________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्री कामघट कथानकम् पुनर्विलापपूर्वकं रोख्यते स्म | हन्त ! पूर्वस्मिन् भवे मया महान्ति कोटिशः कल्मषाण्युपार्जितानि येन मद्विल्लभो मामेवं पथ्येव विहाय गतः। अथाहं निर्माथा क्व गच्छानि ? अस्मिन् क्षणे परमस्नेहवन्तो गोवत्सा अपि स्तन्यपानं विधातुं स्वमातरं प्राप्ताः । प्रतिगृहं प्रज्वलच्छिखा दोपमालिकाच प्रज्वलिताः। रात्रिंचराश्चोन्मत्ताः सन्तो नर्तितं लग्नाः। विरहिजनविरहार्तिवर्द्धनश्चन्द्रोऽप्युदियाय । पुनस्तेन विरहिण्योऽतीव दुःखिताः समजायन्त । अथाहमनाथा किं कुर्या चक्रवाकीव गाढतरदुःखधारिण्यहमभूवम् । एवमनेकधा विलप्य सा तत्रैव वाटिकायां भगमनजं दुःखं सस्मार । अपि चाहो ! क मे पितरौ क्व चाहं ?, मया यत्र यत्र दृग्विन्यस्यते तत्र सर्वत्र पत्यभाव एव विलोक्यते । हा प्राणनाथ १ प्रतिक्षणं ते मुखाब्जाकृतिस्मरणं कुर्वत्या मेऽक्षिणी जीमूतो जलधारामिवाश्रुधारां मुंचतः । हे पतिदेव ! त्वां विना कोऽरण्यसमानायामस्यां वाटिकायां मद्य सायं स्थानं दास्यति । अन्यच्च कथमहं स्वशीलवतं रक्षयिष्यामि ? किं बहु निगदामि किमनुतिष्ठामि ? हे पतिदेव ! त्वदभावेऽहं सर्वतो दिङमूढा निश्शोभा गतविचारा च जाताऽस्मि । सैवंविधं नानाविलाप परिदेवनं चिरं विधायोत्थाय च दृशावितस्ततः परिभ्रम्यावलोकयति स्म । ततः कुत्रापि स्वाम्यभिज्ञानमलभमानातीवोदासोना सती तत उदस्थात् । निजेशं विलोकयन्ती वाटिकोपकण्ठे कुलालमेकमद्राक्षीत् । अथ तत्समीपं गत्वेयं सुवाला मृदया सम्बन्धसूचिकया दीनया गिरा तमगादीत्—हे बान्धव ! यदि त्वं मां स्वसारमिवांगीकुर्यास्तह्य हमन्यदेशनिवासिनी स्वदुःखपूर्णां विज्ञप्ति श्रावयेयम् ।
फिर, रे मन, उस पति के विरह में चैन से रहे हुए तुम मुझे क्यों लजाते हो ? इससे तो अच्छा होता कि बाधिन आकर मुझे खालेती, यही बेजोड़ दवा मेरी इलाज के लिए हो। इसतरह अनेक प्रकार से बार बार अपने कर्म के दोषों को निकाल (कह ) कर उस समय अकेली ही वह बेचारी अपनी बेसमझी से पहले ( पूर्व जन्म में ) किए हुए कर्मों की निन्दा की। फिर बोल बोल कर खूब रोने लगी-हाय, पूर्व जन्म में मैंने करोड़ों बड़े पाप किए हैं, जिससे मेरे पति मुझे इसीतरह रास्ता में ही छोड़कर चले गए। अब मैं पति के बिना कहां जाऊं ? इस समय पूरे प्रेम वाले गायों के बछड़े भी दृध पीने के लिए अपनी मां के पास गए। हर एक मकान में दीपों की कतारें जलने लगी। रात्रिचर (रात में चलने वाले राक्षस आदि) पागल होकर नाचने लगे। वियोगिनियों के विरह-पीड़ा को बढ़ाने वाला चन्द्रमा भी उग गया और उस ( चन्द्रोदय ) से विरहिणी स्त्रियां अधिक दुःखित होने लगी। अब, मैं अनाथा (पति के बिना ) क्या करूँ ? चक्रवाकी ( चकली) की तरह मैं बहुत दुःख की भारवाली हो गई हूं। इसतरह
For Private And Personal Use Only