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श्री कामघट कथानकम्
परिधापितः । अथ चमत्कारपूरितेन संघपतिना पृष्टं ? भोः पुरुषोत्तम ! त्वयैतावत्कस्य बलेन कृतं १, तदाऽमात्येनोक्तं कामघटबलेन । मन्त्रिणोक्तकामघटप्रभावं निशम्य लोभाभिभूतेन संघपतिनोक्तं-यदि मह्य कामघटमपयिष्यसि तर्हि सर्वदा साधर्मिकवात्सल्यपुण्यं ते भविष्यति, त्वन्तु धर्मार्थी दृश्यसे ।
इसलिए आज हम लोग क्या करेंगे? यह तो अपना पेट भरने में भी असमर्थ है और हम लोगों को भी रांधने को मना करता है। तब उस संघ के बीच से किसी बूढ़े ने कहा-हे संघपति आदि लोको! इस आग्रह करने वाले का भी आशाभंग मत करो--आज ऐसा ही हो, यह अपनी शक्ति से जो कुछ लवंग, सुपारी-जल आदि भी देगा वही खाकर हम लोग रहेंगे। और क्या कर ? इस लिए आप लोग आज्ञा दे दीजिए। इसतरह बूढ़े की बात सुनकर संघपतिने मंत्री को आज्ञा दे दी। आज्ञा लेकर हर्ष के साथ मंत्री अपने यहां आया और भगवान की पूजा आदि करने लगा संघ के लोगों को कुछ अधिक देर तक भोजन के लिए नहीं बुलाया, उससे संघ के सभी लोग व्याकुल होकर विचार-सागर में डबकर कहने कि क्या आज यह हम लोंगों को भोजन देगा या नहीं ? इधर मंत्रीने भी आकर लोगों को बुलाया, संघ के लोग भी शक-संदेह करते हुए उसके कहे हुए जंगल के स्थान की ओर चले। आगे जाते हुए संघ के लोग उत्तम चादर बिछा हुआ सुन्दर मंडप को कुछ दूर से ही देखकर खुश और विस्मित (चकित) होकर एक दूसरे से पूछने लगे-क्या यह मंडप है या स्वर्ग का विमान है ? यह सत्य है या मिथ्या है ? या हम लोगों का दृष्टिभ्रम है ? या मृगतृष्णा है, या इन्द्रजाल है, किंवा रात में देखे हुए स्वप्न की तरह यह क्या है ? इसतरह विचार करते हुए वे सब लोग उस मंडप के पास गए और हाथ से मंडप को देखने लगे। इधर संघ के प्रधान ने भी सब को यथायोग्य जगह पर बैठा दिया। उसके बाद कामघट के प्रभाव से सब के आगे सोने की थालियां देकर सोलहों शृङ्गार से सजी हुई एक सौ आठ सुर सुन्दरियों ने फल आदि अनुक्रम से अपूर्व दिव्य रसोई परोसी। उसके सभी आश्चर्य कारक चीजों को देखकर वे लोग आपस में पूछने लगे--ऐसे मजेदार फल और ऐसी रसदार मिठाई किसीने कहीं कभी देखी या खाई ? दूसरे ने कहा-कहीं नहीं। भोजन के बाद धोती पाग-दुपट्टे और सोने के कुण्डल हार आदि आभूषण सारे श्रीसंघ को पहना दिया। अब आश्चर्ययुक्त होकर संघपति ने मंत्री से पूछा-हे पुरुष श्रेष्ठ ! तुमने इतना किसके बल से किया ? तब मंत्री ने कहा - कामघट के बल से। मंत्री से कहे हुए कामघट के प्रभाव को सुनकर लोभ से ग्रसित संघपति ने कहा-यदि मुझे तुम कामघट दे दोगे तो तुमको साधर्मिक वात्सल्य (प्रेम ) का पुण्य होगा, तुम तो पुण्यात्मा दीखते हो। क्योंकि
लक्ष्मीः परोपकाराय, विवेकाय सरस्वती । ...सन्ततिः परलोकाय, भवेद्धन्यस्य कस्यचित् ॥ ७० ॥
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