Book Title: Kamghat Kathanakam
Author(s): Gangadhar Mishr
Publisher: Nagari Sahitya Sangh

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Page 66
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री कामघट कथानकम यत: क्योंकिदाणं मग्गण-दव्वं, भांडं लंचा-सुभासियं वयणं । जं सहसा न य गहियं, तं पच्छा दुल्लहं होइ ॥ ७॥ ( संस्कृत छाया) दानं मार्गण-द्रव्यं भाण्डं लाश्चा सुभाषितं वचनम् । यत् सहसा न गृहीतं तत् पश्चात् दुर्लभं भवति ॥ दान, ढूंढ़ा हुआ द्रव्य, वर्तन, घृश, सुभाषित वचन जो जल्दी ग्रहण न किया जाए तो वह पीछे दुर्लभ हो जाता है ।। ७॥ एवं दानं गृहीत्वा मन्त्रो यावत्पश्चादागन्तुमिच्छति तावत्सुवायुना प्रेरितः पोतोऽसाय समुद्रमध्ये दूरं गतः । तेन पश्चात्तटे समागन्तुं समर्थो न बभूव, प्रवहणमध्ये एव स्थितः। अथ सागरदत्त न व्यवहारिणा मिथः कथाप्रसंगेन सं मन्त्री सकलकलाकलापकुशलो ज्ञातः। ततस्तेन श्रष्टिना मन्त्री पृष्टस्त्वं लेखलिखनादिकं किमपि वेत्सि ? तेनोक्तं सम्यग् वेनि । हे श्रेष्ठिन् ! द्वासप्ततिकलाकुशलत्वन्त्वास्तां परं धर्मकलाज्ञानं विना भगवन्नामस्मरणं विना च सर्वमपि निरर्थकमेव । इस तरह दान लेकर जबतक मंत्री पीछे आना चाहता है तबतक वायु की झोंक से जहाज जल्द ही समुद्र के बीच में दूर चला गया। इसलिए वह पीछे लौटने में समर्थ नहीं हो सका, जहाज में ही बैठा रहा। अब सागरदत्त व्यापारीने परस्पर बातचीत से उस मंत्री को सारी कलाओं में प्रवीण समझा | तब उस सेठने मंत्री को पूछा-कि-तुम लेख लिखना आदि कुछ जानते हो ? मंत्रीने कहा-अच्छी तरह जानता हूं। हे सेठ, बहत्तरकला की कुशलता की बात तो छोड़ो, परन्तु धर्म कला के ज्ञान के बिना और भगवान के नाम स्मरण बिना सभी व्यर्थ हैं। यतः क्योंकि For Private And Personal Use Only

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