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श्री कामघट कथानकम
और युवतियों के कोमल पाणि-पल्लव से मथा हुआ शरीर के रोगों को हरने वाले इस तक (घोल-छाछ) को पीजिए ।। ८८ ।।
हिम-शीतल-निर्मल-कुंभ-भृतं, घनसार-सुवासित-वात-युतम् । युवती-कर-हेम-कचोल-भृतं, रिपु-पक्ष-हरं पिब भूप ! जलम् ॥८६॥
हे राजन्, बर्फ के जैसा ठंडा और निर्मल जल से भरे हुए कपूर और खश की खुशबू से युक्त घड़े में से युवती के हाथ से सोने की कटोरी में भर कर लाए हुए इस जल को पीजिए, यह जल आप के दुश्मन के दल को जीतने वाला है ।। ८६ ।।
इत्यादि मन्त्रिप्रेमवाक्यं शृण्वन रसवती भुंजानः सन् राजा पार्श्वस्थान् पुरुषान् पृच्छतिभो जनाः ! एवंविधा रसवती कापि युष्माभिरास्वादिता पक्वान्नानि वा दृष्टानि श्रुतानि वा ? सर्वे जनास्तदैवमाहुने क्वापि । एवमतिभक्त्या राजादयस्सर्वे जनास्तेन भोजिताः। तदनु च तेषु केसरचन्दनच्छटा निक्षिप्ताः, तांबलानि च सर्वेभ्यो दत्तानि दिव्यवस्त्राभरणादीनि च परिधापितानि । तदनु विस्मितेन राज्ञा मन्त्री पृष्टः-भो मन्त्रिन् । एतावन्तो जनास्त्वया कस्य प्रसादेन भोजिताः ? मन्त्रिणोक्तम्-महाप्रभावशालिनो देवाधिष्ठितस्य कामघटस्य प्रसादेन । तदा राज्ञोक्तं तं कामघट ममार्पय, यतः शत्रुसैन्यादिकृतपराभवावसरे स सर्वदा मम महोपयोंगी भविष्यति । ततोऽमात्येनोक्तम्-अधर्मवतस्तव गृहे स सर्वथा न स्थास्यति । नृपेणोक्तं सकृत्त्वं मेऽपय पश्चादहमतिप्रयत्नेन स्थापयिष्यामि, पुनरहं तबोपकारं ज्ञास्यामि । सचिवेनोक्तम्--अतःपरं किमहं ब्रवीमि भवदमात्योऽस्मीति ददामि, परं दिनत्रयं तु भवद्भिः सावधानतयाऽवश्यमस्य रक्षा विधेयेति मया स्पष्टं ज्ञापितोऽसि । नातःपरं मे कोऽपि दोष इत्युक्त्वा मन्त्रिणा स कामघटस्तस्मै समर्पितः । नृपेणाप्यतिप्रयत्नेन स्वालयभाण्डागारे स्थापितः, परितश्च तद्रक्षार्थ सारभूता निजसहस्रसुभटाः खड्गखेटकधरा सेना च स्थापिता ।
इत्यादि मंत्री की प्रेमभरी बात को सुनता हुआ और रसोई जीमता हुआ राजा अपने पास में रहे हुए लोगों से पूछा कि हे लोगो, आप लोगों ने ऐसी रसोई कहीं खाई या ऐसी मिठाई कहीं देखी या सुनी ?तब उस समय सभी ने कहा कि कहीं नहीं। इस तरह भक्तिपूर्वक मंत्रीने राजा आदि सब को भोजन कराया। और उसके बाद उन लोगों को केसर-चन्दन आदि की छांटे देकर पान के बीड़े सबों को दिए और सुन्दर वस्त्र-अलङ्कार आदि पहना दिए। उसके बाद विस्मित होकर राजाने मंत्री से पूछा-हे मंत्री,
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