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श्री कामघट कथानकम्
वावत्तरिकलाकुसला, पंडियपुरिसा अपंडिया चेव ।
सव्वकलाणं पवरा, जे धम्मकलं न जाणंति ॥८॥ (संस्कृत छाया-)
द्वासप्तति-कला कुशलाः पण्डित-पुरुषा अपण्डिताश्चैव ।
सर्व-कलानां प्रवराः ये धर्मकलां न जानन्ति ॥ ८॥ . बहत्तर कलाओं में चतुर, सब कलाओं में प्रवीण पण्डित पुरुष भी यदि धर्मकला को नहीं जानते हैं तो वे अपण्डित (मूर्ख) ही हैं ।। ८ ।।
अपि चऔर भीसीखेहो अलेख लेख कविता गीतनाद- छन्द,
ज्योतिषके सीखे रहते मगरूरमें । सीखेहो सौदागिरी सराफी बजाजी लाख,
रुपियनके फेरफार बहेजात पूरमें ॥ सीखेहो जंत्र मंत्र तंत्र बातां भातां बहु ज,
जगत कहत जाको हाजर हजूर ! में । कहे मुणि 'राजेन्द्रसरि' जिननाम बोलवो,
नहीं सीख्यो ताको सब सीख्यो गयो धूरमें ॥ ६ ॥ एवं धर्मसम्बन्धीनि वचनान्यकर्ण्य महाहर्षेण व्यवहारिणोक्तम्-तहि त्वं मम न्यापारसम्बंधि लेखादिकम कुरु, तेनापि तदंगीकृतं, ततो व्यवहारिणाऽपि स लेखादिकार्ये स्थापितः। एवं स तत्र सुखेन कालं गमयति स्म ।
इसतरह धर्म की बातें सुनकर खुश होकर व्यापारीने कहा-तो तुम मेरा व्यापार संबन्धी लिखने आदि का काम करो-मंत्रीने भी मंजूर कर लिया। फिर सेठने भी मंत्री को लिखने आदि के कार्य में नियुक्त कर दिया, इसतरह वह मंत्री सुख से समय बिताने लगा।
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