिदशपतिरहिल्यां.. तापसी यत्सिषेवे । मनसि तृण-कुटीरे दीप्यमाने स्मराग्नावुचितमनुचितं वा वेत्ति कः पण्डितोऽपि ॥ ५१ ॥
क्या कमल के समान सुन्दर आंखें वाली स्वग की सुन्दरियां नहीं थीं ? जो इन्द्रने ऋषिपत्नी ( गौतम की स्त्री ) अहिल्या से व्यभिचार किया-ठीक है कि घास-फूस की कुटिया समान (निर्बल ) मन में काम ( वासना ) रूपी अग्नि के जल उठने पर कोई पण्डित भी अच्छा या बुरा को नहीं पहचानता ॥ ११ ॥
अपि चऔर भी विकलयति कला-कुशलं, तत्वविदं पंडितं विडम्बयति । अपरयति धीर-पुरुष, क्षणेन मकर-ध्वजो देवः ॥ ५२ ॥
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