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श्री कामघट कथानकम
[जित एक बड़ा महल को रत्नसुन्दरीने देखा। फिर उस वेश्याने रत्नसुन्दरी को अपने आवास की सातमी भूमि में रख छोड़ी। अनन्तर रत्नसुन्दरीने वेश्या को पूछा-मेरा पति कहां है ? वेश्या बोलीयहां बहुतेरे तुम्हारे पति आजायेंगे। जो राजा हैं, राजकुमार हैं, मण्डलाधीश हैं, बड़े सेठ हैं और व्यापारी हैं, वे तुम्हारे सेवक ( नौकर ) हो जाएंगे। तुम्हारे आज्ञाओं के अधीन होकर राजा लोग छत्र, चामर, बाजे, बिस्तर, हाथी और घोड़े लावेंगे। नित-नये अत्यन्त सुन्दर तुम्हारी इच्छा के अनुसार भोगविलास की चीजें हो जाएंगे। हे सुन्दरी, अधिक क्या ? तुम्हारे चरण कमल पर नये-नये लोग सर्वदा ही गिरेंगे। तुम्हारे नयन-कटाक्ष से देखे गये सुर-असुर से सेवित मुनि लोग भी तुम्हारे वश में हो जाएंगे। हे सुन्दरि, अधिक कहने से क्या ? मनुष्य होने पर तुम अपने मन में जो कुछ विचारोगी वह सब तुमको देवता की तरह हो जायगा, इत्यादि कहकर उस वेश्याने अपना कुल का सारा आचरण बतला दिया। तब मंत्री की स्त्रीने विचार किया-अरे, यह तो वेश्या का घर है, हाय, अब मुझे इस वेश्या के घर में पति के बिना सब से उत्तम अलंकार रूप अपना शील को किस तरह रक्षा करना चाहिए ?
तदुक्तं सत्फलंशील का फल कहा है किशीलं नाम नृणां कुलोन्नतिकरं शीलं परं भूषणं, शीलं ह्यप्रतिपाति-वित्तमनघं शीलं सुगत्यावहम् । शीलं दुर्गति-नाशनं सुविपुलं शीलं यशः पावनं, शीलं निवृति-हेत्वनन्त-सुखदं शीलन्तु कल्पद्रुमः ॥ ६६ ॥
शील मनुष्यों के कुल की उन्नति करने वाला है, शील उत्कृष्ट अलंकार है, शील निश्चय करके संरक्षण करने वाला धन है, शील निष्पाप है—अच्छी गति को देने वाला है, शील दुःख-दरिद्रता को नाश करने वाला है, शील महान् पवित्र यश है, शील छुटकारा ( मोक्ष ) का कारण है-अनन्त सुख देने वाला है और शील कल्पवृक्ष है ।। ६६ ॥
शील सर्वगुणौघ-मस्तक-मणिः शील विपद्रक्षणं, शील भूषणमुज्ज्वल मुनिजनः शील समासेवितम् । दुर्वाराधिकदुःख-वह्नि-शमने प्राबृट-पयोदाधिकं, शील सर्वसुखैककारणमतः कस्याऽस्ति नो सम्मतम् ? ॥ ७० ॥
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