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श्री कामघट कथानकम्
परं तमेकाकिनं दृष्ट्वा तनिमन्त्रणा तैस्संघलोकन मानिता, रन्धनं च प्रारब्धं किमेकाकिनो निःस्वस्य निमन्त्रणेनेति ।
लेकिन उसको अकेला देखकर उसके निमन्त्रण को उन श्रीसंघ के लोगों ने नहीं माना और अपनी रसोई रांधना शुरू किया, यह समझ कर कि इस अकेला दरिद्र के निमन्त्रण से इस बड़े श्रीसंघ के लोगों को क्या होने का है ?
यत:-- क्योंकि :ब्रह्मचारी मिताहारी, विनिन्द्रः शून्यमानसः । निःसङ्गो निष्परीवारी, भाति योगीव निर्धनः ॥ ६७॥
ब्रह्मचारी, अल्प (परिमित ) भोजन करने वाले, निद्रा रहित, शून्य-चित्त-वाले, अकेला और परिवार रहित जैसे योगी शोभता उसी तरह निर्धन ( दरिद्र-गरीब ) भी शोभता ( रहता ) है ।। ६७ ।।
एवं संघलोकानां वार्तामवगत्य ततो मन्त्रिणापि जलघटं गृहीत्वा संघमध्यस्थचुल्हिकेषु वारि निक्षिप्तं, उक्तं चाद्य केनापि रन्धयित्वा न भोज्यं, तथाविधमसमंजसं दृष्ट्वा व्याकुलीभूताः संघपत्यादयो जनास्संभूय चिन्तयन्ति स्म ।
इसतरह संघ के लोगों की बात को जानकर मंत्रीने भी जल से भरे घड़े को लेकर संघ के जलते हुए चुल्हाओं में पानी डाल दिया और कहा कि आज किसी आदमी को रांधकर अपने यहां नहीं खाना चाहिए। इसतरह के असमंजस (गड़बड़ी ) देख कर व्याकुल हुए संघपति आदि इकठ्ठा होकर विचार करने लगे:
यतः :-- क्योंकि :सुजीर्णमन्नं सुशासिता विचिन्त्य सुदीर्घकालेऽपि
सुविचक्षणः
सुतः स्त्री नृपतिः सुसेवितः । चोक्तं सुविचार्य यत्कृतं, न याति विक्रियाम् ॥ ६८ ॥
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