Book Title: Kamghat Kathanakam
Author(s): Gangadhar Mishr
Publisher: Nagari Sahitya Sangh

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Page 38
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम तं कुट्टयित्वा द्वारं भक्त्वा कामघटं च गृहीत्वा स मन्त्रिसमीपे समागतः । मन्त्रिणाथ स कामघट आभाषितस्त्वं तत्र किं समाधिना स्थितः ? घटेनोक्तं क्व मे समाधिः ? कुतस्त्वं मां तस्मै अधर्मिणेऽदाः ? तेन नाममात्रमपि मे सुखं कथं भवेत् ? मम तु धर्मवतामेव समीपे समाधिर्नान्यत्र । लोकेऽपि सदृशेषु सदृशा एव समानन्दन्ति । यतः-- इस तरह मंत्री की बात सुनकर दण्ड बोला-और कोई दूसरा काम कहो तो वह मैं करूंगा। तब मंत्रीने कहा कि कामघट ले आओ, ऐसा मंत्री के कहने पर दण्डने कहा कि अभी लाता हूं, ऐसा कहकर आकाश के मार्ग से चला-और वहां गया जहां राक्षस था। वहां उस राक्षस को खूब मार पीट कर उसके द्वार को तोड़ ताड़ कर और कामघट को लेकर मंत्री के पास चला आया। तब मंत्रीने उस कामघट -तुम राक्षस के यहां समाधि (स्थिर-चित्त-अचल चित्त ) से ठहरा था क्या ? कामघटने कहा कि मेरी समाधि वहां कहां? तुमने उस अधर्मी को क्यों दिया? उससे कुछ भी सुख मुझो कैसे हो ? मेरी समाधि (चित्त-स्थिरता ) तो धर्मी लोगों के ही पास होती है दूसरी जगह नहीं। लोक में भी समान गुण-धर्म वालों मे समान गुण-धर्म वाले आनन्द अनुभव करते हैं। क्योंकि हंसा रच्चंति सरे, भमरा रच्चंति केतकीकुसुमे । चंदणवणे भयंगा, सरिसा सरिसेहिं रच्चंति ॥ ५६ ॥ (संस्कृत छाया) हंसा रज्यंते सरसि भ्रमरा रज्यंते केतकी कुसुमे । चन्दन-बने भुजंगाः सदृशाः सदृशे रज्यन्ते ।। हंस सरोवर में प्रीति करता है, भौंरे केतकी के फूलों में राग करता है, सर्प चंदन के वन में आनन्द मानता है और समान गुण धर्म वाले समान गुण धर्मवालों में प्रेम करते हैं ।। ५६ ।। । अतस्तत्पापिपावें लेशमात्रमपि समाधिर्मे नो जातः । ततस्तेनातिक्षुधाकुलाय मंत्रिणे मनोऽभोप्सितं भोजनं दत्तं ततस्ते द्वे वस्तुनी लात्वा सचिवोऽग्रे चचाल । अथाऽस्मिन्नवसरे पूर्वदेशीय एकः श्रेष्ठियों महालाभमधिगम्य लक्षसंख्यामितं जनसंघ संमील्य शत्रुञ्जयादिपंचतीर्थयात्राकरणाय तेन संघेन साकं निस्ससार । स संघलोको मार्गग्रामस्थतीर्थानि समभिवन्दमांनोऽनुक्रमेण शत्रुञ्जयं समागात् । तत्र ऋषभजिनस्य गिरनारे नेमजिनस्य चाष्टाह्निकमहोत्सवेन For Private And Personal Use Only

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