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श्री कामघट कथानकम शिरोवेण्यां ग्रीवायां पंचवर्णपुष्पमालाधरा च साक्षात्कल्पलतेव शोभमाना धनकुचकुम्भभारैरानम्रीभृतहृदया चलन्ती प्रतिपदं स्नेहं प्रकाशयन्ती गंभीरनाभिका कृशोदरी नपुरं रणत्काररवं वादयन्ती पिकीव प्रियभाषिणी जितेन्द्रियाणामनेकसाहसिकानाञ्चापि सत्वभंजिका, एवंप्रकारा सा गणिका भूत्वा मन्त्रिणोऽग्रे समाजगाम । चागत्य वेणीकचानुत्कचयन्ती मुखेनोच्छ्वसन्ती आलस्यभरेणांगं मोटयन्ती कंचुकीबन्धनं च शिथिलीकुर्वती अनेकहावभावविभ्रमादिविलासान् कुर्वाणा स्ववशानयनाय स्वात्मानं मन्त्रिणं दर्शयामास ।
___ इन सोलह सुन्दर शृङ्गारों से अपने देह को साक्षात् स्वर्ग की आसरा की तरह बनाकर छल-कपट रूपी नाट्य में पण्डिता वह वेश्या-अपनी कमर से सिंह को, चोटी से शेष नाग को, मुख से चन्द्रमा को, चाल से हाथी को, आखों से हरिणी को और अपने मनोहर रूप से रति को भी पराजय करती हुई, चारों ओर चंचल तिरछी नजर रूप बाणों को फेकती हुई, भौंरों के समान अलका ( माथे पर बालों की लटें) को धारण करने वाली, धनुष के समान भौंह वाली कामुक जनों के प्राणों को कामबाण से बींधती हुई, सुवर्ण की रेखा से शोभित दाँतों वाली टेढ़ा मुंह करके अंगुलियों में पेन्ही हुई अंगूठी को बार बार निहारती हुई, मस्तक की वेणी (चोटी) और गले में पांच वर्षों के पुष्पों की माला को धारण करने वाली साक्षात् कल्पलता की तरह शोभती हुई, घड़े के समान विशाल स्तनों की भार से झुके हुए हृदय वाली, चलती हुई पग पग में प्रेम को प्रगट करती हुई, गहरी नाभि वाली, पतली कमर वाली, नूपुर ( पायल ) को रन-रनाती (झन-झनाती ) हुई कोयल की तरह मीठे स्वर वाली जितेन्द्रियों और साहसियों के भी पराक्रम को चकनाचूर कर देने वाली, इसतरह का रूप धारण कर वह वेश्या मंत्री के सामने आगई और आकर चोटी को खोलती हुई, मुख से हांफती हुई आलस के भार से अंगों को मरोड़ती हुई, नमस्तीन (जाकिट ) की गांठ (बटन ) को ढीली करती हुई, अनेक तरह के हाव, भाव, विभ्रम और विलास को करती हुई अपना वश में लाने के लिए अपनी आत्मा ( अपना स्वरूप ) को मंत्री को दिखलाने लगी।
तथाहिजैसे :हावो मुख-विकारः स्याद् , भावश्चित्त-समुद्भवः । विलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो भ्रू-समुद्भवः ॥ १६ ॥
मुख के विकार-चेष्टा “हाव" कहे जाते हैं, चित्त (हृदय, मन) के विकार "भाव" कहे जाते हैं, नेत्र के विकार "विलास" कहे जाते हैं और भौंह के विकार ( चेष्टा ) "विभ्रम" कहे जाते हैं ।। १६ ।।
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