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श्री कामघट कथानकम्
लक्ष्मी परोपकार के लिए, सरस्वती (विद्या) ज्ञान के लिए, संतान परलोक के लिए किसी धन्य पुरुष के ही होते हैं ।। ७० ॥
__ अपरं मे सर्वरोगविषशस्त्रघाताद्युपद्रवनिवारकं चामरयुगलं त्वं गृहाण, कामघटं मह्य समर्पय, कुतो महतामपि लोभो दुर्जयः ।
और मेरा सब रोग, विष, शस्त्रघात आदि उपद्रवों को दूर करने वाले दोनों चामरों को तुम ले. लो, कामघट मुझे दे दो, क्योंकि बड़ों को भी लोभ दुर्जेय है ।
यतःक्योंकिदीसन्ति खमावन्ता, नीहंकारा पुणो वि दीसन्ति । निल्लोहा पुण विरला, दीसन्ति न चेव दीसन्ति ॥ ७१ ॥ ( संस्कृत छाया)
दृश्यन्ते क्षमावन्तः निरहङ्काराः पुनरपि दृश्यन्ते ।
निर्लोभा पुनर्विरला दृश्यन्ते न चैत्र दृश्यन्ते ।। ७१ ॥ दयालु देखे जाते हैं और अहंकार रहित भी देखे जाते हैं, किन्तु इस संसार में लोभ रहित विरले ही देखें आते है और नहीं भी देखे जाते हैं ॥ ७१ ।।
संघपतेरेवं वचनं निशम्य मन्त्रिणोक्तम्--सन्तुष्टेन देवेन यो यस्याऽर्पितो भवति तत्रैव स तिष्ठति, नाऽन्यत्र । तदा कामघटार्थी संघपतिः कथयति स्म त्वन्तु सकृदर्पय तिष्ठतु वा मा तिष्ठतु। ततो मन्त्रिणा तस्याऽत्याग्रहं विलोक्य तच्चामरयुगलं गृहीत्वा स्वकामघटः समर्पितः । तदनुहृष्टः सन् संघपतिमंत्री च स्वं स्वं स्थानं प्रति चलतौ।
संघपति की ऐसी बात सुनकर मंत्रीने कहा-देवता संतुष्ट होकर जो वस्तु जिसको देता है वह वहीं रहती है, दूसरी जगह नहीं। तब कामघट का लालची संघपति कहने लगा तुम मुझे एकबार तो अर्पण करो पीछे वह मेरे यहां रहे या नहीं रहे। फिर मंत्रीने उसका अधिक आग्रह देखकर उससे दोनों चामर लेकर अपना कामघट उसे दे दिया। बाद में दोनों हर्षित होकर अपने अपने स्थान में चल दिए ।
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